कुपोषण एवं भूख की शर्म को दुनिया कैसे धोएं

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ललित गर्ग

कोरोना वायरस महामारी से आर्थिक गिरावट आई है और दशकों से भुखमरी एवं कुपोषण के खिलाफ हुई प्रगति को जोर का झटका लगा है। एक नए अनुमान के मुताबिक कोरोना वायरस महामारी से भुखमरी एवं कुपोषण के कारण एक लाख अडसठ हजार बच्चों की मौत हो सकती है। 30 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के एक नए अध्ययन के मुताबिक कोरोना वायरस महामारी के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुईं हैं जिससे भुखमरी बढ़ी है। अध्ययन में कहा गया है कि भुखमरी एवं कुपोषण के खिलाफ दशकों से हुई प्रगति कोरोना महामारी की वजह से प्रभावित हुई है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा भारत सहित पूरे विश्व में भूख, कुपोषण एवं बाल स्वास्थ्य पर चिंता व्यक्त की गई है। यह चिन्ताजनक स्थिति विश्व का कड़वा सच है लेकिन एक शर्मनाक सच भी है और इस शर्म से उबरना जरूरी है।
कुपोषण और भुखमरी से जुड़ी वैश्विक रिपोर्टें न केवल चैंकाने बल्कि सरकारों की नाकामी को उजागर करने वाली ही होती हैं। विश्वभर की शासन-व्यवस्थाओं का नाकामी एवं शैतानों की शरणस्थली बनना एक शर्मनाक विवशता है। लेकिन इस विवशता को कब तक ढोते रहेंगे और कब तक दुनिया भर में कुपोषितों का आंकड़ा बढ़ता रहेगा, यह गंभीर एवं चिन्ताजनक स्थिति है। लेकिन ज्यादा चिंताजनक यह है कि तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कुपोषितों और भुखमरी का सामना करने वालों का आंकड़ा पिछली बार के मुकाबले हर बार बढ़ा हुआ ही निकलता है। रिपोर्टें बताती हैं कि ऐसी गंभीर समस्याओं से लड़ते हुए हम कहां से कहां पहंुचे है। इसी में एक बड़ा सवाल यह भी निकलता है कि जिन लक्ष्यों को लेकर दुनिया के देश सामूहिक तौर पर या अपने प्रयासों के दावे करते रहे, उनकी कामयाबी कितनी नगण्य एवं निराशाजनक है। कुपोषण, गरीबी, भूख में सीधा रिश्ता है। यह दो-चार देशों ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुत बड़े भूभागों के लिए चुनौती बनी हुई है। दुनिया से लगभग आधी आबादी इन समस्याओं से जूझ रही है। इसलिए यह सवाल तो उठता ही रहेगा कि इन समस्याओं से जूझने वाले देश आखिर क्यों नहीं इनसे निपट पा रहे हैं? इसका एक बड़ा कारण आबादी का बढ़ना भी है। गरीब के संतान ज्यादा होती है क्योंकि कुपोषण में आबादी ज्यादा बढ़ती है। विकसित राष्ट्रों में आबादी की बढ़त का अनुपात कम है, अविकसित और निर्धन राष्ट्रों की आबादी की बढ़त का अनुपात ज्यादा है। भुखमरी पर स्टैंडिंग टुगेदर फॉर न्यूट्रीशन कंसोर्टियम ने आर्थिक और पोषण डाटा इकट्ठा किया, इस शोध का नेतृत्व करने वाले सासकिया ओसनदार्प अनुमान लगाते हैं कि जो महिलाएं अभी गर्भवती हैं वो ऐसे बच्चों को जन्म देंगी जो जन्म के पहले से ही कुपोषित हैं और ये बच्चे शुरू से ही कुपोषण के शिकार रहेंगे। एक पूरी पीढ़ी दांव पर है।’’ कोरोना वायरस के आने के पहले तक कुपोषण के खिलाफ लड़ाई एक अघोषित सफलता थी लेकिन महामारी से यह लड़ाई और लंबी हो गई है।
अध्ययन में यह भी पता चला है कि दुनिया के तीन अरब लोग पौष्टिक भोजन से वंचित हैं। वास्तविक आंकड़ा इससे भी बड़ा हो तो हैरानी की बात नहीं। पर इतना जरूर है इतनी आबादी तो उस पौष्टिक खाद्य से दूर ही है जो एक मनुष्य को दुरूस्त रहने के लिए चाहिए। इनमें ज्यादातर लोग गरीब और विकासशील देशों के ही हैं। गरीब मुल्कों में भी अफ्रीकी, लैटिन अमेरिकी और एशियाई क्षेत्र के देश ज्यादा हैं। गरीबी की मार से लोग अपने खान-पान की बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते। अगर शहरों में ही देख लें तो गरीब आबादी के लिए रोजाना दूध और आटा खरीदना भी भारी पड़ता है। राजनीतिक संघर्षों और गृहयुद्धों जैसे संकटों से जूझ रहे अफ्रीकी देशों से आने वाली तस्वीरें तो और डरावनी हैं। खाने के एक-एक पैकेट के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। ऐसे में पौष्टिक भोजन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। महंगाई के कारण मध्य और निम्न वर्ग के लोग अपने खान-पान के खर्च में भारी कटौती के लिए मजबूर होते हैं। ऐसे में एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए निर्धारित मानकों वाले खाद्य पदार्थ उनकी पहुंच से दूर हो जाते हैं। पौष्टिक भोजन के अभाव में लोग गंभीर बीमारियों की जद में आने लगते हैं।
