बिहारियों के दिल में आक्रोश जिंदा रहा तो चुनाव पर पड़ सकता है असर !

  • मुरली मनोहर श्रीवास्तव                                

                                                बिहार की राजनीति हमेशा से सुर्खियों में रही है। यहां के राजनेताओं की धमक सूबे से लेकर केंद्रीय राजनीति तक होती है। होना भी लाजिमी है यहां राजनीति का पैमाना थोड़ा अलग हटकर होता है। आपको यकीन नहीं तो देख लीजिए। एक तरफ देश-दुनिया कोरोना संकट से उबरने की कोशिश में जुटा है वहीं यहां विपक्ष नीतीश सरकार को घेरने का कोई भी अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देना चाह रही है। दरअसल चुनाव बहुत करीब है, इस लिहाज से सत्ता और विपक्ष अपना गोटी जनता के पल्ले में सेट करने में लगी हुई है।

बाहर फंसे छात्र बन सकते हैं चुनावी मुद्दाः

                                                बात कोरोना संक्रमण से ही जुड़ी अगर करें तो लॉकडाउन होने के बाद सूबे के सैकड़ों अप्रवासी मजदूर और कोटा तथा अन्य जगहों पर पढ़ने गए छात्र और उनके परिवार हैं, जो बाहर के प्रदेशों में फंसे हुए हैं। हलांकि इन फंसे हुए लोगों में कुछ लोग आ भी चुके हैं। मगर अधिक संख्या में लोग अपनी मिट्टी में आने के लिए छटपटा रहे हैं। इस मसले पर प्रधानमंत्री से वीडियो कांफ्रेसिंग के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि लॉकडाउन की गाइडलाइन बदले तभी कोटा से छात्रों को बुलाना संभव है। साथ ही यह भी उन्होंने कहा है कि लॉकडाउन पर जो केंद्र का फैसला आएगा उन्हें वो मान्य है। बात चाहें जो भी हो मगर इससे आम जनता को क्या लेना उन्हें तो अपने बच्चों की वापसी की पड़ी है। इन्हीं तथ्यों पर राजनीतिक पंडितों का ये भी कहना है कि इन मुद्दों का आगामी विधानसभा चुनाव में नीतीश सरकार को मुकाबला करना पड़ेगा, क्योंकि विपक्ष इस मौके को किसी भी कीमत पर अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहेगा। इसीलिए तो लगातार इस मुद्दे को जिंदा रखे हुए है।

कोरोना का असर पड़ेगा चुनाव परः

                                                सही मायनों में देखी जाए तो कोरोना संक्रमण की मार सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तीनों पहलुओं पर अभी से ही देखने को मिलने लगा है। इस बात को नीतीश सरकार समय रहते नहीं सोचती है तो उसे बड़ा नुकसान का सामना करना पड़ सकता है। एक तो पहले से ही पटना में जल निकासी के मामले ने पोल खोलकर रख दिया है, वहीं अप्रवासी मजदूर और छात्रों का बाहर फंसे रहना इनके लिए नाक की नकेल बन जाएगा। हलांकि इन बातों को सोचते समझते और कदम उठाने में सूबे की सरकार को काफी देर भी हो चुकी है। वहीं अगर पड़ोसी राज्य यूपी की बात करें तो उसने 300 बसों को भेजकर कोटा या अन्य जगहों पर फंसे छात्रों को सोशल डिस्टेंशिंग का पालन करते हुए उन्हें उनके घर पहुंचाकर अपनी राजनीतिक चाल का लोहा मनवा लिया है। जहां नीतीश सरकार केंद्र सरकार के उपर सब छोड़ रही है वहीं इसको सोचना चाहिए कि यूपी में पूर्णतः केंद्रीय पार्टी की ही सरकार है तो उसने उस रिस्क को लेने में देर नहीं किया जबकि उसके यहां चुनाव भी नहीं है और बिहार में चुनाव है फिर भी सरकार अपनी दलील देती रही। भले ही सत्तारुढ़ दल के नेता सामने आकर नहीं बोलते हों मगर उन्हें भी कोटा में फंसे छात्रों के मामले से चुनावी मैदान में पटखनी खाने का भय सता रहा है। 

