जातिभेद मिटाने के लिए..

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d (1)आरक्षण और चुनाव की बात होते ही जाति की चर्चा होने लगती है। असल में जाति और जातिभेद दो अलग चीजें हैं। हर बच्चे का जन्म किसी वंश, गोत्र, वर्ग या जाति में होता है; पर कई लोग इसके कारण खुद को हीन या श्रेष्ठ समझने लगते हैं। ये जातिभेद की मानसिकता है, जो प्रयासपूर्वक दूर की जा सकती है। एक साथ रहने, पढ़ने, खाने और खेलने से प्रेम बढ़ता है। छात्रावास और सेना इसके उदाहरण हैं। अतंरजातीय और अंतरप्रातीय विवाह से ये भी दूरियां कम होती हैं। आजकल तो जातिवादी टिप्पणी पर दंड भी दिया जाता है; पर जातिभेद दूर करने की जिम्मेदारी कानून से अधिक घर, विद्यालय और समाज की है। अतः ऐसी टिप्पणी करने वाले को उचित व्यक्ति द्वारा समय पर ही टोकना जरूरी है।

जातिवाद मिटाने की बात तो कई लोग और राजनीतिक दल करते हैं, जबकि इनके कारण ही ये बीमारी फैल रही है। क्योंकि वोट देने लायक होते ही घर और चौपाल की चर्चा से युवाओं के मन में इसकी स्पष्ट रेखा बन जाती है; लेकिन लोकतंत्र में चुनाव तो होंगे ही। फिर क्या हो ? जैसे कम्प्यूटर में तकनीकी खराबी को तकनीक से ही दूर करते हैं, ऐसे ही लोकतंत्र के इस विष को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही हटाया जा सकता है। इसके लिए राजनीतिक दल और चुनाव प्रणाली में सुधार करना होगा।

राजनीतिक दल – भारत में कितने राजनीतिक दल हैं, यह चुनाव आयोग भी नहीं बता सकता। चुनाव से पहले रातोंरात दल बनते हैं और फिर वे कहां जाते हैं, पता नहीं ? अधिकांश राजनीतिक दल एक व्यक्ति या परिवार पर आधारित हैं। जयललिता, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू, चंद्रशेखर राव, उद्धव और राज ठाकरे, शरद पवार, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, लालू यादव, मुलायम सिंह, प्रकाश सिंह बादल, ओमप्रकाश चौटाला, मायावती, अजीत सिंह, केजरीवाल, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, जीतनराम मांझी आदि को व्यक्ति कहें या दल, बात एक ही है। ये अपने दल के सर्वेसर्वा हैं और आजीवन रहेंगे। इनके बाद दल को उनके उत्तराधिकारी चलाएंगे या फिर वह दल समाप्त हो जाएगा। एक खास बात और है कि ये एकधु्रवीय दल किसी एक राज्य तक सीमित हैं। इनके किसी दूसरे राज्य में फैलने की संभावना नहीं है।

दूसरी ओर कांग्रेस एक परिवार तक सीमित है। बीच में कुछ और लोग आये, फिर उन्हें किनारे कर दिया गया। इस समय कांग्रेस सोनिया जी की जेब में है। फिर इसे राहुल या प्रियंका संभालेंगे। वामपंथी दल विदेशी विचारों पर आधारित हैं। यद्यपि यह कोई नहीं बता सकता कि इन दिनों भारत में कितने वामदल हैं ? कहते हैं कि वहां जिम्मेदारी देते समय रूस और चीन की अनुमति जरूरी है। यद्यपि अब वे इतने सिकुड़ चुके हैं कि कोई उधर ध्यान नहीं देता। भा.ज.पा. एक राष्ट्रवादी दल है। उसका आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का व्यापक संजाल है। अतः संगठनात्मक निर्णयों में संघ की सहमति ली जाती है। यद्यपि इसके लिए कई स्तर पर चिंतन और मंथन होता है।

