न विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता, न लोकतंत्र के प्रति श्रद्धा का भाव| बस सभी को अपनी राजनीतिक विरासत बचाने की चिंता, भले ही वह उसका दरवाजा कट्टर दुश्मन के घर की चारदीवारी से ही होकर क्यों न जाता हो? १६वीं लोकसभा के गठन के पूर्व ही इस तरह के नज़ारे आम हो गए हैं| दलित राजनीति का बड़ा नाम कहलाने वाले और मायावती के कट्टर विरोधी उदित राज ने भाजपा का दामन क्या थामा, दल-बदल की बाढ़ सी आ गई| ये वही उदित राज ने जिन्होंने किसी जमाने में आडवाणी को पानी पी-पीकर कोसा था और जिनके लिए संघ की राय थी कि इनकी दलगत राजनीति देश के संवैधानिक ढांचे के खिलाफ है, आज नरेंद्र मोदी की कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ नीति से प्रभावित होकर मोदी को प्रधानमंत्री पद की रेस में अव्वल लाना चाहते हैं| पिछले वर्ष दशहरे पर नागपुर में संघ कार्यालय जाकर उन्होंने हिंदुत्व को आत्मसात करने की कोशिश की जबकि दशक पूर्व वे बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर चुके हैं| इसी कड़ी में लोजपा के रामविलास पासवान का जिक्र अवश्यम्भावी हो जाता है| २००२ के गोधरा दंगों के बाद पासवान ही थे जिन्होंने सबसे पहले एनडीए छोड़ा था| वे मोदी को मुस्लिम समाज का अपराधी मानते नहीं थकते थे किन्तु २०१४ आते-आते उन्हें भी बुद्धि आ गई| अपने फ्लॉप एक्टर पुत्र के राजनीतिक भविष्य की खातिर उन्होंने भी मोदी की सार्वजनिक जय-जयकार कर दी| पटना में राज्यसभा सदस्य रामकृपाल यादव लोकसभा का टिकट न मिलने से लालू प्रसाद से खफा हो गए| इन्हीं रामकृपाल ने कभी मोदी के हाथों को खून से सना बताया था किन्तु इस हफ्ते राजनाथ सिंह के पैरों में झुककर इन्होंने भी मोदी के सहारे अपनी राजनीति चमकाने का पुख्ता इंतजाम कर लिया| हालांकि दल-बदल के मामले में मध्य प्रदेश ने तो कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया| पिछले साल विधानसभा में कांग्रेस के उपनेता चौधरी राकेश सिंह ने सदन के भीतर ही दलबदल किया। उनके बाद होशंगाबाद के लोकसभा सदस्य उदय प्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी और उनके भी सिरमौर निकले भागीरथ प्रसाद। रात को कांग्रेस से भिंड लोकसभा टिकट मिलने की घोषणा हुई, सुबह भाजपा दफ्तर माला पहनने पहुंच गए| कुछ ऐसा ही किस्सा तीसरी पीढ़ी के कोंग्रेसी विवेक तनखा के साथ हुआ। वे लगभग एक दशक तक दिग्विजय सिंह सरकार में महाधिवक्ता थे, फिर उन्होंने कांग्रेस विरोधियों का सहयोग लेकर राज्यसभा का चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें हार नसीब हुई| वे कांग्रेस विरोधी प्रबंधन गुरु शिव खेड़ा के ‘इंडिया फर्स्ट‘ अभियान से जुड़े हुए हैं और इस बार उन्हें जबलपुर लोकसभा से कांग्रेस का टिकट मिल गया है। मध्यप्रदेश में अभी और न जाने कितने नेता ऐसे होंगे जो अपनी मूल पार्टी की विचारधारा को त्याग कर अन्य पार्टी की विचारधारा को अपनाएंगे? इसी तरह अल्मोड़ा से भाजपा ने बच्ची सिंह रावत को टिकट नहीं दिया तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी।