मानुष गढ़ता मोक्ष का पथिक : आचार्य ज्ञानसागरजी

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-ः ललित गर्ग:-

विश्व पटल पर कतिपय ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व अवतरित हुए हैं जिनके अवदानों से पूरा मानव समाज उपकृत हुआ है। उनके व्यक्तित्व की सौरभ क्षेत्र और काल की सीमा से अतीत होती है। अपने पुरुषार्थ और विचार-वैभव से वे देश एवं दुनिया में अभिनव चेतना और जागृति का संचार करते हैं। उन महापुरुषों की परम्परा में जैन धर्मगुरुओं एवं साधकों ने अध्यात्म को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाया है। ऐसे ही जैन आचार्यों की श्रृंखला में आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज इक्कीसवीं सदी के शिखर पुरुष हैं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी हैं। जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, साहित्य-सृजन, संस्कृति-उद्धार के उपक्रमों से एक नया इतिहास बनाया है। एक सफल साहित्यकार, प्रवक्ता, साधक एवं चैतन्य रश्मि के रूप में न केवल जैन समाज बल्कि सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत में सुनाम अर्जित किया है। विशाल साहित्य आलेखन कर उन्होंने साहित्य जगत में एक नई पहचान बनाई है। उनके पुरुषार्थ की लेखनी से इतिहास के पृष्ठों पर अनेक अमिट रेखाओं का निर्माण हो रहा है। एक धर्माचार्य के रूप में वे जो पवित्र और प्रेरक रेखाएं अंकित कर रहे हैं, उनकी उपयोगिता, प्रासंगिकता एवं आहट युग-युगों तक समाज को दिशा-दर्शन करती रहेगी। आपने कोरोना महाव्याधि में निरन्तर सेवा, सहयोग एवं जन-सहायता के उपक्रम चलाये, जिनमें जरूरतमंदों को खाद्य सामग्री सहित दवाई, जरूरत का सामान आदि वितरित किया गया। भारत सरकार ने हाल ही में नई शिक्षा नीति घोषित की है, उसमें अनेक जैन आचार्यों का योगदान एवं प्रेरणाएं रही है, उनमें आप भी प्रमुख हैं। आपकी संतचेतना में एक दृढ़ निश्चयी, गहन अध्यवसायी, पुरुषार्थी और संवेदनशील ऋषि-आत्मा निवास करती है। वे एक ऋषि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि एवं राजर्षि हैं, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से अनेक तीर्थों की स्थापना की है। वे पुरुषार्थ की महागाथा हैं, कीर्तिमानों के कीर्तिमान हैं।
सराकोद्धारक संत आचार्य ज्ञानसागरजी आचार्य शांतिसागरजी (छाणी) परम्परा में दीक्षित यशस्वी आचार्य है। यशलिप्सा से कोसों दूर उन्होंने सुविधा एवं सामथ्र्य होने के बावजूद स्वयं साहित्य का सृजन नहीं किया अपितु श्रुताराधकों को प्रेरणा देने, संसाधन जुटाने उनकी आर्थिक एवं अकादमिक समस्याओं के निराकरण, ग्रंथों के वाचन, सम्पादन एवं संशोधन में सतत सचेष्ट रहना श्रेयस्कर माना। आज समाज में अकादमिक विषयों पर कम रुचि होने के बावजूद आप व्यक्तिगत रुचि लेकर एक नहीं अनेक विद्वत् सम्मेलन, शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर, सेमिनार, संगोष्ठियां आयोजित करा चुके हैं। दीक्षा गुरु ने आपको संघस्थ साधुओं के अध्यापन का गुरुतर दायित्व प्रदान किया। तब से आप सतत आगमोक्त चर्या का निर्वाह करने के साथ ही जिनवाणी के संरक्षण, अध्ययन, अध्यापन, अनुवाद, मानव-कल्याण, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा एवं उसके प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। आपने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को जिस चैतन्य एवं प्रकाश के साथ जीया है, वह भारतीय ऋषि परम्परा के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। आपने स्वयं ही प्रेरक जीवन नहीं जीया, बल्कि लोकजीवन को ऊंचा उठाने का जो हिमालयी प्रयत्न किया है, वह भी अद्भुत एवं आश्चर्यकारी है। आपने अपनी कलात्मक अंगुलियों से नित-नये इतिहासों का सृजन कर भारत की आध्यात्मिक विरासत एवं सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध बनाया है। आपका जीवन अथाह ऊर्जा, प्रेेरणा एवं जिजीविषा से संचालित तथा स्वप्रकाशी है। वह एक ऐसा प्रभापुंज, प्रकाशगृह है जिससे निकलने वाली एक-एक रश्मि का संस्पर्श जड़ में चेतना का संचार कर सकता है।