लेकिन विचारणीय बात यह है कि लोकतंत्र का आधार होने पर भी क्या इन दलों में आंतरिक लोकतंत्र है; क्या इनकी सदस्यता, चंदा प्रणाली और आंतरिक चुनाव पारदर्शी हैं; यदि नहीं, तो फिर इनके भरोसे लोकतंत्र का रथ कैसे चलेगा ? इसलिए सबसे पहले इन दलों को ही ठीक करना होगा।

इन दिनों हर दल का अपना संविधान है। जरूरत इस बात की है कि संसद कुछ ऐसे कानून बनाये, जिनका पालन करना हर दल के लिए जरूरी हो। जैसे अध्यक्ष का कार्यकाल दो या तीन साल हो। लगातार दो बार (तथा जीवन में तीन बार) से अधिक कोई अध्यक्ष न रहे। केन्द्र और राज्य की तरह जिला चुनाव आयुक्त की देखरेख में सदस्यता का सत्यापन तथा आंतरिक चुनाव हों। पेट ठीक तो सब ठीक की तरह राजनीतिक दलों की आंतरिक व्यवस्था ठीक होते ही लोकतंत्र भी पटरी पर आ जाएगा।

चुनाव प्रणाली – हमने जो चुनाव प्रणाली अपनायी है, उसमें सौ में से 51 वोट पाने वाला जीतता है और भरपूर जनाधार के बावजूद 49 वोट वाले की आवाज दब जाती है; पर चुनाव की ‘सूची प्रणाली’ से 49 वोट वाले की बात भी सुनी जा सकती है। इसमें हर दल चुनाव आयोग के पास अपने कुल प्रत्याशियों की सूची जमा करता है। फिर चुनाव व्यक्ति नहीं, दल लड़ता है। जिस दल को जितने प्रतिशत वोट मिलेंगे, सूची के उतने लोग निर्वाचित मान लिये जाएंगे। सूची का पहला व्यक्ति प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या सदन में दल का नेता बनेगा। कम स्थान मिलने पर भी हर दल के शीर्ष नेता सदन में अवश्य पहुंचेंगे। इससे सदन में काम का स्तर सुधरेगा।

ये प्रतिनिधि एक क्षेत्र की बजाय पूरे राज्य या देश के प्रतिनिधि होंगे। इसलिए हर दल जाति, परिवार, भाषा या क्षेत्र से ऊपर उठकर शिक्षित तथा अनुभवी लोगों को प्रत्याशी बनाएगा। आज तो ऐसे लोग चुनाव जीत ही नहीं सकते। व्यक्ति का महत्व न होने से शराब और पैसे का वितरण तथा गुंडई नहीं होगी। संसद का काम देश तथा विधानसभा का काम राज्य के लिए कानून बनाना है; पर अभी तो अधिकांश प्रतिनिधि अपने क्षेत्र में बिजली, पानी और सड़क की चिंता में ही लगे रहते हैं। क्योंकि इसके बिना बेड़ा पार नहीं होता।

माना किसी विधानसभा में सौ स्थान हैं। मैदान में उतरे चार दलों को क्रमशः 40, 30, 20 और 10 प्रतिशत वोट मिले। बस, हर दल की सूची में ऊपर से इतने प्रतिशत लोग विधायक हो जाएंगे। किसी को बहुमत न मिलने पर चुनाव के बाद गठबंधन यहां भी होगा। इस प्रणाली में कोई निर्दलीय चुनाव नहीं लड़ेगा। हां, चुनाव की घोषणा से पहले समान विचार वाले लोग मिलकर नया दल बना सकेंगे; पर उन्हें भी सौ लोगों की सूची तथा जमानत के पैसे देने होंगे। एक निश्चित प्रतिशत से कम वोट पाने वाले दल की मान्यता समाप्त हो जाएगी। इससे व्यापक सोच, जनाधार तथा निश्चित विचारधारा वाले दल ही शेष बचेंगे। जीतने के बाद उन्हें काम करने में भी सुविधा होगी। अभी तो गठबंधन की मजबूरी तथा निर्दलीय या छोटे दलों के मोलभाव के कारण वे अपनी नीतियां लागू ही नहीं कर पाते।

