कैसे बने पुलिस का चेहरा स्मार्ट ?

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प्रमोद भार्गव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुलिस का चेहरा और व्यवस्था परिवर्तन के पांच सूत्र वाक्य पुलिस प्रमुखों के सम्मेलन में दिए हैं। पुलिस को स्मार्ट बनाने की कल्पना से जुड़े ये आदर्श वाक्य हैं, पुलिस कड़क किंतु संवेदनशील हो, आधुनिक और गतिशील हो,सतर्क और जिम्मेबार हो, भरोसेमंद एंव दायित्व का निर्वहन करने वाली हो और तकनीक में दक्ष एंव प्रशिक्षित हो। यदि इन उपदेशों पर पुलिस अमल करने लग जाती है तो पुलिस से शिकायतें लगभग समाप्त हो जाएंगी। लेकिन अंग्रेजों के जमाने के कानून में बदलाव लाए बिना क्या ऐसा संभव है ? यह जवाब भी मोदी को देना चाहिए ? क्यांकि पुलिस की कार्यप्रणाली प्रजातांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक अधिकारों के प्रति उदार, खरी व जवाबदेह हो, ये दिशा निर्देश सर्वोच्च न्यायालय भी 8 साल पहले राज्य सरकारों को दे चुकी है,लेकिन गुजरात समेत अमल की पहल किसी राज्य ने नहीं की ? जाहिर है, कानून में बिना कोई परिवर्तन किए मोदी का संदेश भी बेअसर बना रहेगा ?

ब्रितानी हुकूमत के दौरान 1861 में वजूद में आए ‘पुलिस एक्ट’ में बदलाव लाकर कोई ऐसा कानून अस्तित्व में आए जो पुलिस को कानून के दायरे में काम करने को तो बाध्य करे ही, पुलिस की भूमिका भी जनसेवक के रूप में चिन्हित हो, क्या ऐसा नैतिकता और ईमानदारी के बिना संभव है ? पुलिस को मानवतावादी बनाने के लिए यह सवाल शायद सबसे ज्यादा अहम है,जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नहीं किया,क्योंकि वे जानते हैं कि पुलिस व अन्य प्रशानिक व्यवस्थाओं को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना आसान नहीं है,इसलिए जले पर नमक क्यों छिड़का जाए ? पुलिस राजनीतिकों के दखल के साथ पहुंच वाले लोगों के अनावश्यक दबाव से भी मुक्त रहते हुए जनता के प्रति संवेदनशील बनी रहे, ऐसे फलित तब सामने आएंगे जब कानून के निर्माता और नियंता ‘अपनी पुलिस बनाने की बजाय अच्छी पुलिस’ बनाने की कवायद करें,जो हो नहीं रहा है।

उच्चतम न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था को व्यावहारिक बनाने की दृष्टि से सोराबजी समिति की सिफारिशें लागू करने की हिदायत राज्य सरकारों को दी थी। लेकिन पुलिस की कार्यप्रणाली को जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप बनाने की पहल किसी भी राज्य सरकार ने नहीं की। चूंकि ‘पुलिस’ राजनीतिकों के पास एक ऐसा संवैधानिक औजार है जो विपक्षियों को कानूनन फंसाने अथवा उन्हें जलील व उत्पीडि़त करने के आसान तरीके के रूप में पेश आती है। इसीलिए पुलिस तो पुलिस, सीवीसी और सीबीआई को भी सत्ताधारी हाथों का खिलौना बनाए हुए हैं। सीबीआई के पूर्व निदेशक रहे रंजीत सिन्हा इसका ताजा तरीन सुबूत हैं। इससे जाहिर होता है सभी राजनीतिक दलों की फितरत कमोबेश एक जैसी है। नौकरशाही की तो डेढ़ सौ साल पुराने इसी कानून के बने रहने में ही बल्ले-बल्ले है। सो पूरे देश में यथा राजा, तथा प्रजा की कहावत फलीभूत हो रही है।