आचार्य ज्ञानसागरजी की प्रेरणा से देश में अनेक निर्माण कार्य चल रहे हैंै। मगर विशेष बात यह है कि वे मंदिरों, धर्मशालाओं, पाठशालाओं, छात्रावासों, चिकित्सालयों, मान-स्तम्भों के निर्माण के साथ-साथ, अच्छे एवं चरित्रसम्पन्न इंसानों का भी उत्तम निर्माण कर रहे हैं, कभी शिविरों के माध्यम से तो कभी अपने प्रवचनों के माध्यम से। वे छात्रों, पंडितों, विद्वानों, डाक्टरों, इंजीनियरों, जिलाधीशों, शिक्षाविदों, विधि-विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों आदि के शुष्क संसार में धर्मरस का सुंदर संचार कर रहे हैं। आप किसी दबंग-व्यक्तित्व; डेशिंग-पर्सनालिटी को देखकर विचलित नहीं होते। वे यहां भी एक नीति-कथन के समानान्तर हैं-‘सुंदर भेषधारी को देखकर मूर्ख धोखा खा जाते हैं, चतुर नहीं।’ आप उस कोटि के निष्पृह-संत है जिसकी परिभाषा जैनाचार्यों के अतिरिक्त, महान कवि एवं संत कबीरदासजी ने भी की है कि -साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय।।
आचार्य ज्ञानसागरजी अहंकारशून्य किन्तु ज्ञानसम्पन्न हैं, वे सदा अपने गुणों को छुपाये रहते हैं। आप सर्वहारा वर्ग का सदा ध्यान रखते हैं; वे ईश्वर का रहस्य समझ चुके हैं कि भक्तों के मध्य जो दरिद्री है, उसकी चिन्ता परमेश्वर को अधिक रहती है।’ सीमेन्ट, लोहा, पत्थर के निर्माण तो व्यसनी-आदमी भी करने में सफलता प्राप्त कर लेता है, किन्तु सु-संस्कारों के निर्माण में केवल संतजन ही हेतु बनते हैं, सेतु बनते हैं। आप ऐसे संत हैं जो सांसारिक/भौतिक-निर्माणों की भीड़ में अभी भी, दिगम्बरत्व और आकिचन्य की याद ताजा कराकर चल रहे हैं और केवल आदर्श जीवन के कार्य कर रहे हैं, जिनसे एक साधु, ‘श्रेष्ठ-साधु’ बनता है, ठेकेदार नहीं।
आचार्य ज्ञानसागरजी ‘प्रवरसंत’ हैं, वे जगतगुरु हैं, मनीषी-विचारक हैं, प्रवचनकला मर्मज्ञ हैं। वे आत्मसाधना में लीन, लोक-कल्याण के उन्नायक, सर्वश्रेष्ठ लोकनायक हैं। तपः साधक, गुरु-आराधक, महान-धर्मोपदेशक हैं। साक्षात प्रज्ञापुंज, विद्वत् वत्सल, विद्वत् संगोष्ठियों के अधिष्ठाता, विलुप्त-साहित्यान्वेषी और आत्मोपयोगी साहित्य के सृजक हैं। वे प्रवचन सम्राट, वाक्पटु, हित-मित-प्रियभाषी, द्वादशांगवाणी के तलस्पर्शी अध्येता है। वे पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा-समारोहों को विकृतियों के भंवरजाल से बचाने वाले नाविक; युवा-पीढ़ी के दीपस्तम्भ, ज्ञानगुणनिधि के आगार, वैयक्तिक-पारिवारिक-सामाजिक-दैशिक समस्याओं के सन्मार्ग-दिवाकर हैं, आत्म-प्रहरी हैं, धर्म-प्रहरी हंै, राष्ट्र-प्रहरी हैं। वे चिर-दिगम्बरत्व के स्वामी है, ऐसे शब्दों के मोहजाल से ऊपर, एक मुनि हैं, संत हैं, ऋषि हैं, यति हैं।
