मानवाधिकारों को चुनौती देते यह इस्लामी फतवे

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-तनवीर जाफरी

इस्लाम धर्म में फतवा उस सलाह अथवा दिशा निर्देश को कहा जाता है जोकि कथित रूप से इस्लामी शरिया तथा इस्लामी कायदे-कानून को मद्देनजर रखते हुए इस्लाम धर्म के किसी विद्वान द्वारा जारी किया जाता है। आमतौर पर फतवा जारी करने का अधिकार मुंफ्ती का पद रखने वाले मुस्लिम विद्वान को ही होता है। जबकि कई इस्लामिक संस्थाओं ने मुस्लिम विद्वानों की फतवा जारी करने वाली एक समिति भी गठित कर रखी है। फतवा के विषय में एक बात और स्पष्ट हो जानी चाहिए कि किसी मुफ्ती या विद्वान द्वारा जारी किया गया कोई भी फतवा मात्र दिशा निर्देश अथवा सलाह की हैसियत ही रखता है इस्लामी आदेश अथवा अध्यादेश की हरगिज नहीं। किसी फतवे की अनुपालना करना या न करना भी किसी संबंधित व्यक्ति अथवा आम मुसलमान की अपनी मर्जी तथा विवेक पर निर्भर करता है। फतवे का पालन करना बाध्यता हरगिज नहीं होती। इस्लामी धर्मगुरुओं द्वारा समय-समय पर विभिन्न सामाजिक सरोकारों से संबंधित फतवे जारी किए जाते रहे हैं। इनमें आर्थिक मामलों के संबंध में, शादी-ब्याह, महिलाओं संबंधी, नैतिकता से संबंधित तथा धार्मिक कार्यकलापों आदि से संबंधित फतवे शामिल हैं।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम फतवा संबंधी विवाद उस समय चर्चा का विषय बना जबकि ईरान की धार्मिक क्रांति के नेता तथा शिया समुदाय के सर्वप्रमुख धार्मिक विद्वान आयतुल्ला रुहल्ला खुमैनी ने 1989 में लेखक सलमान रुश्दी के विरुद्ध मौत का फतवा जारी किया था। सलमान रश्दी पर आरोप था कि उन्होंने अपनी विवादित पुस्तक द सेटेनिक वर्सेस में इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हारत मोहम्मद के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी की है। इस फतवे ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आम लोगों को फतवे के विषय में बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। अभी कुछ वर्ष पूर्व बंगलादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन के विरुद्ध भी इसी प्रकार का फतवा जारी किया जा चुका है। यहां यह बताता चलूं कि इस्लाम धर्म में धार्मिक मामलों को लेकर बहस तथा आलोचना की कोई गुंजाईश नहीं है। इस्लाम धर्म इस विषय पर सहिष्णुता का कोई प्रदर्शन नहीं करना चाहता। इसीलिए ईश निंदा अथवा पैगंबरों के विरुद्ध किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी करने वालों के विरुद्ध अक्सर ऐसे फतवे आते रहते हैं। अभी कुछ वर्ष पूर्व अफगानिस्तान में अब्दुल रहमान नामक एक मुस्लिम युवक द्वारा ईसाई धर्म स्वीकार कर लेने के चलते उसके विरुद्ध भी मौत का फरमान जारी कर दिया गया था। जिसे भारी अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बाद बचाया जा सका। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस्लाम धर्म में इस प्रकार के मौत के फरमान जारी करने जैसे असहिष्णुतापूर्ण फतवे पूर्णतया मानव अधिकारों के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को प्राप्त होने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे प्रमुख अधिकारों के विरुद्ध हैं।

