मैं मरना नहीं चाहता


“आज भी उसी जद्दोजहद में हूँ; कैसे भी मेरी समस्या का समाधान हो जाए; लेकिन मौत को गले लगाने के सिवा कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा। किससे कहूँ कि मैं अंदर ही अंदर घुट रहा हूँ। अपनी व्याकुलता किसे बताऊँ; मैं तो पानी में रहकर भी, बिन पानी के मछली सा तड़प रहा हूँ। समंदर के किनारे पर बैठकर आज फिर उस नदी की आस लगाये बैठा हूँ जो मीठा जल लेकर आएगी; मुझे मालूम है वह नदी भी इसी समन्दर में मिल जायेगी, किन्तु सागर का खारापन फिर मेरे कदम अनायास ही वापस मोड़ देता है। किसके सामने जाकर अपनी असफलता का रोना रोऊँ, वह असफलता जो मुझे कभी मिली ही नहीं। मैं टूटता जा रहा हूँ अपने आप में, मुझे कुछ सपने जीने नहीं दे रहे…”
सत्रह वर्षीय विजय कोटा के निकटवर्ती जिला झालावाड के खानपुर पंचायत के सारोला  गाँव का भोलाभाला लड़का है; बाहर की चकाचोंध भरी दुनियाँ से बेखबर है। वो भी बाकी लोगों की तरह सपनों का एक पुलिंदा अपनी आँखों की पलकों की गठरी में बांध कर कोटा शहर में आ गया है। सपने दूर से सुन्दर दिखने वाले जंगल की तरह सुहावने होते हैं लेकिन दोनों की सच्चाई का पता उस वक्त लगता हैं जब उन तक पहुँचने और पथ में आने वाली बाधाओं का सामना होता हैं। 
“खूबसूरत लग रहा था देखने में दूर से,
पास से पत्थर व काँटों के सिवा कुछ न मिला।”
विजय की दौड़ शुरू हो चुकी है उसी भीड़ में जिसमे कई तो विशालकाय इमारतों से स्थापित हो गए और कई बाढ़ में झोपड़ियों से बह गए। किन्तु विजय की स्थिति अभी न इमारत की है और न ही झोपड़ी की; किन्तु झोपड़ी की और उसका आकर्षण गहराता जाता है।
 रात का आघा पहर बीत गया और विजय अपने महावीर नगर, कोटा के छः बाई आठ के कमरे में लाईट बंद कर पलंग पर पड़ा विचारों की अनंत आकाशगंगा में डूबा हुआ अपनी पूर्व स्मृतियों को याद करता है; कैसे वह स्वछंद घूमा करता था; कैसे कोई बंधन उसको जकड़े हुए न था; न ही किसी दौड़ में जीतने की उमंग या हराने का डर ही था उसे। लेकिन अब वह स्वछंदता फिजिक्स, केमेस्ट्री और गणित के घर गिरवी रख दी गई है कभी स्वयं को कोसता है कि “क्यों नहीं वह हिम्मत कर पाया उस वक्त निर्णय लेने की कि, उसे जिस क्षेत्र का चुनाव कराया जा रहा है वह, वो नहीं है जिसे करने की लालसा एक लम्बे समय से पाले हुए है, जब से वह जीवन को समझने लगा है।” इसी उहापोह में कभी घर परिवार को याद कर के तकिये के अन्तःपुर में मुँह छिपाए बिलख-बिलख कर रोने लगता है। मन में उमड़ रहे प्रश्नों के ज्वार शांत होने का नाम नहीं ले रहा है, वह सोचता जा रहा है उन बातें को भी जो बिना सिर और पूंछ की हैं।
वह अचानक उठता है और आंसू पोंछता हैं। कमरे में एक अजीब सी मौन ध्वनि है  जिसमें शोर है, और ऐसा शोर जो खाने को दोड़ता है जिसमें आवाज नहीं है लेकिन शांति भी नहीं है। चारों ओर अँधेरा हैं, एक जुगुनू भर का उजाला तक नहीं है कमरे में, और सामान जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा हैं वह पलंग से नीचे पैर लटकता है और जगह बनाते-बनाते दरवाजे की ओर जाने का प्रयास करता है, बीच में रखी नहाने का बाल्टी से टकरता है फिर उसमे से निकल कर बाहर गीली साबुनदानी पर पैर रखता है, तभी उस नितांत शांत कमरे में एक कट की आवाज गूंजती है; उसके शरीर में एक कम्पन सा दौड़ जाता