जिस प्रकार केंद्र की संप्रग सरकार के दिन ठीक नहीं चल रहे ठीक उसी प्रकार मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा के कुछ नेता पार्टी नेतृत्व को सकते में डाले हुए हैं| भाजपा का कर्नाटक संकट सुलझता नहीं दिख रहा था कि झारखण्ड से अंशुमान मिश्रा की राज्यसभा के लिए उम्मीदवारी ने वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा और एस.एस.आहलुवालिया को केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष विरोध का मौका दे दिया| विवाद तो महाराष्ट्र से अजय संचेती को भी राज्यसभा उम्मीदवार बनाने को लेकर है किन्तु गडकरी के गृह राज्य होने के कारण संचेती के खिलाफ विरोध के स्वर अधिक मुखर नहीं हुए| असंतुष्ट यशवंत सिन्हा ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में जिस तरह नितिन गडकरी के खिलाफ माहौल बनाया उससे लालकृष्ण आडवाणी को कहना पड़ा कि वे खुद सभी तथ्यों को गडकरी के संज्ञान में लायेंगे| बैठक में भाजपा के पौने दो सौ सांसदों सहित कई वरिष्ठ नेता मौजूद थे किन्तु किसी ने भी यशवंत सिन्हा के विरोध के खिलाफ मुंह नहीं खोला| ज़ाहिर है पूरे मामले में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को “विलन” के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है| पर लगता है जैसे बात कुछ और ही है| दरअसल संघ ने ढ़ाई वर्ष पूर्व नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष यह सोच कर बनाया था कि वे वैचारिक रूप से पार्टी को मजबूत करेंगे तथा उसे राष्ट्रीय स्तर पर संगठनात्मक रूप से दृढ़ता पूर्वक स्थापित करेंगे| गडकरी काफी हद तक स्वयं को प्रदत दायित्वों का निर्वहन करने में सफल रहे हैं किन्तु उन्हीं की पार्टी के कुछ अति-महत्वाकांक्षी नेताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की छवि को जमकर आघात पहुँचाया है|
जो यशवंत सिन्हा झारखंड में अंशुमान मिश्रा की राज्यसभा उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं; दरअसल किसी ज़माने में उन्होंने झारखण्ड के मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पाला था| आई.ए.एस की नौकरी छोड़ चंद्रशेखर का झंडा उठा राजनीतिक पारी की शुरुआत कर भाजपा में आए यशवंत सिन्हा ने रघुवरदास के साथ गुटबाजी कर खुद को झारखंड में प्रासंगिक कर लिया| सिन्हा को लगता था कि वे झारखंड के कद्दावर नेता हैं और वहां के फैसलों के बारे में उनसे विचार-विमर्श ज़रूर होगा किन्तु खुद की उपेक्षा से दुखी हो सिन्हा ने पार्टी की छवि को ही नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया| ज़ाहिर सी बात है; यदि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की छवि को आघात पहुँचता है तो गडकरी की अध्यक्षीय क्षमताओं पर प्रश्न उठाना स्वाभाविक है| यही सिन्हा चाहते थे और वे अपने मकसद में कामयाब हुए| वैसे भी सिन्हा गडकरी द्वारा अर्जुन मुंडा को समर्थन देने से नाखुश थे| ऐसे में उन्होंने अंशुमान मिश्रा को निशाना बनाने के एवज को गडकरी को मात दे दी| वहीं एस.एस.आहलुवालिया भी खुद को पुनः राज्यसभा से टिकट न मिलने पर नाराज़ बताये जा रहे हैं और दबी जुबान से उन्होंने भी गडकरी को निशाना बनाया है| वे किसी ज़माने में कांग्रेस की हल्ला-ब्रिगेड के सदस्य रहे हैं| भाजपा की सत्ता आने पर इन्होने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और भाजपा में शामिल हो लिए| इन्हें पार्टी की वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज का वरदहस्त प्राप्त है| देखा जाए तो ये दोनों संघ या भाजपा के मूल कार्यकर्ता कभी रहे ही नहीं| फिर भी इनकी क्षमताओं को देखते हुए पार्टी ने इन्हें इनकी उचित जगह पहुँचाया| मगर लगता है; दोनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ गई है तभी पार्टी के मूल चरित्र से इतर इन्होने पार्टी अध्यक्ष के विरुद्ध ही मोर्चा खोल दिया|
पार्टी की साख को नुकसान पहुंचाने वाले इस विवाद ने यक़ीनन गडकरी को झकजोर दिया है| कहाँ तो गडकरी बागी येदुरप्पा की चुनौती से निपटने के रास्ते तलाश रहे थे कि राज्यसभा उम्मीदवारों के चयन ने भी उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं| वहीं पूरे विवाद से आजिज होकर अंशुमान मिश्रा ने अपना नामांकन पत्र वापस लेने के संकेत दिए हैं| ऐसे में अब सवाल यह है कि क्या अंशुमान मिश्रा द्वारा खुद का नामांकन वापस लिए जाने के संकेत को गडकरी का पराभव माना जाए? वैसे जो लोग गडकरी को चुका हुआ मान रहे हैं उनके लिए आगे खतरे की घंटी बजने लगी है| गडकरी इससे पहले कई पार्टी नेताओं की मंशा के विरुद्ध जाते हुए मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती और संजय जोशी जैसे कद्दावर नेताओं की “घर-वापसी” करवा चुके हैं| यहाँ तक कि नरेन्द्र मोदी जैसे भीड़-जुटाऊ चेहरे को भी उन्होंने दरकिनार कर दिया| नितिन गडकरी ने जिन कारणों से अंशुमान मिश्रा और अजय संचेती तथा इससे पहले धर्मेन्द्र यादव एवं पीयूष गोयल को राज्यसभा के लिए चुना उसके पीछे पार्टी की अपनी चिंताएं हैं जिसे यशवंत सिन्हा, एस.एस.आहलुवालिया जैसे नेता कभी नहीं समझेंगे| फिर जिस तरह के संकेत नागपुर से मिल रहे हैं उसे देखते हुए तो गडकरी का एक और अध्यक्षीय कार्यकाल बढ़ना लगभग तय है| यदि गडकरी दूसरी पारी हेतु चुने जाते हैं तो उनका राष्ट्रीय स्तर पर और मजबूत होना तय है|
जहां तक बात असंतुष्ट यशवंत सिन्हा और एस.एस.आहलुवालिया कि है तो कहीं न कहीं गडकरी और पार्टी की छवि बिगाड़ने के चक्कर में दोनों ने खुद के राजनीतिक जीवन को भी असंशय की ओर ढ़केल दिया है| पार्टी की संसदीय दल की बैठक में भले ही सिन्हा का विरोध न हुआ हो किन्तु पार्टी अनुशासन को तो उन्होंने भंग किया ही है| उन्हें भविष्य में इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा| लेकिन पूरे विवाद को देखते हुए इतना तो कहा जा सकता है कि भाजपा भी अब कांग्रेस की “कार्बन-कापी” हो गई है| कहाँ तो भाजपा को मुख्य विपक्षी दल होने के कारण केंद्र सरकार की कमजोरियों को उजागर करना चाहिए मगर इसके नेता ही पद और कुर्सी के लालच में खुद के साथ-साथ पार्टी की छवि को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं| इस पूरे मामले के बाद अब संघ क्या कदम उठाएगा, यह देखने वाली बात होगी|