इस्लामी फतवे प्राय: विवादों से घिरे रहते हैं। उदाहरणतया नवंबर 2008 में मलेशिया में एक फतवा जारी किया गया जिसमें स्वास्थ संबंध योग क्रिया को हराम तथा प्रतिबंधित क़रार दिया गया। भारत में विश्व के सबसे बड़े इस्लामी केंद्र समझे जाने वाले दारुल उलूम देवबंद ने पिछले दिनों कुछ ऐसे फतवे जारी कर दिए जो मानवाधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हैं। इनके फतवों के अंतर्गत मुस्लिम औरतों का सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी पर जाना गैर इस्लामी बताया गया है। मुस्लिम औरतों को सलाह दी गई कि वे घर के अंदर ही रहें और यदि नौकरी अथवा किसी अन्य कार्य हेतु बाहर जाएं भी तो बुंर्का पहन कर ही जाएं। औरतों को गैर मर्दों के साथ बात करने के लिए भी मना किया गया है। ख़ुशबू, इत्र अथवा परफ्यूम महिलाओं को इस्तेमाल न करने की सलाह दी गई है। खनकती हुई चूड़ियां तथा पायल आदि पहनने को भी गैर इस्लामी बताया गया है। फतवे के अनुसार इन सब वस्तुओं के प्रयोग से मर्द औरतों की ओर आकर्षित होते हैं। मर्द व औरत की तुलना पैट्रोल तथा माचिस से की गई है जिनके एक होने पर सब कुछ भस्म हो जाने की संभावना तक व्यक्त की गई है। यहां तक कि औरत को बकरी की तरह रखे जाने की सलाह दी गई है। अर्थात् मर्द जहां जाए अपनी औरत को बकरी की तरह उसके गले में रस्सी डालकर ले जाए तथा यदि औरत को घर पर अकेला छोड़े भी तो उसे ताले में बंद कर जाए ताकि कोई ‘भेड़िया’ उस औरत तक न पहुंच पाए।

भारत में प्रसिद्ध फिल्म स्टार सलमान ख़ान ने अपनी इच्छा तथा पारिवारिक रजामंदी के अनुसार हिंदु धर्म के देवता भगवान गणेश की पूजा अपने घर पर क्या आयोजित कर डाली कि तथाकथित मुस्लिम मुल्लाओं ने उनके विरुद्ध भी फतवा जारी कर दिया। एक और प्रमुख अभिनेता शाहरुख़ ख़ान के विरुद्ध भी इसी प्रकार का इस्लामी फतवा जारी हो चुका है। भारत में राष्ट्रभक्ति के गीत के रूप में गाए जाने वाले वंदेमात्रम के गाए जाने के विरुद्ध भी फतवा जारी किया जा चुका है। भारत के केरल राज्‍य में मुस्लिम मौलवियों द्वारा मुस्लिम महिलाओं को कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के साथ विवाह न करने का फतवा भी जारी किया जा चुका है। संगीत सुनने, टी वी देखने तथा नाच गाने आदि के विरुद्ध भी कई बार फतवे आ चुके हैं। यहां तक कि क्रेडिट कार्ड रखने, कैमरायुक्त मोबाईल फोन को इस्तेमाल करने के विरुद्ध भी फतवे जारी हो चुके हैं। इस्लामी विद्वान बैंक में काम करने को भी गैर इस्लामी मानते हैं। इनके फतवे के अनुसार बीमा करना या कराना अथवा इस विभाग में नौकरी करना भी गैर इस्लामी है। क्योंकि इनके अनुसार यह व्यवस्था पूर्णतया ब्याज तथा जुए पर आधारित है।

उपरोक्त सभी फतवे इस्लामी नजरिए के लिहाज से भले ही अपनी कोई अहमियत क्यों न रखते हों परंतु आज के सामजिक परिवेश में तथा वास्तविक जीवन में उपरोक्त सभी फतवे न केवल बेमानी और निरर्थक प्रतीत होते हैं बल्कि उपरोक्त सभी फतवे मानवाधिकारों तथा मानवीय मूल्यों का सरासर उल्लंघन करते हुए भी दिखाई पड़ते हैं। हां यदि यही फतवे संसार की तथा समाज की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप हों तथा इनमें सामाजिक उत्थान निहित हो तो ऐसे फतवों का न केवल मुसलमानों द्वारा स्वागत किया जाता है बल्कि अन्य धर्मों के अनुयायी भी ऐसे सकारात्मक फतवों से प्रभावित होते हैं। ऐसे सकारात्मक फतवे जहां इस्लाम धर्म की छवि को सांफ-सुथरा तथा उज्‍जवल बनाते हैं वहीं इनसे मानवाधिकारों की रक्षा होती भी दिखाई देती है।