पुलिस की स्वच्छ छवि के लिए जरूरी है उसे दबाव मुक्त बनाया जाए। क्योंकि पुलिस काम तो सत्ताधारियों के दबाव में करती है, लेकिन जलील पुलिस को होना पड़ता है। झूठे मामलों में न्यायालय की फटकार का सामना भी पुलिस को ही करना होता है। पुलिस के आला-अधिकारियों की निश्चित अवधि के लिए तैनाती भी जरूरी है। क्योंकि सिर पर तबादले की तलवार लटकी हो तो पुलिस भयमुक्त अथवा भयनिरपेक्ष कानूनी कार्रवाई को अंजाम देने में सकुचाती है। कई राजनेताओं के मामलों में तो जांच कर रहे पुलिस अधिकारी का ऐन उस वक्त तबादला कर दिया जाता है, जब जांच निर्णायक दौर में होती है। जब प्रभावित होने वाला नेता यह भांप लेता है कि जांच में वह प्रथम दृष्ट्या आरोपी साबित होने वाला है तो वह अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल कर जांच अधिकारी का तबादला करा देता है। हालांकि जांच और अभियोजना के लिए पृथक एजेंसी की जरूरत भी है। ऐसा होता है तो पुलिस लंबी जांच प्रक्रिया से मुक्त रहते हुए, कानून-व्यवस्था को चुस्त बनाए रखने में ज्यादा ध्यान दे पाएगी। पुलिस को स्मार्ट बनाए जाने के लिए ये उपाय जरूरी हैं।

पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्य बनाया जेाना जरूरी है। क्योंकि पुलिस कमजोर व पहंुचविहीन व्यक्ति के खिलाफ तो तुरंत एफआईआर लिख लेती है, लेकिन ताकतवर के खिलाफ ऐसा तत्काल नहीं करती। इसलिए नाइंसाफी के शिकार लोग अदालतों में निजी इस्तगासे दायर करके मामलों को संज्ञान में ला रहे हैं। ऐसे मामलों की संख्या पूरे देश में लगातार बढ़ रही है। इस वजह से पहली नजर में जो दायित्व पुलिस का है उसका निर्वहन अदालतों को करना पड़ रहा है। अदालतों पर यह अतिरिक्त बोझ है। अदालतों में ऐसे मामले अपवाद के रूप में ही पेश होने चाहिए ? न्यायालय ने तो निर्देशित भी किया है कि पुलिस किसी भी फरियादी को एफआईआर दर्ज करने से मना नहीं कर सकती। अक्सर इस दायित्व के प्रति पुलिस बेफिक्र रहती है।

राष्ट्रीय पुलिस आयोग भी पुलिस की मौजूदा कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं है। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 60 फीसदी, ऐसे लोगों को हिरासत में लिया जाता है, जिन पर लगे आरोप सही नहीं होते। कारागारों में बंद 42 फीसदी कैदी इसी श्रेणी के हैं। ऐसे ही कैदियों के रखरखाव और भोजन पानी पर सबसे ज्यादा धनराशि खर्च होती है। ऐसे मामलों में सीबीआई और पुलिस की नाकामी जाहिर होती है और निर्दोषों को बेवजह प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए राज्य सरकारों को पुलिस व्यवस्था में सुधार की जरूरत को नागरिक हितों की सुरक्षा के तईं देखने की जरूरत है, न कि पुलिस को राजनीतिक हित-साध्य के लिए खिलौना बनाए रखने की ?

 

नरेंद्र मोदी की इस उद्बोधन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि यदि पुलिस व सुरक्षा बल गुप्त चर तंत्र मजबूत कर ले तो हथियारों की जरूरत कम हो जाएगी। हमारी खुफिया एजेंसियां मुखबिरी ठीक से नहीं कर पा रही है,इसी का नतीजा है कि आतंकियों की घुसपैठ सभी सीमांत प्रदेशों में निरंतर बनी हुई है और इसी कमजोरी का परिणाम आंतकवादियों का मुबंई पर हुआ हमला है। वैसे भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में हथियारों का उपयोग कम से कम होगा तो हिंसक वारदातें भी कम होगी। मोदी ने पुलिस का कू्रर चरित्र समाज में स्थापित करने के लिए फिल्मों को दोषी ठहराया है। एक हद तक यह आरोप सही भी है,लेकिन फिल्मों ने पुलिस का मानवतावादी चेहरा भी खूब दिखाया है। अमिताभ बच्चन को जंजीर फिल्म में पुलिस का ऐसा ही किरदार निभाने से प्रसिद्वी व प्रतिष्ठा मिली है। इसलिए यह कहना गलत है कि फिल्में पुलिस का खराब चरित्र ही गढ़ती रही है। अंततः पुलिस फिल्मों से नहीं राजनेतिक व्यवस्था से गतिशील होती है,लिहाजा पुलिस को स्मार्ट बनाने की पहली जबावदेही राजनीतिक व्यवस्था की बनती है ? इसलिए प्रधानमंत्री को जरूरत है कि वे उपदेश देने के साथ-साथ पुलिस सुधारों को भी गति दें।

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