–इक़बाल हिंदुस्तानी
पीएम मोदी भी समाज को बदले बिना व्यवस्था नहीं बदल सकते !
देश में संविधान लागू होने के 65 साल बाद भी जनतंत्र को ‘धनतंत्र’ में बदलने से नहीं रोका जा सका है। यह ठीक है कि समाजवादी व्यवस्था हमारे देश ही नहीं पूरी दुनिया में पूंजीवाद के सामने मात खा रही है लेकिन हमने जो मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया था वह उस पूंजीवाद से बेहतर था जिसमें ट्रिकल डाउन यानी पूंजी का उपर से नीचे रिसाव होकर वह तीसरे वर्ग तक चंद बूंदों की शक्ल में बहुत धीमी गति से नीचे पहुंचती है। वैश्विक सर्वे बता रहे हैं कि हमारा देश बहुत जल्द विकास दर के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा लेकिन देखना यह है कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद जिस तरह से चीन ने अपनी आधे से अधिक आबादी का जीवन स्तर मीडियम क्लास और शेष का बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने लायक बना दिया है क्या हम उस हिसाब से अपनी 77 प्रतिशत जनता की आय 20 रू0 प्रतिदिन से उपर उठाने के लिये किसी ठोस प्रोग्राम पर चल रहे हैं?
हमारा गणतंत्र आज धनतंत्र में तब्दील होने से हमारा लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रह सकेगा? इसकी वजह यह है कि नेताओं का विश्वास जनता में बिल्कुल ख़त्म होता जा रहा है। उनमें से अधिकांश बेईमान और मक्कार माने जाते हैं। आम आदमी रोज़गार से लेकर रोटी, पढ़ाई और दवाई के लिये तरस जाता है। सरकारी योजनायें कागजों में चलती रहती हैं। जनता के नाम पर पैसा खाया जाता रहता है। हर काम के सरकारी कार्यालयों में रेट तय हैं। अगर कोई बड़े अधिकारी से शिकायत करता है तो वह चूंकि खुद निचले स्टाफ से बंधे बंधाये पैसे खा रहा होता है इसलिये या तो कोई कार्यवाही नहीं करता या फिर उल्टे भ्रष्टाचारी का ही पक्ष लेता नज़र आता है। जब ज़्यादा दबाव या सिफारिश भी आती है तो वह अकसर आरोपी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी को लीपापोती कर बचाता ही नज़र आता है।
इससे आम आदमी यह मानकर चलने लगा है कि वह कुछ नहीं कर सकता और रिश्वत देकर जो काम समय पर हो सकता है वह भ्रष्टाचार स्वीकार करके कराने में ही समझदारी है। सरकार का यह दावा भी रहा है कि हमारा संसैक्स, विदेशी निवेश और अमीरों की तादाद बढ़ रही है जिससे देश के बजट से अधिक चंद उद्योगपतियों का टर्नओवर हो चुका है। सरकार महंगाई घटाने को जितने तौर तरीके अपना रही है उससे उल्टे ही नतीजे आ रहे हैं और गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सरकार के पास महंगाई घटाने का एक ही हथियार है कि जब भी महंगाई को लेकर हंगामा मचता है वह बैंक ब्याज दर बढ़ा देती है। सरकार यह देखने को तैयार नहीं है कि हमारा रोल मॉडल समझे जाने वाला अमेरिका भी आज वहां की जनता को महंगाई के खिलाफ सड़कों पर उतरने से नहीं रोक पा रहा है।
सारी दुनिया की जनता समझ चुकी है कि सरकारें पूंजीपतियों के एजेंट के रूप मंे काम कर रही हैं। हमारे यहां खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार 77 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोज़ से कम पर गुज़ारा कर रहे हैं। बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और बड़ी बीमारियो से हर साल 3.5 करोड़ नये लोग गरीबी रेखा के नीचे जाने को मजबूर हैं। सत्ता में आने से पहले जो बीजेपी कांग्रेस को जिन जनविरोधी नीतियों के लिये कोसती थी आज कमोबेश खुद उन ही नीतियों पर चल रही है। तेल के रेट इंटरनेशनल मार्केट में एक तिहायी होने बाद भी सरकार उसमें अपना टैक्स शेयर बढ़ाकर अपनी जेब भर रही है।
यह माना जा सकता है कि हमारे नेता धन,धर्म और जाति के बल पर चुने जाने के कारण महंगाई जैसे मामलों में नाकाम हो रहे हैं लेकिन वे जनहित में काम करने वाले अपने अपने क्षेत्र के विशेषज्ञों से तो सलाह मशवरा कर ही सकते हैं लेकिन वे तो अपना खुदा उस अमेरिका को मान बैठे हैं जो खुद आज पूंजीवाद की मृत्युशैया पर पड़ा कर्राह रहा है। सरकार अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की दुहाई देकर अपनी नाकामी छिपाना चाहती है लेकिन खाने पीने के सामान की देश में कोई किल्लत न होने के बावजूद जहां किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही वहीं बिचौलिये इसमें इतना मोटा मुनाफा कूट रहे हैं कि गरीब आदमी की जेब कट रही है। मिसाल के तौर पर आगरा के खंदोली में पैदा आलू किसान से तो एक से तीन रुपये की दर से ख़रीदा जाता है और वही आलू वहां से दस किलोमीटर दूर आगरा पहुंचते ही 30 रुपये बिकने लगता है।