उदाहरण के तौर पर 9 अगस्त 2005 को ईरान के धार्मिक नेता आयतुल्ला अली खमीनी ने एक फतवा जारी किया था जिसके अंतर्गत परमाणु हथियारों के उत्पादन, इसके भंडारण तथा इसके प्रयोग को गैर इस्लामी करार दिया गया था। इसी प्रकार मार्च 2004 में स्पेन के मुस्लिम विद्वानों द्वारा अलकायदा प्रमुख आतंकवादी ओसामा बिन लादेन तथा उसकी हिंसक गतिविधियों के विरुद्ध फतवा जारी किया गया। इसी प्रकार विश्व प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान डाक्टर ताहिर-उल-कादिरी ने इसी वर्ष मार्च 2010 में 600 पृष्ठों पर आधारित एक विस्तृत फतवा अथवा धार्मिक दिशा निर्देश जारी किया है। जिसमें न केवल ओसामा बिन लाडेन, अलक़ायदा तथा इनके द्वारा चलाई जा रही हिंसक गतिविधियों को गैर इस्लामी बताया गया है बल्कि इसी फतवे ने आत्मघाती बमों के रूप में प्रयोग में आने वाले मुस्लिम युवकों की इन अमानवीय हरकतों को भी पूरी तरह गैर इस्लामी व गैर इंसानी बताते हुए ख़ारिज किया गया है। डा. कादरी ने अपने इस विस्तृत फतवे में आतंकवादी ओसामा बिन लाडेन के उन एक-एक बिंदु का इस्लामी शरिया की रोशनी में अक्षरश: जवाब देकर यह प्रमाणित किया है कि लाडेन तथा उसकी प्रत्येक बात तथा जेहाद के नाम पर रचा जाने वाला उसका ढोंग सब कुछ किस तरह गैर इस्लामी व गैर इंसानी है। डा. कादरी ने अपने इस फतवे में आत्मघाती बने बैठे युवकों की उस सोच को भी ख़ारिज किया है जिसके अंतर्गत वे शहीद होने अथवा जन्नत में जाने की आस लगाए बैठे रहते हैं। इसी प्रकार पाकिस्तान में पिछले दिनों बिजली चोरी रोके जाने के संबंध में भी फतवा जारी किया गया है।

इस्लामी फतवे के संबंध में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि चूंकि इस्लाम धर्म में 73 अलग-अलग फिरके(वर्ग)हैं तथा प्रत्येक फिरके के लगभग तमाम अलग-अलगा दिशा निर्देश हैं। प्रत्येक वर्ग के अपने अलग-अलग मौलवी, मौलाना तथा मुंफ्ती जैसे अधिकारी भी होते हैं। अत: यह बात भी कोई जरूरी नहीं कि किसी एक मुस्लिम वर्ग के विद्वान द्वारा जारी किए गए किसी फतवे का पालन किसी दूसरे वर्ग का मुसलमान भी करे। अर्थात् प्रत्येक वर्ग का मौलवी केवल अपने ही वर्ग से संबंधित मुसलमानों को ही कोई दिशा निर्देश जारी करने का अधिकार रखता है। बहरहाल, फतवों के विषय में आम लोगों की नकारात्मक धारणा अथवा नकारात्मक छवि बदलने का जिम्मा उन कठमुल्लाओं पर जाता है जो आज के सामाजिक परिवेश के प्रति अपनी आंखें मूंद कर तथा कुंए के मेंढक बनकर बेतुके तथा मानवाधिकारों का हनन करने वाले फतवे जारी करते रहते हैं। आज के प्रगतिशील युग में न केवल इस्लाम बल्कि सभी धर्मों के धर्मगुरुओं की सोच वर्तमान सामाजिक परिवेश तथा वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिए। ऐसे सकारात्मक फतवे निश्चित रूप से इस्लाम धर्म की छवि को बेहतर बनाने में कारगर सिद्ध होंगे।

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