—विनय कुमार विनायक
मैं देह नहीं हूं, मैं देह से परेहूं,
मैं अंगनहीं,मैंअंगको धरे हूं,
मैं नेह,मैं स्नेह,मैं विशेषण हूं,
मैं देह काअंग,कदापिनहीं हूं,
मैं दिल नहीं हूं, मैं दिलवर हूं!
मैं ह्रदय नहींहूं,मैंसुह्रदवर हूं!
मैंहाथ नहींहूं,किन्तुहाथ मेरा,
मैंकाननहीहूं,किन्तुकान मेरा,
मैंआंखनहीं हूं,पर आंखमेरा!
मैं पैर नहीं हूं,मैंवैर नहीं हूं,
मैं वैर,सुलह,सफाई से परे हूं!
ये सबकुछ दैहिक धर्म होते हैं!
मैं देह से हटकर,देह से परे हूं
मैं देह के भीतर हूं,मैं बाहर हूं
मैं स्वेच्छा से,देह कोधरे हूं!
मैंअंदर में हूं,मैंबाहर में हूं
मैंसबकुछ को,धारण करता हूं
किन्तु मैं ये सबकुछ नहीं हूं!
मैं आत्मा हूं,काया मेंजीवात्माहूं,
मैं महात्मा हूं,अदृश्य परमात्मा हूं,
मैंपरिव्याप्तहूं,सबके परिसर में!