है जैसे झुईमुई को छूने से वह सिमट जाती है, जैसे कछुवा खुद को समेट लेता है। वह जैसे तेसे दरवाजे पर जा पहुँचता है और लाइट का स्विच ऑन करता है। वह कमरे से बाहर निकल कर बालकनी की ओर जाता है और मन के घोड़ों को दौड़ाते हुए टहलने लगता है, वहाँ पर गमले में लगे पोधों में एक मनीप्लांट लगा हुआ था जिसकी बेल पूरी बालकनी पर साँपों के झूंड की तरह रेलिंग पर और दीवार पर लगी किलों पर बंधी रस्सी के सहारे पूरे आर्च को अपने आगोश में लिए हुए है; वहाँ कुछ पोधे गुलाब के लगे थे जिसमें गुलाब की अधखुली कलियाँ उसके सोंदर्य को बड़ा रही हैं और वहीं एक गमले में तुलसी का पोधा भी लगा हुआ है जिस पर रोज सुबह माकन मालिक पूजा करते समय जल चढ़ाकर दो अगरबत्ती लगाता है, एक पोधा वहाँ और भी लगा हुआ है जो अमूमन सभी गमलों में बाकी पोधों के समकक्ष लगा हुआ है, उसका नाम तो न जाने क्या है किन्तु कोटा के लोग या यूँ कहूँ कि हाडौती संभाग में उसे सदा फूली के नाम से जानते है, जिसमें जैसे जैसे सूर्य अपने चरम पर आता है फूल भी उसी सूर्य की भांति खिलने लगते हैं। सदाफूली नाम इसलिए हैं क्योंकि उसमें बारह मास फूल लगते हैं, वह वहाँ आकर रूक जाता है और जड़ बनकर उस गुलाब की कली को एक टक निगाह से देखने लगता है और फिर गहरे ख्यालों में खो जाता है; स्वयं से बात करते हुए कहता है कि – “यदि मैं वापस घर लौट जाऊँ तो पापा जिन्होंने बड़ी उम्मीदें लगाकर मुझे यहाँ भेजा है, क्या वो मुझे माफ करेंगे? शायद नहीं !”
कोटा, आई. आई. टी. कोचिंग के लिए पूरे देशभर में मशहूर है यहाँ अमूमन देशभर से बच्चे एक सपनों का असमान लेकर कोचिंग के बाज़ार में स्वयं का अस्तित्व बनाने या मिटाने के लिए आते है। यह एक सपनों का शहर है जहाँ देश का भविष्य अपने मन में अंनत ख्वाब संजोकर आता है उनमें से कई आजादी की चकाचौंध में अपनी भविष्यत आँखों की रोशनी खो बैठते हैं और कई गुमनामी के तमस में विलुप्त हो जाते हैं। इनमें से कुछ वो होते है जो कानपुर, खड़गपुर, रूड़की, मुम्बई, दिल्ली के बड़े संस्थानों में पहुँचकर वहाँ से गूगल, टाटा, इनफोसिस जैसी नामी कम्पनीयों में अपनी जीवन शैली को बदल लेते हैं और कुछ, कुछ न मिल पाने के कारण घोर निराशा में स्वयं को कमजोर समझकर अपनी जीवन लीला को ही समाप्त कर बैठते हैं।
कोटा शहर दोस्तों का दोस्त और स्वयं के दुश्मन व्यक्ति का व्यक्तिगत दुश्मन बन जाता है। यही वो शहर है जो देश के तकनीकी क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ प्रोडक्ट निर्माता के भविष्य का निर्माण करता है। कोटा शहर पहले जैसा नहीं रहा, जो बचपन में हम देखा करते थे अब शहर में हर ओर ऊँची-ऊँची इमारतें है, जिनमें कोई कोचिंग संस्थान, हॉस्टल, मेस, पीजी होटल या कोई मॉल है। इन सबको मैंने अपनी आँखों के सामने बनते देखा है। कई बच्चे आस-पास के इलाकों में रहते हैं। इन्हीं बच्चों के कारण कई लोगों के कोटा शहर में रहने का सपना सकर हो पाया हैं वरना इस महंगाई के दौर में कहाँ व्यक्ति इतना धन जुटा पता है कि वह शहर में रहकर स्वयं का माकन तक बना सके लेकिन धीरे-धीरे पूरे शहर का नक्षा ही बदल सा गया; और देखते ही देखते यहाँ आने वाले बच्चे यहाँ रहने वाले लोगों की आजीविका का साधन मात्र बन गए। देखने में यहाँ की दुनियाँ बड़ी ही खूबसूरत नजर आती है, मगर…..! 
