इबोला और आपातकाल

-अंकुर विजयवर्गीय-
ibola virus
पश्चिम अफ्रीका देशों गिनी, सियरा लियोन और लाइबेरिया में इबोला वायरस के बढ़ते खतरे को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन परेशान है। पश्चिम अफ्रीकी देश इबोला के अब तक के सबसे बुरे प्रकोप के दौर से गुजर रहे हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों को डर है कि इबोला वायरस कहीं पूरी दुनिया को ही चपेट में न ले ले। इबोला वायरस के खतरे से अमेरिका भी परेशान हो उठा है। अमेरिकी शांति सेना ने तीन देशों से अपने सैकड़ों स्वयंसेवकों को बाहर निकाल लिया है। वहीं, लाइबेरिया के राष्ट्रपति ने इबोला फैलने और उसके कम न होने की आशंका के मद्देनजर आपातकाल की घोषणा कर दी है। राष्ट्रपति एलन जॉनसन सरलीफ ने राष्ट्रीय टीवी पर घोषणा करते हुए कहा कि इस संकटकाल में कुछ नागरिक अधिकार निलंबित रहेंगे। विश्लेषकों का कहना है कि लाइबेरिया में यह संकट और गहरा होता जा रहा है, क्योंकि बहुत से लोग अपने बीमार रिश्तेदारों को एकांतस्थल पर ले जाने के बजाय घर पर ही रख रहे हैं।
गौरतलब है कि इबोला वायरस के संक्रमण का कोई इलाज नहीं है। इबोला से बचने का कोई टीका या वैक्सीन भी नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पश्चिमी अफ्रीका में इबोला से मरने वाले की संख्या बढ़कर 932 हो गई है। दो अगस्त से चार अगस्त तक 45 लोगों की मौत होने के साथ ही बीमारी से मरने वालों की संख्या 932 तक पहुंच गई है। इसी अवधि में इस वायरस से पीड़ित या संदिग्ध 108 मामले सामने आये हैं, जिससे इससे प्रभावित लोगों की संख्या 1,711 हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इबोला वायरस को बेकाबू करार दिया है। उसने चेतावनी दी है कि यह वायरस दुनिया में बड़े पैमाने पर तबाही मचा सकता है। इबोला संक्रमण का पता सबसे पहले इसी साल मार्च में अफ्रीकी देश गिनी के जेरोकोर में चला था। तब से अब तक तीन अफ्रीकी देशों को इबोला अपनी चपेट में ले चुका है और नाइजीरिया भी इबोला के संक्रमण की चपेट में आ चुका है। माना जा रहा है कि दुनिया के बाकी हिस्सों में इबोला का संक्रमण सिर्फ एक हवाई यात्रा की दूरी पर है, यानि इबोला संक्रमित कोई भी शख्स दुनिया के किसी हिस्से में पहुंच गया, तो उसके संपर्क में आने वाले लोग भी संक्रमण का शिकार हो सकते हैं, क्योंकि यह वायरस बहुत खतरनाक है।
इबोल वायरस एक ऐसा वायरस है, जिससे इबोला वायरस बीमारी (ईवीडी) या इबोला रक्तस्त्राव बुखार (ईएचएफ) होता है। सबसे पहले यह वायरस 1976 में सूडान और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में पाया गया था। इसके लक्षण वायरस के संपर्क में आने के 2 दिन से 3 हफ्ते में फैलते हैं। इसके लक्षण हैं-बुखार आना, गले में खराश, मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द, जी मिचलाना, उल्टी, डायरिया आदि। इससे लीवर और किडनी काम करना कम कर देते हैं। इस स्थिति में कुछ लोगों में रक्तस्त्राव की समस्या शुरू हो जाती है। इबोला का ना तो कोई टीका है और ना ही विशेष इलाज है। इसकी मृत्यु दर कम से कम 60 प्रतिशत है। यह वायरस संक्रमित जानवर विशेष तौर पर बंदर, चमगादड़ या उड़ने वाली लोमड़ी और सुअरों के खून या शरीर के तरल पदार्थ से फैलता है। अब तक इस बीमारी का कोई विशेष उपचार नहीं है। फिर भी इससे ग्रस्त लोगों की मदद के लिए उन्हें ओरल रिहाईड्रेशन थैरेपी, जिसमें रोगी को मीठा और नमकीन पानी पीने के लिए दिया जाता है या नसों में तरल पदार्थ दे सकते हैं।
