पाठों में विचार

प्रमोद भार्गव

हमारे देश में सरकारें बदलने के साथ पाठ्यक्रम बदलने का भी सिलसिला चल निकलता है। इसे परिवर्तित कर दल की बुनियादी विचारधारा ठूंसने की कवायद की जाती है। कभी-कभी तो यह स्थिति अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता के इतने चरम पर होती है कि पाठों में ठूंसा गया विचार ;कुद्ध विचार अथवा ;कुद्ध पाठ का आधार बन जाता है। जो छात्र के अवचेतन में स्थित नाजुक परत पर जरुर गहरा प्रभाव डालता होगा। संभवतः वैचारिक अवधारणा थोपने का यही मनोविज्ञान पूर्वग्रही मानसिकता की संरचना ज्ञान की अबोध परत पर रोप देता है। हालांकि व्यक्ति के मन में दो तरह की अंतर्चेतनाएं होती हैं। एक प्राकृतिक, जो अवचेतन में जन्मजात संस्कारों से संचालित होती है। अपने धर्म, संस्कृति और जाति के संस्कारों का वीजारोपण इन्हीं जन्मजात संस्कारों से होता है। इन्हें बदलना कमोवेश नामुमकिन होता है। दूसरी का अवलंब जिज्ञासा है, जिसकी तुष्टि के लिए ज्ञानार्जन जरुरी है। इसे अध्ययन, अनुसंधान और यायावरी से प्राप्त किया जाता है। हमारे भक्तिकाल के कवियों और सूफी संतों का दर्शन यायावरी जीवनाभुवों से ही उपजा यथार्थ है। अलबत्ता इतना जरुर है कि पाठों में एकपक्षीय आयातित अथवा अयाचित विचार ठंूसकर किसी व्यक्ति को निर्विकार जीवन का पथ नहीं दिखाया जा सकता है।

पिछले कुछ माहों में पाठ्यक्रम में वैचारिक हस्तक्षेप की दृष्टि से तीन प्रकरण सामने आए हैं। जिनसे इतिहास, राजनीति और साहित्य के धरातल पर पर्याप्त हलचल हुई है। ये तीनों ही मामले माक्र्स, यानी वामपंथी विचारधारा के विस्थापन से संबंध रखते हैं। लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में यहां यह सोचने की जरुरत है कि क्या बेदखल किए पाठों को पढ़ाया जाना जरुरी है ? क्या उनमें वैचारिक थाती इतनी निर्विवाद और सर्वग्राही है कि उसे सहज स्वीकार लिया जाए ? एक सांस्कृतिक विविधता, बहु धर्मावलंबी तथा बहुभाषी देश में विचार के स्तर पर ऐसी पाठ्य सामग्री स्थापित करना असंभव ही है जिसे सर्वसमाज सार्वभौमिक रुप से स्वीकार ले। ऐसा केवल देश के महापुरुषों के जीवनी परक इतिहास-साहित्य को पढ़ाये जाने तक ही संभव है। इसलिए विचारपरक जो भी मूल्यवान घटनाएं, क्रांतियां या व्यक्तित्व हैं, उनका परिचय नई पीढ़ी को कराया जाना जरुरी है। जिससे मत-भिन्नता की कसौटी पर वह अपना वैचारिक रास्ता तय करने के लिए स्वतंत्र हो। जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पैरवी करते हैं तो हमें, वैचारिक आग्रह ग्रहण करने की भी स्वतंत्रता होनी चाहिए।

मैं यहां ए.के. रामानुजन के उस विवादास्पद लेख का खण्डन नहीं कर रहा, जिसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की पहल पर दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास स्नातक पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है। मैं इस बात का प्रखर पक्षधर हूं कि इतिहास पुरातन संबंधी कथाओं पर निरंतर शोधपरक सामग्री प्रकाश में आती रहनी चाहिए। क्योंकि रामायण और महाभारत कथाएं नाना लोक स्मृतियों और विविध आयामों में प्रचलित बनी रहकर वर्तमान हैं। इनका विस्तार भी सार्वभौमिक है। दुनिया के ही नहीं भारत के भी वामपंथी विचारधारा से प्रेरित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग तरह-तरह के कुतर्क गढ़कर इस ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत को मिथक कहकर नकारने की कोशिश करता रहा है। लेकिन देश-दुनिया के जनमानस में राम-कृष्ण की जो मूर्त-अमूर्त छवि बनी हुई है, उसे गढ़े गए तर्कों-कुतर्कों से खण्डित नहीं किया जा सका। हालांकि इन्हीं में अनेक ऐसे प्रतिबद्ध माक्र्सवादी भी हैं, जो अपनी बेटी की कुण्डली लेकर वर की खोज में रहते हैं।

