मनुष्य को न अपने पूर्वजन्मों और न परजन्मों का ज्ञान है

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य अपने शरीर के हृदय स्थान में निवास करने वाली एक शाश्वत एव अल्पज्ञ चेतन आत्मा है। अल्पज्ञ जीवात्मा को माता, पिता, आचार्य की सहायता से ज्ञान अर्जित करना पड़ता है। इन साधनों से अर्जित ज्ञान को वह अनेकानेक ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय तथा अपने विचार एवं चिन्तन से उन्नत करता है। इस प्रक्रिया से मनुष्य कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले परन्तु फिर भी वह अपने इस जन्म में अर्जित ज्ञान को कुछ सीमा तक स्मरण रख सकता है। इस जीवन में घटी समस्त घटनाओं व माता, पिता आदि से प्राप्त सभी ज्ञान को वह समय के साथ भूलता भी जाता है। मनुष्य इस जन्म में अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जन्म लेता है। उसे माता, पिता तथा परिवेश भी प्रायः अपने प्रारब्ध के अनुसार ही मिलता है। उसे यह ज्ञात नहीं रहता कि वह इस जन्म से पूर्व, पूर्वजन्म में किस स्थान पर, किस योनि में, किस परिवार में रहता था? उसकी मृत्यु वहां कब व कैसे हुई थी, उसे इन बातां का ज्ञान नहीं रहता। इन्हें वह भूल चुका होता है। इसका कारण यह होता है कि हमारे पूर्व जन्म का शरीर छूट जाता है। उस शरीर से हमारी आत्मा व सूक्ष्म शरीर ही पृथक होकर अर्थात् शरीर से निकल कर इस जन्म में आते हैं। पूर्वजन्म में मृत्यु होने तथा हमारे इस जन्म के बीच काफी समय व्यतीत हो जाता है। हमें लगता है कि पूर्व जन्म में मृत्यु के बाद जब जीवात्मा सूक्ष्म शरीर सहित निकलता है तो उसकी अवस्था मूर्छित व्यक्ति के समान होती है। उस अवस्था में जीवात्मा को इसके इर्द-गिर्द घटने वाली घटनाओं का ज्ञान नहीं होता और न ही उसे किसी प्रकार का सुख व दुःख ही अनुभव होता है। सुख व दुःख मनुष्य को तभी होता है जब कि आत्मा का सम्बन्ध शरीर, सुख-दुःख अनुभव कराने वाली इन्द्रियों व मन आदि से होता है। जन्म ले लेने के बाद उसे सुख व दुःख का अनुभव होना आरम्भ हो जाता है। वैदिक साहित्य में बताया जाता है कि हमारा जो चित्त है उसमें हमारी स्मृत्तियां रहती हैं। हमारा यह चित्त कुछ तो सूंक्ष्म शरीर का भाग होता है और कुछ जड़ व भौतिक शरीर का भाग होता है। नये शरीर में पुरानी सभी स्मृतियां सजीव नहीं हो पाती। यदा-कदा कुछ उदाहरण सुनने को मिलते हैं जिसमें बताया जाता है कि किसी बालक को अपने पूर्वजन्म की कुछ स्मृतियां ठीक ठीक याद हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि किसी दुःखदाई घटना के होने पर उसकी स्मृतियां व संस्कार मनुष्य के सूक्ष्म शरीर के चित्त के साथ इस जन्म में आ जाते हैं और जीवन के आरम्भ काल में कुछ समय तक उनका प्रभाव व स्मृतियां उपस्थित रहते हैं। यही पुनर्जन्म व उसकी घटनाओं की स्मृति का कारण होता है। पुनर्जन्म की कुछ हल्की सी स्मृतियों का एक उदाहरण यह है कि छोटा बच्चा सोते समय कभी हंसता है और कभी गम्भीर व चिन्तित सा दिखाई देता है। उसे स्तनपान का भी अनुभव होता है। उसे स्वप्न भी आते हैं जिनसे वह कभी सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का। इसका ज्ञान भी उसके सोते समय की भाव-भंगिमाओें को देखकर होता है। इन सबका का कारण पुनर्जन्म की स्मृतियां ही होती हैं।