महामारी के डेढ़ साल में कुपोषण के मोर्चे पर हालात और दयनीय हुए हैं। अब इस संकट से निपटने की चुनौती और बड़ी हो गई है। इसके लिए देशों को अपने स्तर पर तो जुटना ही होगा, वैश्विक प्रयासों की भूमिका भी अहम होगी। गरीब मुल्कों की मदद के लिए विश्व खाद्य कार्यक्रम को तेज करने की जरूरत है। विकासशील देशों को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो गरीबी, कुपोषण एवं भुखमरी दूर कर सकें। सत्ताएं ठान लें तो हर नागरिक को पौष्टिक भोजन देना मुश्किल भी नहीं है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी बाधा शासन-व्यवस्थाओं में बढ़ता भ्रष्टाचार है। गलत जब गलत न लगे तो यह मानना चाहिए कि बीमारी गंभीर है। बीमार व्यवस्था से स्वस्थ शासन की उम्मीद कैसे संभव है?
आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन के लगभग 30 वर्षों के बाद असमानता, भूख और कुपोषण की दर में वृद्धि देखी जा रही है। हालांकि समृद्धि के कुछ टापू भी अवश्य निर्मित हुए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कोविड-19 के असर से पैदा हो रहे आर्थिक एवं सामाजिक तनावों पर विस्तृत जानकारी हासिल की है। भारत को लेकर प्रकाशित आंकड़े चिंताजनक हैं। वैश्विक महामारी से उत्पन्न भुखमरी पर 107 देशों की जो सूची उपलब्ध है, उसके मुताबिक भारत 94वें पायदान पर है। एक तरफ हम खाद्यान्न के मामले में न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि अनाज का एक बड़ा हिस्सा निर्यात करते हैं। वहीं दूसरी ओर दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कुपोषित आबादी भारत में है। भारत में महिलाओं की पचास फीसदी से अधिक आबादी एनीमिया यानी खून की कमी से पीड़ित है। इसलिए ऐसे हालात में जन्म लेने वाले बच्चों का कम वजन होना लाजिमी है। राइट टु फूड कैंपेन नामक संस्था का विश्लेषण है कि पोषण गुणवत्ता में काफी कमी आई है और लॉकडाउन से पहले की तुलना में भोजन की मात्रा भी घट गई है। ऊंचे पैमाने में पारिवारिक आय में भी काफी कमी आई है। महामारी के बाद पैदा हुई भुखमरी, बेरोजगारी और कुपोषण को विस्थापन ने और भयानक बना दिया। कोरोना संकट के दौरान भारत सरकार ने लगभग 75 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन देने की व्यवस्था संचालित की गई। बावजदू इसके एक सबक संक्रमण संकट का सरकारी वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करना भी है।
संक्रमण संकट के दौर में आगामी बजट पर भी सभी वर्गों की निगाह टिकी है। बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च को बढ़ाना जरूरी हैं। निजी क्षेत्रों की चिकित्सा व्यवस्था ने गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों को लाचार और विवश बनाकर छोड़ दिया है। सरकारी स्तर पर उन्नत स्वास्थ्य सेवाएं विकसित करना होगा जिससे गरीब मरीजों को भी समुचित इलाज सुलभ हो सकें। भारत सरकार एवं वैज्ञानिकों के प्रयास निःसंदेह सराहनीय हैं कि आर्थिक संकट में भी सस्ती वैक्सीन उपलब्ध कराने के सभी प्रयास जारी हैं। केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार भी स्वास्थ्य बजट में बढ़ोतरी कर अपने नागरिकों को सस्ता एवं स्वच्छ उपचार उपलब्ध करा सके तो कुपोषण, भूखमरी एवं बीमारियों से निजात मिल सकेगा। कुपोषण एवं भूखमरी से मुक्ति के लिये भी सरकारोें को जागरूक होना होगा।

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