गनीमत यह है कि इबोला वायरस बहुत तेजी से और आसानी से फैलने वाला वायरस नहीं है, इसलिए इस पर नियंत्रण करना अपेक्षाकृत आसान है। इबोला वायरस पानी या हवा के जरिये नहीं फैलता और इसके फैलने का एकमात्र जरिया किसी संक्रमित जीव या व्यक्ति से सीधा संपर्क है। इबोला वायरस चमगादड़ों और सूअरों के जरिये फैल सकता है और जब कोई इंसान इसका शिकार हो जाता है, तो फिर उससे सीधे संपर्क में आने वाला दूसरे इंसान को यह जकड़ सकता है। ऐसे में, इसे रोकने का सबसे प्रभावी तरीका यह है कि मरीज को दूसरे लोगों के संपर्क से बचाया जाए और स्वास्थ्यकर्मी भी इस बात का ख्याल रखें कि उनकी त्वचा सीधे मरीज के संपर्क में न आए। लेकिन अफ्रीका में मरीजों के संपर्क में आने से दूसरों को बचाना बहुत मुश्किल हो रहा है। चूंकि मरीज के परिजन यह जानते हैं कि मरीज का बचना तकरीबन नामुमकिन है, इसलिए वे भावनात्मक वजहों से उसे अस्पतालों में अलग-थलग रखने और उससे मिलने पर पाबंदी का विरोध करते हैं। ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें मरीजों के परिजनों ने अस्पतालों पर धावा बोल दिया और मरीजों को घर ले गए। कई जगह तो स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि सियरा लियोन में सरकार को सेना बुलानी पड़ी, ताकि मरीजों को अलग रखा जा सके और परिजनों को अस्पतालों पर धावा बोलने से रोका जा सके।
हालांकि, राहत की बात यह है कि नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस जर्नल में छपे अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक लेख के मुताबिक लैब में इबोला वायरस को इंसान के लिए सुरक्षित बनाने में सफलता मिली है। वायरस से में वीपी-30 जीन को बाहर निकाल दिया गया, जिससे इसका फैलाव रुक गया। इबोला के आठ जीन में वीपी-30 जीन अहम है, जिससे वायरस फैल नहीं सकता। इससे इबोला की खिलाफ वैक्सीन तैयार करने या इलाज तलाशने की उम्मीद बढ़ गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जर्मनी के हैमबर्ग के डॉक्टरों से इबोला का इलाज तलाशने में मदद मांगी है, वहीं कुछ एक्सपर्ट का कहना है कि नया तरीका पूरी तरह सुरक्षित नहीं माना जा सकता। दरअसल, इबोला पर रिसर्च के लिए ‘बायोसिक्योरिटी लेवल 4’ लैबोरटरी की जरूरत होती है। यानी कुछ गिनेचुने रिसर्च इंस्टिट्यूट्स में ही यह काम मुमकिन है। रिसर्चरों को इबोला पर काम करते वक्त बायोसेफ्टी सूट पहनने पड़ते हैं। कमरे का एयर प्रेशर बाहरी एयर प्रेशर से काफी कम रखना पड़ता है। रिसर्चर को हवा भी सूट से ही मिलती है। किसी भी लीक का मतलब है कि हवा के सहारे वायरस का फैल जाना।
अगर इबोला को नुकसान नहीं पहुंचाने वाले उसके नए रूप में रखा जा सका, तो आम लैब में भी उस पर रिसर्च मुमकिन हो जाएगा। मेडिसन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ विसकॉनसिन के रिसर्चरों का कहना है कि ऐसा करने के लिए एक बेहतर सिस्टम का पता लगा लिया गया है। दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी भरोसा जताया है कि अमेरिकी वैज्ञानिक और स्वास्थ्यकर्मी दूसरे देशों के साथ मिल कर इबोला की रोकथाम में सफलता हासिल करने में कामयाब हो जाएंगे। जब तक दुनिया की अलग-अलग लैब में इबोला पर रिसर्च जारी है, तब तक इसे रोकने का एक ही सटीक तरीका है कि इसे अफ्रीका से बाहर न फैलने दिया जाए।
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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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