पिछले दो दिन मैंने हैदराबाद में बिताए। मैं सोचता रहा कि निजाम के विरुद्ध आर्यसमाज ने जबर्दस्त आंदोलन न छेड़ा होता तो क्या आज हैदराबाद भारत का हिस्सा होता? हैदराबाद तो क्या, भारत की आजादी और एकता में जो योगदान महर्षि दयानंद और आर्यसमाज का था, उसके आगे सिर्फ गांधी ही टिक सकती है। कांग्रेस की भी असली ताकत आर्यसमाज ही था। इसके पहले कि कांग्रेस और गांधी का उदय हुआ महर्षि दयानंद ने स्वतंत्रता का शंखनाद कर दिया था। उन्होंने आजादी की नींव पक्की कर दी थी।
महर्षि दयानंद ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका निभाई थी, उस पर कई शोधग्रंथ लिखे जा चुके हैं। उत्तर भारत के ज्यादातर प्रमुख कांग्रेसी नेता आर्यसमाजी ही थे। क्रांतिकारियों में लगभग सभी आर्यसमाजी थे या आर्यसमाज से प्रभावित थे। अंग्रेज को भगाने में हिंसा और अहिंसा दोनों के समर्थक आर्यसमाजी रहे हैं। एक तरफ लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानंद थे तो दूसरी तरफ भगतसिंह और रामप्रसाद बिस्मिल थे।
महर्षि दयानंद ने सिर्फ आजादी की नींव ही नहीं रखी, उन्होंने संपूर्ण भारतीय समाज की शुद्धि की। उन्होंने किसी को नहीं बख्शा। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि धर्मों में चल रहे पाखंडों पर जमकर प्रहार किया। उनके जैसा महान बौद्धिक और निर्भीक संन्यासी भारत के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने सारे विश्व को आर्य बनाने का संदेश दिया। ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम’।
लेकिन आज आर्यसमाज की दशा क्या है, इसी पर विचार करने के लिए हैदराबाद में अदभुत समागम हुआ। पूरे देश भर से सैकड़ों आर्यसमाजी नेता वहां आए थे। आर्यों का जो विश्व-व्यापी संगठन है, उसका नाम है- सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ! इसके आज कल तीन टुकड़े हो चुके हैं। तीनों के पदाधिकारी पहली बार एक मंच पर आए। मैंने उदघाटन-सत्र के अपने भाषण में यही कहा कि यदि आर्यसमाज फिर से पहले की तरह सक्रिय हो जाए तो भारत को महाशक्ति, महासंपन्न और विश्व गुरु बनने से कोई रोक नहीं सकता।
महर्षि दयानंद के सपनों का भारत आज के खंडित भारत की तरह नहीं था। वह आर्यावर्त्त था, जिसमें दक्षिण, मध्य और आग्नेय एशिया के वर्तमान राष्ट्र भी शामिल हैं। इनका महासंघ कौन खड़ा करेगा? इस भारत को नशाखोरी, मांसाहार, रिश्वतखोरी और अंग्रेजी की गुलामी से कौन मुक्त करेगा? केवल आर्यसमाज। आर्य समाज ऐसा संगठन है, जिसके लाखों सदस्यों का चरित्र और व्यक्तित्व ऐसा उज्जवल होता है, जैसे लाखों में किसी एक का होता है। उनका व्यक्तित्व दयानंद के अनुपम सांचे में ढला होता है, जो मौत से भी नहीं डरता। यदि भारत की युवा-पीढ़ी को दयानंद के सांचे में हम ढाल सकें और देश में सुसंस्कारों के लिए एक बड़ा जन-आंदोलन खड़ा कर सकें तो हमारी डगमगाती राजनीति को भी मजबूत सहारा मिल सकता है।