इस प्रणाली से जाति, क्षेत्र और व्यक्तिवादी दल पिट जाएंगे। क्योंकि उनकी जीत पूरे राज्य और देश के वोटों से तय होगी, दो-चार संसदीय या विधायी क्षेत्रों से नहीं। यदि एक पूरी जाति या क्षेत्र के वोट उन्हें मिल जाएं, तो भी राज्य में वह चार-छह प्रतिशत और देश में एक प्रतिशत से कम होंगे। इससे सदन में उनके बहुत कम प्रतिनिधि पहुंचेंगे और वे मोलभाव नहीं कर सकेंगे। इस प्रणाली में चुनाव बहुत सस्ते होंगे और भ्रष्टाचार मिटेगा। अभी तो अधिकांश नेता चुनाव जीतते ही अगली बार के लिए धन जुटाने लगते हैं। जब व्यक्ति चुनाव लड़ेगा ही नहीं, तो वह पैसा क्यों बटोरेगा ?

इस प्रणाली में उपचुनाव न होने से विकास के काम अवरुद्ध नहीं होंगे। यदि त्यागपत्र या मृत्यु से कोई स्थान खाली होता है, तो शेष समय के लिए सूची का अगला व्यक्ति प्रतिनिधि हो जाएगा। सूची प्रणाली अपनाने से सदन में इतने लोगों की जरूरत भी नहीं होगी। बड़े राज्य में 100 और छोटे में 25 विधायक तथा लोकसभा में 250 सांसद पर्याप्त हैं। काम तो अब भी इतने ही लोग करते हैं। बाकी तो भत्ते और राजधानी में आवास सुविधा का लाभ ही उठाते हैं।

पर ऐसे में क्षेत्र की बिजली, पानी, सड़क जैसी जरूरतों का क्या होगा ? तो ये अधिकार त्रिस्तरीय लोकतंत्र में तीसरे अर्थात जिला, नगर और ग्राम पंचायतों को दिये जा सकते हैं। ये संस्थाएं केन्द्र तथा राज्य द्वारा निर्मित कानूनों के प्रकाश में अपना काम करेंगी। कुछ कानून के जानकार इन्हें सहायता के लिए राज्य की ओर से मिलेंगे। यद्यपि इन चुनावों में जाति, धन और बाहुबल का कुछ प्रभाव रहेगा; पर ऊपर इनका महत्व समाप्त होने से नीचे का माहौल भी क्रमशः ठीक हो जाएगा। चुनाव आयोग की देखरेख में ये चुनाव निर्दलीय आधार पर हों। अर्थात राजनीतिक दलों के चुनाव चिõों का इनमें प्रयोग न हो। इससे जाति, क्षेत्र, भाषा आदि की कटुता निचले स्तर पर ही कम हो जाएगी।

यद्यपि कोई भी व्यवस्था परिपूर्ण नहीं है। कोई कह सकता है कि सूची प्रणाली में नेताओं के खास लोगों को ही स्थान मिलेगा; पर यह बीमारी तो आज भी है। इस प्रणाली से यह कम होगी। चूंकि सूची में सभी जाति, वर्ग, आयु, क्षेत्र आदि को समुचित स्थान देना होगा। महिला तथा आरक्षित वर्गों के लिए भी कुछ स्थान निश्चित होंगे। अच्छे लोगों को हर दल अपनी सूची में जोड़ना चाहेगा। इससे अनुभव के साथ ही संगठन तथा जनहित में लगातार काम करते रहने वाले लोग आगे आएंगे। मतदाता की तरह प्रतिनिधि बनने के लिए भी कुछ न्यूनतम आयु निर्धारित करनी होगी। इससे राजनीति को पेशा समझने की बजाय जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों से परिपक्व हो चुके लोग ही प्रतिनिधि बनेंगे। दो-तीन चुनावों से इस प्रणाली की कमियां ध्यान में आ जाएंगी, जिन्हें फिर दूर किया जा सकता है।

भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार, जातिभेद और परिवारवाद ऊपर से आया है और यह ऊपर से ही समाप्त होगा। अतः इन सूत्रों पर गंभीर विचार आवश्यक है।

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