मुश्किल में कामगार, खामोश क्यों है सरकारः

                                                कोरोना बंदी की घोषणा के साथ अचानक से चलती हुई जिंदगी ठहर सी गई। जो जहां था उसका जीवन लॉकडाउन में गुजर रहा है। इसमें मजदूरों और बाहर पढ़ने वाले छात्रों की स्थिति बद से बद्दतर हो गई। अचानक से लिए गए इस फैसले से असंगठित क्षेत्र के कामगार-मजदूरों पर बड़ा पहाड़ इन असहायों पर टूट पड़ा। हलांकि यह फैसला जान-बूझकर नहीं लिया गया कहा जा सकता है, लेकिन इस बड़ी समस्या के बारे में एक बार सोचकर ही कदम उठाया जाना चाहिए था। मगर एक बात और है कि अगर लोगों को कह दिया जाता कि अपने-अपने घरों को लौट जाएं तो हो सकता था कि वाहनों में संक्रमित व्यक्ति जाने अंजाने कईयों को संक्रमित कर देते और इसका नतीजा होता कि आज जो देश में कोरोना पॉजिटिव की संख्या है वो बहुत बड़े पैमाने पर होती, फिर जो आज सुरक्षित जो स्थिति है वो भयावह रुप अख्तियार कर चुकी होती।

सवालों का जवाब देना मुनासिब नही ?

                                                अगर सरकार हर सवाल का जवाब देती रहे तो राजनीतिक गलियारे में उसे कोई काम करने नहीं देगा। विभत्स बिहार, नक्सल में डूबा बिहार, छेड़खानी, गुंडागर्दी रोज अपराध की नई इबारत लिखते बिहार पर विकास की छाप छोड़कर नीतीश कुमार अपने सहयोगी दल भाजपा के साथ सत्ता पिछले 15 सालों से संभाल रहे हैं। बिहार में अक्टूबर-नवंबर में संभावित चुनाव के मद्देनजर विपक्षी दल इस कोरोना संकट को लेकर बहुत कुछ तो नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन नीतीश सरकार को घेरने का कोई कसर नहीं जाने देना चाह रहे। यही वजह है कि तेजस्वी यादव, कांग्रेस और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता बार-बार कोटा में फंसे छात्रों और अप्रवासी मजदूरों का मुद्दा लगातार सोशल मीडिया पर उठाकर लोगों की सहानुभुति जुटाने में लगे तो लगे हुए हैं ही किसी न किसी तरह से इस मुद्दे को जिंदा भी रखना चाहते हैं। ताकि आने वाले चुनाव में उन्हें इसका फायदा मिल सके।


                                                राजनीतिक पंडितों का ये भी मानना है कि कोरोना संकट अभी लंबा चलेगा ऐसे में अगर नीतीश कुमार केंद्र के बूते चुनावी वैतरणी पार करना चाह रहे हैं तो एक बात उन्हें भी याद रखना होगा कि इस लंबा चलने वाले लॉकडाउन से आगे चलकर केंद्र सरकार के प्रति भी लोगों में असंतोष बढ़ना लाजिमी है, जिसका फायदा मिलने की बजाए राज्य सरकार को घाटे का सामना करना भी पड़ सकता है। ऐसे में ये भी हो सकता है कि बिहार में सियासी पैंतरे बदले और कल के विरोधी हो सकता है आगे एक हो जाएं। वैसे एक बात यह भी है कि नीतीश को राजनीति का मौसम वैज्ञानिक भी कहा जा सकता है, समय की नजाकत को भांपते हुए कोई भी कदम उठाने से बाज नहीं आएंगे। ये पब्लिक है साहब, अगर चुनाव तक उसके दिल में मजदूर और छात्र जैसे दोनों मुद्दा जिंदा रह गए तो आने वाले चुनाव में बदलाव जैसी बातों से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

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