मानवता के पुजारी स्वामी रामकृष्ण परमहंस

Ramakrishna-Paramahansa-t1अशोक “प्रवृद्ध”

 

भारत के महान संत एवं विचारक और सर्वधर्मेकता पर जोर देने वाले स्वामी रामकृष्ण मानवता के ऐसे पुजारी थे , जो अपने साधना के फलस्वरूप इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। रामकृष्ण परमहंस को बचपन से ही ऐसा विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन संभव है अर्थात हो सकते हैं । इसलिए ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया।रामकृष्ण परमहंस का जीवन अद्भुत कल्पनाओं, कामनाओं, विचारों से ही नहीं अपितु किंवदन्तियों से परिपूर्ण है,तदपि न केवल पूर्वी बंगाल में अपितु देश -देशान्तर में उनके असंख्य शिष्यों की ऐसी परम्परा प्रचलित है, इतने अधिक मठ और मन्दिर हैं कि कदाचित ही किसी अन्य संन्यासी के इतने मठ, शिष्य आदि हों। उनके चमत्कारों की कहानियाँ भी इसी संख्या में उनके शिष्यों में प्रचलित हैं। उनके शिष्यों में यह मान्यता है कि उनके जीवनकाल में जो कोई भी उनके सम्पर्क में आया उसको उन्होंने अपनी कृपा से उपकृत किया।स्वामी विवेकानन्द, जिनका पूर्व नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, रामकृष्ण के ही अनन्य भक्त और शिष्य थे। उन्होंने जो कुछ भी पाया था, वह सब ठाकुर अर्थात् रामकृष्ण परमहंस की कृपा से ही प्राप्त किया था। स्वामी विवेकान्द ने विश्व भर में हिन्दुत्व का डंका बजाया था। इसीलिए अपने देश के साथ ही विदेशों में भी वे ‘हिंदु मोंक’ के नाम से ही विख्यात रहे हैं। विदेशों में हिन्दुत्व का डंका बजाने वाले कदाचित वे पहले संन्यासी थे। रामकृष्ण का जब उदय हुआ था, लगभग उसी समय बंगाल में ब्रह्मसमाज की स्थापना भी हुई थी। कालान्तर में रामकृष्ण द्वारा स्थापित संघ के प्रचार प्रसार से ब्रह्मसमाज के माध्यम से भारतवासियों के अर्द्ध ईसाईकरण की प्रक्रिया कम होती गई। आज केवल ब्रह्मसमाज का नाम शेष है, कोई विशेष गतिविधि नहीं। इसका श्रेय रामकृष्ण परमहंस को ही देना श्रेयस्कर होगा। तदपि इसका थोड़ा श्रेय स्वामी दयानन्द को भी प्राप्त है, क्योंकि वह स्वामी दयानन्द ही थे जिन्होंने ब्रह्मसमाज के प्रवर्तन में प्रमुख बाबू केशवचन्द्र सेन को वेदों की ओर आकृष्ट किया और वास्तविक वैदिक धर्म का महत्त्व समझाया था ।रामकृष्ण की दृष्टि में पत्नी के समीप रहते हुए भी जिसके विवेक और वैराग्य अक्षुण्ण बने रहते हैं उसी को वास्तविक रूप में बह्ममें प्रतिष्ठित माना जाता है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही जो समान आत्मा के रूप में देखे और तदनुसार आचरण करे उसी को वास्तविक ब्रह्मज्ञानी माना जा सकता है।मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का विचार है कि, ‘मनुष्य को यदि भगवान तक पहुँचने का यत्न करना है तो उसको चाहिये कि सर्वप्रथम वह सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाये। अपने सब पूर्व संस्कारों को भुला दे। घृणा, लज्जा, कुल, शील, भय, मान, जाति तथा अभिमान ये आठों मनुष्य की आत्मा को बन्धन में रखने वाले पाश के समान हैं। भगवान तक पहुँचने के लिए इनसे मुक्त होना आवश्यक है। यज्ञोपवीत, जाति अथवा कुल का सूचक अभिमान का प्रतीक है। इसलिए यह भी पाश के समान ही है। इसी प्रकार उसको समझना चाहिए कि यह सब रुपया पैसा भी मात्र मिट्टी है, इससे अधिक कुछ भी नहीं।‘उनके आध्यात्मिक आन्दोलन ने परोक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ने का काम किया क्योंकि उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती हैं ।रामकृष्ण कहते थे कि‘कामिनी -कंचन ईश्वर प्राप्ति के सबसे बड़े बाधक हैं।‘

रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फ़रवरी 1836 को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम खुदी राम और माता का  नाम चन्द्रमणीदेवी था।इनके बचपन का नाम गदाधर था। परमहंसके भक्तों के अनुसार रामकृष्ण के माता- पिता को उनके जन्म के पूर्व से ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था । गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था ।सपने में विष्णु के अवतार भगवान गदाधरने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे । उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ था उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुए देखा था ।परन्तु दुर्भाग्यवश सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयाँ भी सामने आईं। फिर भी बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। उनका सुन्दर स्वरूप, ईश्वरप्रदत्त संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएँ, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, और सबके ऊपर उनकी अपने माता-पिता के प्रति अगाध भक्ति इन सबने उन्हें पूरे गाँव का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था।इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को अपने साथ कोलकाता ले गए। संकीर्णताओं से बहुत दूर अपने कार्यो में सदैव लगे रहने वाले रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था।

 
सतत प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। 1855 में रामकृष्ण परमहंस केबड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को रानी रशमोनी द्वारा निर्मित दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया । रामकृष्ण और उनके भाँजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे । रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व सौंपा गया था। परन्तु 1856 में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मन्दिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त कर दिया गयाऔर मन से न चाहते हुए भी वेमन्दिर की पूजा- अर्चना करने लगे।अग्रज की मृत्यु की घटना से वे अत्यंत व्यथित हुए और संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन मेँ वैराग्य का उदय हुआ। रामकुमार की मृत्यु के बाद रामकृष्ण अधिक समय तक ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माँ की मूर्ति को अपनी माता और ब्रह्माण्ड की माता के रूप में देखा करते थे। कहा जाता है कि रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रह्माण्ड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण कहा करते थे कि ‘उन्होंने माँ काली का हाथ नहीं पकड़ा हुआ है अपितु माँ काली ने उनका हाथ पकड़ा हुआ है। इस कारण उनको कभी किसी के कथन की कोई चिन्ता ही नहीं रही। वह बराबर कहते थे मेरा तो हाथ माँ ने पकड़ा हुआ है वह जहाँ ले जाएँगी मैं वहीं चला जाऊँगा। उसी को अपने लिए कल्याणकारी मानूँगा।‘ऐसे में यह अफवाह फ़ैल गई कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है । शादी होने पर रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ठीक हो जाने तथा शादी के बाद आ पड़ने वालीअचानक ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाने की संभावना के मद्देनजर उनकी माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर ने रामकृष्ण का विवाह करवाने का निर्णय लिया। रामकृष्ण ने स्वयं उन्हें यह बतलाया कि वे उनके लिए कन्या कामारपुकुर से तीन मील दूर उत्तर पूर्व की दिशा मेंजयरामबाटीमें रामचन्द्र मुख़र्जी के घर पा सकते हैं। वे वहाँ जायें और कन्या के अभिभावकों से बात करें।1859 में मात्र पाँच वर्ष की शारदामनि मुखोपाध्याय और 23 वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हो गया। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती थी और 18 वर्ष के होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी।रामकृष्ण तब सन्यासी का जीवन जीते थे और वीतराग परमंहस हो चुके थे। माँ शारदामणि का कहना था- ‘ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूँ, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?’परमहंस जी कहा करते थे- ‘जो माँ जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।‘  ऐसे विचार उनके अपनी पत्नी माँ शारदामणि के प्रति थे।

 

 

ऐसी परिस्थिति में भैरवी व्राह्मणी का दक्षिणेश्वर मेंआगमन हुआ। उन्होंने उन्हें  तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए परमहंस ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ की और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम श्रीरामकृष्ण परमहंस प्रसिद्ध हुआ । इसके बाद उन्होंने उस समय प्रचलित सभी धर्म की भी साधना की।समय व्यतीत होने के साथ ही उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मन्दिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थल बन गया। बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक यथा – पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीनन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त और दुर्गाचरण नाग थे।स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे ।रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने के कारण तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर वे उसे उनकी अज्ञानता जानकर हँस दिया करते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यह आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-‘वत्स हमारे आस-पास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहाँ लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?’ इससे विवेकानन्द हिमालय में तपस्या का विचार छोड़ दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराते रहे । चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे, परन्तु चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। और अन्त में वह दुःखद दिन भी आ गया, जब 1886 ई. 16 अगस्त को सुबह होने के पूर्व ही आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा ब्रह्मलीन हो गये।

 

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