“रंगीनियाँ हैं इस शहर में देखकर रखना कदम
कौन सी रंगीनियाँ तुझको सबक दे जाएगी।”

विजय ने बालकनी से छत की ओर बढ़ना शुरू किया, पूरे मोहल्ले में सन्नाटा पसरा हुआ था, अचानक गली में से कुछ कुत्तों के भौंकने की आवाज आई यह कुत्तों का सामूहिक प्रलाप अक्सर कोटा शहर की हर गली में देखने और सुनने को मिलेगा। विजय इस अचानक हुए प्रलाप से  डर सा गया; यह बात सही है कि जब भी हम घबराए हुए होते है तो अचानक से आने वाली किसी भी आवाज को सुनकर डर जाते हैं। विजय सहमा हुआ सा कुछ पल के लिए वहीं अवाक् सा रुक गया, मन में अजीब सी घबराहट और पूरा शरीर पसीने में तरबतर हो गया। हाथ पैरों ने जैसे उसका साथ छोड़ दिया हो। शरीर मानो किसी मुर्दे सा शिथिल पड़ गया हो। वह एक पल के लिए तो ये भी भूल गया कि वह क्या सोच रहा था। अगले ही पल वह फिर उसी दुनियाँ में लौट जाता है जहाँ वह पिछले कई समय से हाथ-पैर मार रहा था। फिर वह छत की और बढता है और सीढियों पर चढ़ते हुए रोज की जद्दोजहद के बारे में सोचता है। एक-एक सीढ़ी पर ऐसे कदम रख रहा है मानों मीलों का सफर तय करने के बाद पथिक थक जाता है और वह ओर आगे न बढ़ने की स्थिति में होते हुए भी मजबूर होकर सुरक्षित स्थान पाने की लालसा में आगे बढता रहता हैं… ।
“मैं किस लिए जी रहा हूँ? मेरे इस जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या मेरे जीने से किसी को कोई फायदा है? मैं तो उन वादों पर भी खरा नहीं उतर पा रहा हूँ जो मैंने स्वयं से किए हैं; मैं वो नहीं कर पा रहा हूँ जो मैंने सारी उम्र सोचा; मैं स्वयं में होते हुए भी स्वयं में नहीं हूँ; मैं एक लेखक बनना चाहता हूँ! समाज में बढ़ रही असमानता और अन्याय के खिलाफ लिखना चाहता हूँ; लिखना चाहता हूँ वह सब उद्गार जो यहाँ कोई नहीं सुनना चाहता, जिसके लिए किसी के पास समय नहीं है; मैं लिखना चाहता हूँ उस प्रेयसी के लिए जो मेरे लिए अभी-अभी नए-नए सपने बुनने लगी है, लेकिन मैं क्या कर रहा हूँ, किसके झूँठे सपनों को पूरा करने की कौशिश कर रहा हूँ? यहाँ तो लोग सिर्फ भाग रहे हैं एक ऐसे लक्ष्य के पीछे जिसका परिणाम खुद उन्हें भी पता नहीं, सच है परिणाम तो किसी को पता नहीं होता है लेकिन मैं नहीं दौड़ पा रहा हूँ उनके साथ भीड़ में जहाँ गली सकड़ी सी है और उसमें जाने वालों की संख्या अनंत दिखाई पड़ती है। किस मुँह को लेकर वापस घर लौटूंगा, मुझे अब मर जाना चाहिए, अगर नहीं मरा तो लोग ताने दे-देकर मार देंगे। रोज घुट-घुट के मरने से तो एक दिन का मर जाना बेहतर होगा। जब अस्तिव ही नहीं बचेगा तो उसके विषय में विमर्श भी स्वतः समाप्त हो जायेगा; कल के ही अखबार में आया था कि ‘एक लड़की ने पँखे से लटक कर आत्महत्या कर ली।’ यह शहर ही ऐसा है- यहाँ किसी को किसी से मतलब नहीं, जितना पढ़ता हूँ उससे ज्यादा भूल जाता हूँ, किसी से कुछ पूछो तो वो बताने को तैयार नहीं। अभी तक एक भी टेस्ट में नम्बर अच्छे नहीं ला पाया हूँ और न ला पाऊँगा। कल प्रोब्लम लेकर सर के पास गया तो भी क्या हुआ उस भीड़ में कभी किसी की समस्या हल हुई है ? सुबह कितना ही जल्दी का अलार्म लगा लूँ फिर भी कोचिंग पहुँचते पहुँचते देर हो जाती है और फिर पीछे बैठना पड़ता है। मैं कभी कुछ नहीं कर पाऊँगा”
 जैसे मिठाई की खूशबू पाकर चींटीयाँ अपना डेरा जमा लेती हैं ठीक वैसे ही जब व्यक्ति को हर कदम पर घोर निराशा आकर घेर लेती है तो उसके मन में निराशात्मक भाव प्रबलता के साथ जुटने लगते हैं। यह आज-कल आम बात हो गई है कि इंसान थोड़ी सी समस्या होते ही जीवन का अंत करने की सोचने लगता है। वह यह नहीं सोचता कि उसके साथ कितनी ओर ज़िंदगीयाँ जुड़ी हुई है, यहाँ आकर हर इंसान स्वार्थी हो जाता है। वह केवल वही सोचता है जो वह सोचना चाह रहा है। विजय इस समय इन्हीं परिस्थितियों में है, और छत पर इधर से उधर और फिर उधर से इधर चक्कर काट रहा है। रात का दूसरा पहर  चंद्रमा अपनी अर्ध चाँदनी के साथ असंख्य तारों के माध्य से असमान की छाती चीरते हुए भी अपनी चांदनी का धरती पर अस्तित्व स्थापित कर रहा हैं वहीं एक और उसी धरती का जीव अपना अस्तित्व खोता जा रहा हैं, नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी, वह वहाँ से चलकर वापस अपने कमरे का रूख करता है। इस समय उसकी हालत उस इन्सान की भांति है जिसके मस्तिष्क पर से अनंत अश्व गुजरें हो और उनकी टापों से सम्पूर्ण मस्तिष्क रोंद दिया गया हो। सिर बहुत भारी लग रहा है जैसे मानों कि सिर पर किसी ने कोई पहाड़ रख दिया हो और बाकी शरीर की आत्मा तक भी मर चुकी हो। सच यही है कि शारीरिक पीड़ा से व्यक्ति उतना नहीं टूटता जितना कि मानसिक पीड़ा से। विजय जैसे-तैसे अपने कमरे की ओर बढ़ता है और विचरों का सागर मंथन करते हुए कमरे में पहुँचता है। टेबल लेम्प जलाकर कुर्सी पर बैठ जाता है। टेबल पर किताबों के ढ़ेर में से नीचे दबी एक डायरी निकालता है, वह उसकी पर्सनल डायरी थी जिसमें वह अपनी जिंदगी की बातें और कविताएँ लिखा करता है। उसी टेबल के एक कोने में पड़े पेन के ढ़ेर में से एक पेन निकाल कर कुछ लिखना शुरू करता है…
“मैं निरंतर चल रहा हूँ ढूँढने मंजिल मेरी,फिर मगर पाता यही हूँ कि मैं भटका रास्ता,
मैं नया हूँ हर शहर में, हर डगर अंजान है,
और कितने लोग हैं जो इस कदर परेशान है…!”

वह लेम्प बंद कर अपने पलंग पर सोने के लिए चला जाता है और सोचता है कि- “ये जीवन ही शायद संघर्ष का पर्याय बन गया है।” मानों जैसे कविता की उन चार पंक्तियों ने विजय को तनाव मुक्त कर दिया हो। कुछ ही पल में उसे नींद आ जाती है।
–कुलदीप विद्यार्थी

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