आचार्य ज्ञानसागरजी की साहित्य प्रकाशन एवं आगमिक साहित्य के अध्ययन में रुचि तो प्रारम्भ से ही थी। अपने बुढ़ाना प्रवास में आचार्य श्री शांतिसागर (छाणी) ग्रंथमाला बुढ़ाना एवं गया प्रवास (१९९१) में स्थापित श्रुत संवर्द्धन संस्थान के साथ इन दोनों सहयोगी संस्थाओं को सहयोजित कर लिया गया। आज संस्थान द्वारा अपनी इन प्रकाशन संस्थाओं के माध्यम से शताधिक ग्रंथों का प्रकाशन किया जा चुका है। आपकी लेखनी से 200 से अधिक ग्रंथ प्रसूत हुए और जैन आगमों का महान संरक्षण, संवर्धन और विकास हुआ। प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन, अनुसंधान एवं नवीन पाण्डुलिपियों के प्रकाशन का यह क्रम विश्रृंखलित न हो इस भावना से 5  वार्षिक श्रुत संवर्द्धन पुरस्कारों की स्थापना की गई। जिसके अंतर्गत अब तक 70 विद्वानों का सम्मान किया जा चुका है। मात्र इतना ही नहीं कुछ वर्ष पूर्व संस्था ने आचार्य ज्ञानसागरजी श्रुत संवर्द्धन पुरस्कार की स्थापना की है। जिसके अंतर्गत जैन साहित्य एवं संस्कृति की सेवा करने वाले विशिष्ट समाजसेवी व्यक्ति-संस्था को एक लाख रुपये की सम्मान राशि, प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया जाता है। अब तक यह पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली), डॉ. डी. वीरेन्द्र हेगडे (धर्मस्थल), तथा वरिष्ठ शिक्षाविद् एवं प्रशासक प्रो. लक्ष्मीमल ंिसंघवी (दिल्ली) को प्रदान किये जा चुका है। वे एक मन्दिर, धर्मशाला, गौशाला के निर्माण से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं पुस्तक लेखन-प्रकाशन को। उनकी दृष्टि में साहित्य-सृजन एक उत्कृष्ट तप एवं पवित्र अनुष्ठान है। दर्शन, धर्म, अध्यात्म, न्याय, गणित, भूगोल, खगोल, नीति, इतिहास, कर्मकाण्ड आदि विषयों पर उनका समान अधिकार है। बनावटी शिल्प से उन्हंे लगाव नहीं है, वे आत्मा से उपजी स्वाभाविक भाषा-बोली के संकेत पर लेखनी चलाते हैं।
आचार्य ज्ञानसागरजी की बहुआयामी प्रवृत्तियों से मुझे भी परिचित होने का अवसर मिला, जब आपके सूर्यनगर-गाजियाबाद चातुर्मास में एक प्रतिभा सम्मान का कार्यक्रम विद्या भारती स्कूल में दो दिन तक आयोजित हुआ। मैं इस विद्यालय का महामंत्री होने के कारण यह आयोजन स्कूल  प्रांगण में कराने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे प्रतिवर्ष जहां भी होते हैं स्कूली छात्र-छात्राओं का सम्मानित करते हैं। आपके विद्वत् वात्सल्य की चर्चा तो यत्र-तत्र सर्वत्र थी किन्तु विद्वानों विशेषकर युवाओं के प्रति उनका सहज वात्सल्य तथा ज्ञान प्राप्ति की लालसा मुझे प्रथम बार देखने को मिली। इस अलौकिक, तेजोमयी व्यक्तित्व के प्रथम दर्शन कर मैं अभिभूत हो गया। उनको देखकर लगा कि यहां कुछ है, जीवन मूच्र्छित और परास्त नहीं है। आपके व्यक्तित्व में सजीवता है और एक विशेष प्रकार की एकाग्रता। वातावरण के प्रति उनमें ग्रहणशीलता है और दूसरे व्यक्तियों एवं समुदायों के प्रति संवेदनशीलता। इतना लम्बा संयम जीवन, इतने व्यक्तित्वों का निर्माण, इतना आध्यात्मिक विकास, इतना साहित्य-सृजन, इतनी अधिक रचनात्मक-सृजनात्मक गतिविधियों का नेतृत्व, इतने लोगों से सम्पर्क- वस्तुतः ये सब अद्भुत है अनूठा है, आश्चर्यकारी है। सचमुच आपकी जीवन-गाथा आश्चर्यों की वर्णमाला से आलोकित-गुंफित एक महालेख है। आपकी  प्रेरणा से संचालित होने वाली प्रवृत्तियों में इतनी विविधता है कि जनकल्याण के साथ-साथ संस्कृति उद्धार, शिक्षा, सेवा, प्रतिभा-सम्मान, साहित्य-सृजन के अनेक आयाम उद्घाटित हुए है। देश में अहिंसा, शाकाहार, नशामुक्ति, नारी जागृति, रूढ़ि उन्मूलन एवं नैतिक मूल्यों के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। वे भौतिक वातावरण में अध्यात्म की लौ जलाकर उसे तेजस्वी बनाने का भगीरथ प्रयत्न कर रहे हैं। वे अध्यात्म को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ रहे हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में अध्यात्म केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है। जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और जीवन रूपान्तरण की प्रक्रिया है।

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