ओड़िशा विधानसभा में विपक्ष के नेता भूपेन्द्र सिंह ने ही पार्टी छोड़ दी और बीजद में शामिल हो गए। ऐसे और न जाने कितने उदाहरण हैं? इनसे पता चलता है कि राजनीतिक दल व राजनेता क्षणिक एवं तात्कालिक मुनाफे की प्रत्याशा में किस तरह का आचरण कर रहे हैं? देखा जाए तो दल-बदल की यह प्रवृत्ति १९६७ से शुरू हो गई थी। डॉ. राममनोहर लोहिया के अनुयायियों ने इस प्रवृति की नींव रखी| जनसंघ और फिर भाजपा ने इस प्रवृत्ति को जमकर बढ़ावा दिया और हाल ही में कांग्रेसी इस मामले में भाजपा से उन्नीस ही साबित हुए| कारण चाहे जो हों, देश के मतदाता के सामने खुलकर यह बात आ रही है कि राजनीति में सिद्धान्तहीनता किस कदर हावी हो गयी है? ये नेता जो मौका ताड़कर दल बदलते हैं, वे इस अवांछित स्थिति को बढ़ावा देने के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। आज आम चुनावों की बेला में भारतीय मतदाताओं के सामने यह अवसर और सम्भावनाएं हैं कि इस तरह के मौकापरस्त उम्मीदवारों को घर का रास्ता दिखाकर स्वस्थ राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया जाए, पर देश का मतदाता भी बेचारा क्या करे? यहां तो हर शाख पर उल्लू बैठा है, तो अंजामे गुलिस्ता तो वही होगा तो आज तक होता आया है|
दूसरी ऒर सियासी दलों से लेकर मीडिया और आम लोगों की नजर राजनीतिक पार्टियों के बीच बन रहे नए-नए गठबंधन और सामने आ रहे फ्रंट पर है। कभी राजग तो कभी संप्रग, कभी थर्ड फ्रंट तो कभी फेडरल फ्रंट की चर्चा जोरों पर है। कल तक बिहार में नीतीश कुमार की छवि अजेय योद्धा की बनी हुई थी, जो अब बिखर गई है। इसी तरह जयललिता तमिलनाडु में मजबूत स्थिति में थीं किन्तु राजीव गांधी के हत्यारों को रिहा करने के फैसले ने उनकी मट्टी-पलीत कर दी| अन्य क्षेत्रीय नेताओं का भी कुछ ऐसा ही हाल है| हाल ही में देश के राजनीतिक नक़्शे पर उदित हुई आम आदमी पार्टी के दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन में राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया था| उसी आप ने मुम्बई में एक ऒर मेधा पाटकर तो दूसरी और उनके विरोधी उत्तम को देकर एक नई बहस को जन्म दे दिया है| दोनों ही नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े हैं किन्तु इनके विचारों में इतनी मतभिन्नता है कि दोनों एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाते| यदि ये दोनों उम्मीदवार जीत जाते हैं और लोकसभा में नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़ा मुद्दा उठा तो क्या दोनों ही अपनी पार्टी से इतर खुद के सिद्धांतों पर चलेंगे? दरअसल वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में किसी को किसी विधारधारा से सरोकार नहीं है| सब राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं, भले ही खुद की छवि पर कैसा भी प्रभाव पड़े? यहां मतदाताओं के सामने एक नया विकल्प खुलता है कि वे अपनी समझ से बेहतर उम्मीदवार को चुनें और सत्ता-लोलुप नेताओं को घर बैठाएं| देश का मतदाता ही राजनीति में शुचिता ला सकता है, राजनीतिज्ञों से तो इसकी उम्मीद ही बेकार है| राजनीति में तू डाल-डाल; मैं पात-पात को पहचानना अत्यंत आवश्यक है वरना १६वीं लोकसभा से किसी तरह की अपेक्षा न रखें|
आज चुनाव जीत कर संसद में पहुंचना ही एक मात्र विचार धारा है,वह लोग भी गए , वह समय भी गया जब कोई सिद्धांत होता था। अब सिद्धांत ढूंढने की तकलीफ न करे तो ही अच्छा होगा