 

मनुष्य इस जन्म में कुछ नाम मात्र का भौतिक व सांसारिक ज्ञान प्राप्त कर अभिमान करता हुआ देखा जाता है। वह नैतिक नियमों का पालन भी नहीं करता। बड़े बड़े राजनैतिक व सरकारी पदों पर बैठे व्यक्तियों के भ्रष्टाचार के कारनामें समय समय पर सामने आते रहते हैं। इसका मुख्य कारण उनका धन व सुख सुविधाओं के प्रति प्रलोभन होना ही है। वह अपने जीवन के विषय में चिन्तन नहीं करते कि हम क्या है? कौन हैं, कहां से आये हैं, मरने के बाद कहां जायेंगे, हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है और उस उद्देश्य की प्राप्ति के साधन क्या हैं? हमें तो ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान भी नहीं हैं। अधिकांश लोग तो ईश्वर व आत्मा को जानने का प्रयास ही नहीं करते। वह अपनी ज्ञान की आंखे बन्द कर परम्परानुसार व दूसरों को देख कर बिना परीक्षा किये ही अज्ञान व अविद्या पर आधारित परम्पराओं का पालन करते हैं जबकि परीक्षा करने पर वह सब विधि-विधान व परम्परायें अन्धविश्वासयुक्त व अज्ञान से पूर्ण सिद्ध होती है। जीवात्मा के यह कृत्य उसके घोर अज्ञान व अविवेक को सिद्ध करते हैं। यह सिद्ध है कि आजकल अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी मनुष्य हीरे के समान महत्वपूर्ण इस मनुष्य जन्म को वृथा गंवा रहे हैं। उनका मुख्य कार्य इस जन्म में विद्या को प्राप्त करना था। विद्या भौतिक व सांसारिक ज्ञान को भी कहते हैं और विद्या वह भी है जो वेदों, उपनिषदों व दर्शनों में उपलब्ध है। सांसारिक ज्ञान को जानकर मनुष्य उसका यदि अविवेकपूर्ण उपभोग करता है तो वह उन्नत होने के स्थान पर पतन की गहरी खाई में गिरता है। यह बात भी ज्ञानी व समझदार लोग ही जान सकते हैं। एक सामान्य सा सिद्धान्त है कि भोग का परिणाम रोग है और इससे मनुष्य को दुःख प्राप्त होता है। ज्ञानी लोग भोग से बचते हैं और जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम पदार्थों का ही उपभोग करते हैं। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय में भी ईश्वर ने मनुष्य को शिक्षा दी है कि ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्वित्धनम्’ अर्थात् मनुष्य को भौतिक पदार्थों का भोग त्याग पूर्वक करना चाहिये। लालच नहीं करना चाहिये अर्थात् प्रलोभन में नहीं फंसना चाहिये। लालच का परिणाम बहुत बुरा होता है। हम सुनते हैं कि बड़े बड़े धनाड्य लोग नशा करते हैं। नशा करके उनका अपने शरीर पर नियंत्रण नहीं रहता। ऐसी भी घटनायें प्रकाश में आयी हैं कि नशे की हालत में कोई नहाने के टब में गिर गया और उसकी मृत्यु हो गई। यह सुनकर दुःख होता है। परमात्मा ने जो मनुष्य शरीर ज्ञान प्राप्त कर जन्म मरण के चक्र से छूटने के लिए दिया था उसका हमने यह क्या कर डाला। हमने लक्ष्य की ओर कदम रखा भी नहीं, प्रलोभन में फंसे रहे, भोग भोगते रहे और हमारा जीवन भी समाप्त हो गया। यह स्थिति उचित नहीं है। परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने जीवन से जुड़े सभी प्रश्नों को महत्व दें और मत-मतान्तरों को दूर रखकर सत्य ज्ञान की प्राप्ति करें और उसी के अनुसार आचरण करें। ऐसा करने पर ही हमारे जीवन का कल्याण हो सकता है।

 