वैसे भी भवभूति और कालिदास ने रामायण को इतिहास बताया है। वाल्मीकि को ‘पुरावृत्त’ कहा गया है। गोया, कालिदास के ‘रघुवंश’ में विश्वामित्र राम को पुरावृत्त सुनाते हैं। माकर्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने रामायण को महाकाव्यात्मक इतिहास की श्रेणी में रखा है। ऐसे ग्रंथों की तथ्यात्मकताओं को झुठलाने की दृष्टि से कलंक और काम कथाओं के विभिन्न रामायणों में वर्णित क्षेपकों के संकलन को अल्पवयस्क छात्रों को पढ़ाकर आखिर हम किस प्रकार की जुगुप्सा अथवा जिज्ञासा विद्यार्थियों में उत्पन्न करना चाहते हैं ? इन्हीं ग्रंथों में विज्ञान सम्मत अनेक सूत्र व स्त्रोत मौजूद हैं। हम इन्हें क्यों नहीं संकलित कर पाठ्यक्रमों में शामिल करते ? ऐसा करने से हम मेधावी छात्रों में विज्ञान सम्मत महत्वाकांक्षा जगा सकते हैं और भारतीय जीवन मूल्यों के इन आधार ग्रंथों से मिथकीय आध्यात्मिकता की धूल झड़ने का काम भी कर सकते हैं।

इतिहास तथ्य और घटनाओं के साथ मानव की विकास यात्रा की खोज भी है। यह तय है कि मानव अपने विकास के अनुक्रम में ही वैज्ञानिक अनुसंधानों से सायास-अनायास जुड़ता रहा है। ये वैज्ञानिक उपलब्धियां या अविष्कार रामायण व महाभारत काल में उसी तरह चरमोत्कर्ष पर थीं, जिस तरह ऋग्वेद के लेखन-संपादन काल के समय संस्कृत भाषायी विकास के शिखर पर थी। रामायण का शब्दार्थ भी राम का ‘अयण’ अर्थात ‘भ्रमण’ से है। वे तीन सौ रामायण और रामायण विषयक संदर्भ ग्रंथ, जिनके प्रभाव को नकारने के लिए पउला रिचमैन ने 1942 में ‘मैनी रामायणस् द डाइवर्सिटी ऑफ ए नैरेटिव टेडिशन इन साउथ एशिया ’ लिखी और ए.के.रामानुजन ने ’थ्री हंडैड रामायणस् फाइव एग्जांपल एंड थ्री थॉट्स ऑन टांसलेशन’ निबंध लिख कर कामजन्य विद्रूप अंशों का संकलन किया। इन्हीं रामायणों, रामायण विषयक संदर्भ ग्रंथों और आचार्य चतुरसेन शास्त्री एवं मदनमोहन शर्मा ‘शाही’ के उपन्यासों ‘वयः रक्षामः तथा लंकेश्वर से विज्ञान सम्मत अविष्कारों के सूत्र तलाश कर विद्यार्थियों को पढ़ाये जा सकते हैं ?

रामायण एवं महाभारत एकांगी दृष्टिकोण के वृतांत भर नहीं हैं। इनमें कौटुम्बिक सांसारिकता है। राज-समाज संचालन के कूट-मंत्र हैं। भूगोल है। वनस्पति और जीव-जगत हैं। राष्टीयता है। राष्ट के प्रति उत्सर्ग का चरम है। अस्त्र-शस्त्र हैं। यौद्धिक कौशल के गुण हैं। भौतिकवाद है। कणाद का परमाणुवाद है। सांख्य दर्शन और योग के सूत्र हैं। कृषि और गाय का महात्म्य है। वेदांत दर्शन है और अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियां हैं। गांधी का राम-राज्य, पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्‍म मानववाद और डॉ राममनोहर लोहिया का समाजवाद व राम-कृष्ण की सांस्कृतिक सार्वभौमिकता के उत्स रामायण-महाभारत से ही हैं।

पाठ्यक्रम से माक्र्सवाद को अलविदा करने की दूसरी बड़ी कवायद पश्मि बंगाल में होने जा रही है। यहां उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के इतिहास और राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रमों से कार्ल माक्र्स, फ्रेडरिक एगेंल्स और रुसी क्रांति से जुड़े पाठों की बेदखली के बहाने दरअसल वामपंथ को पाठों से तिलांजलि देना है। हालांकि आधुनिक इतिहास और राजनीति विज्ञान की वैज्ञानिक व तार्किक व्याख्या करना नामुमकिन है। माक्र्स और एगेंल्स ने जो ‘द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद’ की विश्लेषण विधि दी है, उससे यह सिद्ध करने में मदद मिलती है कि मानव समाज सरलतम रुपों से उच्चतर आयामों में विकसित होता है। यह विकास ऐसे सर्पिल क्रम में होता है कि जिसका प्रत्येक मोड़ समाज को एक उच्चतर अवस्था में पहुंचा देता है। किंतु इस प्रतिस्पर्धा में जो पिछड़ जाते हैं, उनकी समस्याएं-संघर्ष उच्चतर आयाम को प्राप्त व्यक्ति व समाज के लिए गौण होकर रह जाते हैं। इस वर्गीय चरित्र को माक्र्स के पूंजीवाद में व्याख्यायित सामाजिक आर्थिक विश्लेषण से ही ठीक से समझा जा सकता है।