क्या ज़रूरी नहीं हो गया है कि जिस तरह से जनहित के नाम पर सरकार किसानों की उपज का रेट तय करती है वैसे ही वह उद्योगपति और व्यापारी का लागत मूल्य जानकर उसपर अधिकतम मुनाफा निर्धारित करे। वह समय करीब आ रहा है जब यह बात खुलेगी कि सरकारें आम जनता के हित के लिये काम करती हैं या चंद धन्नासेठों से मोटा चंदा लेकर उनको महंगाई और मिलावट से जनता को लूटने का लाइसेंस देने के लिये कारपोरेट जगत के दलाल के रूप में हर दल की सरकार कमोबेश अपनी बोली लगा रही है?दरअसल सवाल नीति नहीं नीयत का है। हज़ारों किसान कर्ज में डूबकर अपनी जान दे देते हैं तो कोई बात नहीं। 2014 के चुनाव में यह बात बार बार सामने आई थी कि मोदी को कारपोरेट सैक्टर खुलकर सपोर्ट कर रहा है।
इसका नतीजा यह हुआ कि पूंजीपतियों के इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिये पैसा पानी की तरह बहाने से मीडिया भी कांग्रेस के खिलाफ और बीजेपी के पक्ष में खड़ा होता नज़र आया। इसके साथ ही अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी कांग्रेस के खिलाफ और मोदी के पक्ष में चला गया। मोदी की छवि विकास पुरूष की बन गयी। लगभग सभी सेकुलर दलों की इमेज अल्पसंख्यक वोटों की राजनीति करने से हिंदू विरोधी बनाने में संघ परिवार सफल हो गया। आज मंुह खाये और आंख लजाये वाली हालत हो गयी है।
मोदी सरकार बनवाने में जिन पूंजीपतियों और उद्योगपतियों ने चुनाव में बेतहाशा पैसा लगाया था आज वे भूमि अध्ग्रिहण कानून से लेकर फैक्ट्री एक्ट में मनचाहे संशोधन करा रहे हैं मनरेगा और सभी तरह की सब्सिडी धीरे धीरे ख़त्म करने का दबाव कारपोरेट सैक्टर का रंग ला रहा है जिससे विकास का सीधा और तत्काल लाभ तो आम आदमी मज़दूर और किसान को होता नज़र नहीं आ रहा अलबत्ता उसको यह ज़रूर लगने लगा है कि यह सरकार भी भ्रष्टाचार और महंगाई तो रोके या ना रोके लेकिन नियम कानून आम आदमी के पक्ष में न बनाकर अमीरों के लाभ के लिये ही बना रही है। इससे हमारा जनतंत्र एक बार फिर धनतंत्र बनने से रोकने का आम आदमी का सपना मोदी सरकार से भी फिलहाल तो टूटता ही नज़र आ रहा है क्योंकि अब तक उसको सिवाय हिंदूवादी एजेंडा लागू करने के वास्तविक विकास कहीं नज़र नहीं आ रहा
सोच था कि जाकर के उससे फरियाद करेंगे
कम्बख़्त वो भी उसका चाहने वाला निकला।
इक़बाल भाई,हम महज भ्र्ष्टाचार का वर्णन करें ,नेता ,अधिकारी ,पूंजीपति को भ्रष्ट बताएं यह समस्या का हल नहीं। समस्या का हल है ,नियंत्रित प्रजातंत्र। न तो समाजवाद,न साम्यवाद ,न पूंजीवाद,बल्कि नियंत्रित प्रजातंत्र। अनापशनाप विवाह समारोह के भोज, विवाह मैं करोड़ों के खर्च ,भवन निर्माण मैं कई करोड़ का खर्च आखिर क्या है यह?नेताजी के जन्मदिवस पर इंग्लैंड से शाही बग्घी,एक नेता के / जनम दिवस पर करोड़ों के जनम दिवस उपहार . एक नेता के पुत्र के विवाह मैं नागपुर मैं करोड़ों की विवाह ,निमंत्रण पत्रिका ,एक उद्योगपति जो टाटा /बिरला/डालमिया /बजाज के बाद आया है ,भारत मैं उसका भवन जयपुर महाराजा या ग्वालियर महाराजा से महंगा, पुणे मैं घोड़े के सौदागर अथाह संपत्ति जिसका कर मूल्याङ्कन नहीं हो पा रहा ,अभी अभी एक अभिनेता द्वारा ४१ करोड़ का माकन खरीदे जाने की खबर. यह क्या है. दूसरी और गरीब तबके को सस्ता अनाज ,सब्सिडी ,मनरेगा का लालच देकर आलसी,निक्कमा ,कामचोर बनाया जा रहा है. जगह जगह शराब की दुकाने नीलम हो रही है.प्रतिवर्ष नीलामी की रकम बढ़ रही है. आबादी नियंत्रण पर ध्यान नहीं है. धार्मिक ठेकेदार ४-५ बच्चे पैदा करने की सलाह दे रहे हैं. कई समाजो मैं तो आप उपदेश दें या न दें ४-५ बच्चे आम बात है. राष्ट्रीय परिवार नीति हो.do बच्चो के बाद राशन कार्ड पर अनाज नहीं,छात्रवृत्ति नहीं ,यदि हैं तो अनिवार्य रूप से उन्हें समाज सेवा के काम मैं लगावें इन सब बातों को जनता की राय लेकर,धार्मिक उपदेशकों , से सलाह मशविरा कर ,राष्ट्रीय चिंतन का विषय बनाना चाहिए. लकीरें पीटने से कुछ नहीं होगा.