मनुष्यों को पूर्वजन्म व परजन्म विषयक ज्ञान नहीं है। इसका कारण है कि यह ज्ञान हमारी शिक्षा पद्धति में सम्मिलित नहीं है। हम विदेशी अंग्र्रेजी शिक्षा पद्धति से ज्ञान अर्जित कर रहे हैं। उनकी धर्म, संस्कृति व सभ्यता कोई दो-तीन हजार वर्ष पुरानी है। वह अल्पज्ञ जीव के ज्ञान पर आधारित है। भारत की धर्म, संस्कृति व सभ्यता 1.96 अरब वर्ष पुरानी है। भारत में ही सच्चिदानन्द व सर्वव्यापक ईश्वर ने सृष्टि की आदि में अपना ज्ञान, जो वेदज्ञान कहलाता है, दिया था। वेदों में ईश्वर, जीव व सृष्टि का सत्य ज्ञान दिया गया है। मनुष्य का जन्म क्यों होता है, पुनर्जन्म क्या है, जन्म का आधार क्या है, परजन्म की चर्चा और उसमें हमारे कर्मों की भूमिका आदि पर विस्तार से तथ्यपूर्ण प्रकाश डाला गया है। उसी ज्ञान के आधार पर हमारे ऋषियों ने, जो ज्ञानी व वैज्ञानिक थे, तर्कपूर्ण रीति से सभी विषयों को समझाया है। उपासना की पद्धति भी हमें योग व सांख्य आदि दर्शनों से प्राप्त होती है। ईश्वर के प्रति मनुष्यों के कर्तव्यों का ज्ञान भी इन ग्रन्थों सहित स्वामी दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, उपदेशमंजरी आदि ग्रन्थों से यथावत् होता है। संसार में जो मनुष्य इन ग्रन्थों की उपेक्षा करता है वह वस्तुतः अपने भावी जीवन व परजन्म को बिगाड़ता है। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि, नित्य व अविनाशी हैं। अविनाशी व अनादि जीव के इस मनुष्य जन्म से पूर्व भी असंख्य जन्म हो चुके हैं। असंख्य बार यह जन्मा है और इतनी ही बार इसकी मृत्यु हुई है। संसार में मनुष्य सहित पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न योनियां हैं, इन सभी में हम असंख्य बार आ जा चुके हैं। इस जन्म में भी हम पूर्वजन्म से मरने के बाद ईश्वर की व्यवस्था जाति, आयु, भोग के अनुसार यहां आये हैं। यहां से कुछ समय बाद हमारी मृत्यु होगी और हम पुनः जाति, आयु और भोग के अनुसार नया जन्म प्राप्त करेंगे। हमारे शुभ कर्मों से हमें इस जन्म में भी सुख मिलेगा और परजन्म में भी। इस जन्म में अशुभ कर्म करने पर हमारा यह जीवन भी सुख व शान्ति भंग करने वाला हो सकता है और भावी तो होगा ही। बहुत से लोग अच्छे बुरे दोनों प्रकार के कार्य करते हैं, फिर भी सुखी रहते हैं। इसका कारण यह है कि वह पूर्व कृत शुभ कर्मों के कारण सुखी है। इस जीवन में बुरे कर्मों का परिणाम अवश्यमेव दुःख होगा। वह जब मिलेगा तो मनुष्य त्राहि त्राहि करेगा। अस्पतालों व ट्रामा सेन्टरों में जाकर इस तथ्य की पुष्टि की जा सकती है। ईश्वर न करे हम में किसी को इस स्थिति से गुजरना पड़े। इसी लिए ईश्वरोपासना, यज्ञ एवं परोपकार आदि कर्मों का करना आवश्यक है। अतः मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति और सद्कर्मों के प्रति सावधान रहना चाहिये। उसे सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का तो अवश्य ही अध्ययन करना चाहिये और उसकी शिक्षाओं को बुद्धि की कसौटी पर कस कर उन पर आचरण करना चाहिये। इससे मनुष्य का यह जन्म व परजन्म दोनों सुखी व उन्नत होंगे, यह निश्चित है।

 

वैदिक साहित्य व सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य को अपने पूर्वजन्म व परजन्म विषयक मूलभूत जानकारी मिलती है। इसका हमने लेख में परिचय कराया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभ उठायेंगे। ओ३म् शम्।

 

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