कितने भयावह हैं आहरों को मिटाने के नतीजे!

झारखंड के लोक गीतों और लोक कथाओं में जहाँ जल स्त्रोंतों की स्तुति छलकती है वहीं सरकार द्वारा गठित विभिन्न आयोगों के रिपार्ट से इस बात की जानकारी मिलती है कि वहाँ कभी सिंचाई की बड़ी अच्छी व्यवस्था थी। उल्लेखनीय है कि 1860 ई0 में अंग्रजों ने भीषण अकाल के बाद ईस्ट इण्डिया इरीगेशन एण्ड कैनाल कम्पनी की स्थापना की थी। इसकी स्थापना के करीब 40 साल बाद एक सिंचाई आयोग अस्तित्व में आया जिसकी रिपोर्ट से पता चलता है कि संथाल परगना (जंगलतरी) और छोटानागपुर में बड़े पैमाने में आहर और बाँध अस्तित्व में थे। यही वजह है कि जब बंगाल में लाखों लोग भूख से मर गए तब छोटानागपुर और जंगलतरी में अनाज-पानी की कोई कमी नहीं थी, भुखमरी तो बहुत दुर की बात थी।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में तो झारखंड के जल स्त्रोतों की भरपूर चर्चा है। बंगाल गजेटियर (1907) के अनुसार विंध्यपर्वत के पूर्वी छोर के वनाच्छादित उच्च भूमि में निवास करनेवाले 33 आदिवासी समुदायों के बीच आहर के जरिए अनाज की भरपूर पैदावार होती थी। छोटानागपुर-संथाल परगना के सर्वे सेटलमेंट ऑफिसर जॉन रिड लिखते हैं, ”यहाँ करीब हर गाँव में एक न एक बाँध या तालाब मिल जाते हैं। नब्बें प्रतिशत से ज्यादा खेतों में आहर से ही पटवन होता है। इन तालाबों आहरों के पानी को नाले या अन्य माध्यमों से खेतों में पहुँचाया जाता है। जल स्त्रोतों से खेतों तक जानेवाले नाले पाईन कहे जाते हैं।” दूसरी ओर एम.के. फर्सन आहर-तालाब के अस्तित्व एवं रख-रखाव की चर्चा करते हैं। उनके मुताबिक यहाँ की अन्य वन्य जातियाँ सामुदायिक संगठन जैसी ठोस सुदृढ़ व्यवस्था में एक दूसरे से जुड़ी थीं जिससे सहकारिता को बेहद बढ़ावा मिलता था। वह लिखते हैं, ‘वहाँ के किसान तालाब-आहर बनाने के अलावा उनका मरम्मत भी समय पर करते हैं। इन कामों का दायित्व गाँव के मुखिया या रैयत का होता है। रैयतों केर् कत्तव्यों से संबंधित रिकार्ड्स में इस बात की व्यवस्था थी कि कोई भी रैयत भू-स्वामी को सूचना दिए बगैर या उसकी अनुमति के बगैर बाँध या खेती और सिंचाई से जुड़े कोई भी काम कर सकता है।”

जल संग्रह के ऐसे उपायों के अलावा झारखंड के मूल वाशिंदे नदी की गोद में खेती करते रहे है। बरसाती नदी की बाढ़ खत्म होते ही स्थानीय ग्रामीण घुटने भर ऊँचे मेड़ आज भी बनाकर धान की फसल लगाते है। इस तरीके से जमा पानी सालों भर इकट्ठा होता है, जिसका उपयोग खेती के अलावा जानवरों की प्यास बुझाने में भी होता है। नदी के किनारे कच्चे कुँए खोदकर या चुँओं के जल बहाव को खेतों की ओर मोड़कर ये आदिवासी आज भी खेती करते हैं। आज जब कि अरबों रूपए बहाये जाने के बावजूद इस राज्य में 175 से ज्यादा बड़ी एवमं मध्यम सिचाई परियोजनाएँ लम्बित है, एक सौ से कहीं ज्यादा परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं फिर भी झारखंड के खेत बंजर होते चले जा रहे है। वहाँ सिंचाई की जो परम्परागत विधियाँ थीं वे अवैज्ञानिक ठहरायी गयी और खेतों में हरियाली बिछाने की वैज्ञानिक तरकीबों से रक्तवीर्य बना अकाल नियमित रूप से वहाँ सालाना ‘जलसा’ बन चुका है।

परम्परा के कैनवास पर जन और जल के आत्मीय संबंध बिसरते जा रहे हैं। जंगलों से प्रेम करनेवाले लोगों की तमाम व्यवस्थाएँ चरमरा चुकी है। जिस एक आहर से 50 से 100 बीघे (20 से 40 एकड़) खेतों की सिंचाई होती थी (उपायुक्त एफ.टी. लायल रिपोर्ट के अनुसार) उस पारम्परिक व्यवस्था को अंग्रेजों ने अस्वीकार कर दिया। आहरों पर गाँव का स्वामित्व फिरंगियो को रास नहीं आया। साजिश के तहत पहले जमींदारों के हाथों में आहर सौपें गए और जमींदारों के हाथों से इसके रखरखाव का दायित्व ठेकेदारों के पास जा पहुँचा। ठेकेदारों को जमींदार पाँच वर्षों के लिए बहाल करते थे। ये ठेकेदार लगान वसूल कर जमींदारों को पहुँचाते थे और इसके लिए उन्हें कमीशन मिलता था। ठेकेदारों द्वारा टैक्स वसूली के इस तरीके से आहरों एवं बाँधों की मरम्मती और उसके रखरखाव में उपेक्षा शुरू हुई। चूंकि तब ऐसी व्यवस्था थी कि आहरों के अच्छे सेहत के लिए किये जानेवाले खर्च का आधा हिस्सा जमींदारो को देना पड़ता था। मगर यह सब उन्हें रास नही आया। इस प्रकार आहत उपेक्षित हुए।

सत्तर के दशक में झारखंड में देशी-विदेशी परियोजनाओं की बाढ़ सी आ गई। अब तो धरती के कोख में पानी भी नही बचा। जहाँ बारिश नही हो रही है वहाँ ग्रामीण विकास मंत्रालय चेकडैम बनवा रही है और जहाँ सावन के महीने में खेतों में धूल के भभूके उड़ते हो वहाँ राज्य सरकार बत्तखें बाँट रही है।

आज बंदर मारकर या सूखी लकड़ियाँ चबाकर मरते-बिलाते आदिवासी या गैर-आदिवासी इस आजाद देश के मूल वाशिंदे है, विश्वास नही होता। अब अहसास होने लगा है कि आहरों को भुलाकर हमने इनका बड़ा अनर्थ किया है। पानी-भोजन के अभाव में इंसान तो पलायन कर जाते है मगर जानवर जाइए पलामू के नरसिंहपुर के पशु बाजार में, जहाँ पाँच हजार रूपये के दुधारू पशु गाँववाले कसाइयों को हजार बारह सौ रूपए में बेच रहे हैं।

-अमरेंद्र किशोर

1 COMMENT

  1. सारॆ हिन्दुस्तान मॆ यहि हालात ह पर सरकार बदि सॆ बदि यॊजना बदॆ सॆ बदॆ बन्ध बनानॆ मॆ लगि ह, स्थानिय जिवन शेलि कॊ गवारपन समजा जाता ह‌

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here