ममता बनर्जी जहां इस बदलाव को संतुलन की दृष्टि से जरुरी बता रही हैं, वहीं पाठ्यक्रम समिति के अध्यक्ष अवीक मजूमदार वाममोर्चा के शासनकाल में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रमों को दिशाहीन ठहरा रहे हैं। इसकी दिशा और दशा अब दुनिया में हुए लोकतांत्रिक आंदोलनों, विभिन्न विदेशी हमलावरों की ओर से देश पर हुए हमलों और बीसवीं सदी का इतिहास शामिल करके सुधारी जाएगी। देश की आजादी के बाद बांग्लादेश व श्रीलंका की बढ़ती अहमियत को तरजीह भी पाठ्यक्रम में दी जाएगी। सत्ताधारी तृणमूल करने जा रही है ता ेइसे आश्चर्य की दृष्टि से नहीं देखा ाना चाहिए। वामदल जब सत्ता में थे तो उन्होने भी शालेय शिक्षा में ही नहीं, अकादमिक और सांसकृतिक संस्थानों पर भी अपने वैचारिक पूर्वग्रह थोपे थे। मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार भी इसी जड़ता का परिचय देने लगी है। केन्द्र में राजग के कार्यकाल के दौरान भी पाठ्यक्रमों में ऐसे कई बदलाव हुए जिन्हें भगवाकरण की संज्ञा से नवाजा गया।

मध्यप्रदेश में हाल ही में राष्टीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक प्रतिबद्धता से जुड़ी बाल पत्रिका देवपुत्र को सभी माध्यमिक विद्यालयों में खरीदे जाने की आजीवन सदस्यता दी गयी है। पत्रिका के प्रति यह सदस्यता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने सीधे संघ के खाते में अपने अंक बढ़ाने के लिए जताई है। जाहिर है, यह उपाय बाल मनों पर हिंदुत्व की छाप छोड़ने के नजरिये से किया गया है। लेकिन मन परते कितनी ग्राह्य भी नहीं होती की सत्ताधारियों की भरमंशा का बीजा रोपण हो जाए यदि वैचारिकता को मन के धरातल पर स्थायित्व दिया जा सकता होता तो बंगाल में 35 साल सत्ता में काबिज रही माकपा के पैर कैसे उखड़ते ? सत्ताओं की बात तो छोडि़ये दारुल उलूम देवबंद भी फतवा जारी कर शोध कार्य को प्रतिबंधित करने लगे हैं। चैधरी चरण सिंह विश्वद्यिालय मेरठ की शोधार्थी प्रभा परिहार विवादास्पद लेखक सलमान रुशदी के उपन्यासों पर शोध कर रही थीं। किंतु दारुल उलूम ने फतवा जारी कर शोध पर अंकुश लगा दिया। यदि उलेमा-मौलवी और पण्डे-पुजारी शोध कार्यों में दखलंदाजी करने लग जाएंगे तो मान लिजिए कि शिक्षा और विज्ञान के तकाजों का अंधकार युग शुरु होने वाला है ?

1 COMMENT

  1. प्रमोद भार्गव का यह लेख खिचड़ी बन कर रह गया है जिसमे वामपंथ विरोध का अच्छा तड़का लगाया गया है.वर्ना जन्म कुंडली की बात कहाँ ससे आ गयी एक गंभीर लेख का कचड़ा बना कर रख दिया .पूरा लेख कुछ इस प्रकार से देखा जा सकता है कि कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा .यह वैचारिक विभ्रम कि स्थिति को दर्शाता है ऐसा व्यक्ति अपने को सारे विचारों से सर्व श्रेष्ठ समझने लगता है एक तरफ तो जनाब कहते है कि मै रामानुजन का खंडन नहीं कर रहा हूँ और कर भी कैसे सकते है वर्ना अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का ठप्पा लग जाता , उससे भी बचना चाहते थे क्यों कि आगे लेख में मध्यप्रदेश सर्कार कि आलोचना जो करनी थी .थोडा ममता बनर्जी की भी खिचाई कर दी ताकि थोडा बौधिकता भी नजर आये. कहने मतलब यह है कि अच्छा चाट मसाला बनाया ,भाई मजा आ गया.
    बिपिन कुमार सिन्हा

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