–मनमोहन कुमार आर्य-
क्या संसार में ईश्वर जैसी कोई सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान चेतन सत्ता है? यदि है तो वह प्रत्यक्ष दिखाई क्यों नहीं देती? यदि वह वस्तुतः है तो फिर हमारे अधिकांश वैज्ञानिक व साम्यवादी विचारधारा के लोग ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार क्यों नहीं करते? हमारे देश में बौद्ध एवं जैनमत का आविर्भाव हुआ। इनके बारे में भी यह मत प्रचलित है कि यह लोग ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। गाय सभी मनुष्यों के लिए एक सर्वाधिक उपकारी पशु है। यह घास वा तृण-मूल खाकर अमृत के समान सर्वोत्तम दूध मात्र उसकी कुछ सेवा करने पर देती है। वैदिक धर्म व संस्कृति में इसे माता का स्थान दिया गया है और वेदों में इसे अवध्य अर्थात् जिसे नहीं मारना चाहिये, जिसको मारना सबसे बड़ा पाप है परन्तु फिर भी देश विदेश में व कुछ मतों व धर्मों के लोग गोहत्या करते हैं एवं गोमांस खाते हैं। यदि ईश्वर है तो वह इन निर्दोष पशुओं की हत्या को रोकता क्यों नहीं? क्यों नहीं गो आदि पशुओं के हत्यारों के मन व आत्माओं में इन पशुओं के प्रति दया और करूणा का प्रकाश करता? इन सब कारणों से एक अल्प शिक्षित व्यक्ति कैसे जाने कि ईश्वर है या नहीं? और यदि ईश्वर है तो उसका स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव आदि कैसे हैं?
हमने ईश्वर से सम्बन्धित कई प्रश्न उपस्थित किए हैं जो प्रायः सामान्य मनुष्यों के मन वा चित्त में उठते रहते हैं। इनका उत्तर देने से पहले हम मुख्य विषय कि यदि ईश्वर न होता तो क्या होता, पर चर्चा करते हैं। ईश्वर को वेदों एवं वैदिक साहित्य में इस सृष्टि की रचयिता बताया गया है। वही इसका पालन कर रहा है और अवधि पूरी होने पर वही इसकी प्रलय भी करता है। वेदों के अनुसार सृष्टि की रचना का उसका अनुभव व अभ्यास अनादि व नित्य है। उसने इस संसार को पहली बार नहीं बनाया अपितु ऐसे संसार वा ब्रह्माण्ड वह अनेकों बार बना चुका है, इसी प्रकार से उनका पालन कर किया है और उन सब की प्रलय भी कर चुका है। यह ईश्वर का स्वाभाविक कर्म है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि वह सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, नित्य, सृष्टिकत्र्ता आदि गुण-कर्म-स्वभाव वाला है। यह बात इस लिए सत्य है कि उसका बनाया हुआ संसार हमारी आंखों के समाने है। कुछ साम्यवादी विचारधारा व विज्ञान को मानने वाले बन्धु यह कह सकते हैं कि इस संसार को ईश्वर ने नहीं बनाया अपितु यह तो अपने आप बन जाता है। वह यह भी कहते व कह सकते हैं कि यह ब्रह्माण्ड बिना किसी व्यवस्थापक के स्वमेव ही चल रहा है। इस वाद का हम प्रतिवाद करते हैं। यह सर्वथा असत्य है। हम इस मान्यता व सिद्धान्त को मानने वाले बन्धुओं से पूछना चाहते हैं कि वह हमें मनुष्यों द्वारा की जाने वाली रचनाओं में से एक भी ऐसी रचना बतायें जो स्वमेव बनी हो? यदि मनुष्यों द्वारा रचित वस्तुएं जिनका बनना अपौरूषेय रचनाओं (ईश्वर द्वारा रचित कार्य जिन्हें मनुष्य नहीं बना सकता) से कहीं अधिक सरल है, स्वमेव नहीं बन सकती तो इन अपौरूषेय रचनाओं, जो मनुष्यों की रचनाओं से कहीं अधिक कठिन व जटिल हैं, वह भी स्वमेव नहीं बन सकती व दूसरे शब्दों में ऐसा होना असम्भव है। यह बात अलग है कि अज्ञानतावश हम उसे जान न पायें। जिन लोगों को ईश्वर के अस्तित्व के होने व उसके द्वारा सृष्टि रचना करने में सन्देह है, उन्हें सत्यार्थ प्रकाश, योग, सांख्य और वैशेषिक दर्शन पढ़ना चाहिये। इसे पढ़कर उनका सारा भ्रम दूर हो सकता है। हमारे शरीर में दो आंखें हैं जिसकी रचना मनुष्य कदापि नहीं कर सकते। इसकी रचना अत्यन्त कठिन व जटिल है, परन्तु यह हमें साक्षात दिखाई देती है। यह रचना न होकर रचना विशेष है। उनके छोटी व बड़ी रचनायें तो मनुष्य कर सकता है परन्तु आंख जैसी रचना विशेष तो रचयिता विशेष=ईश्वर के द्वारा ही हो सकती है और वह सत्ता निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक व सर्वज्ञादि गुणों से युक्त परमेश्वर ही है वा हो सकती है जिसने अपने विज्ञान व विधान के अनुसार माता के गर्भ में इस आंख का निर्माण किया है। इसी प्रकार यह सारी सृष्टि भी ईश्वर के द्वारा निर्मित होकर उसी के द्वारा संचालित व पालित है। यदि वह न हो तो यह सृष्टि अन्य किसी सत्ता के द्वारा न बनने से अस्तित्व में ही नहीं आ सकती। तब इस स्थिति में मनुष्यों की सभी जीवात्मायें व इस संसार को बनाने की जड़ व भौतिक सामग्री अर्थात् कारण प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है, वह रात्रि रूपी अन्धकार के समान सदा-सदा के लिए आकाश में विस्तीर्ण रहती जिसका कभी कोई उपयोग न होता। इस स्थिति में जीवात्माओं और प्रकृति की सत्ता होने पर भी यह व्यर्थ व निरर्थक रहती। इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि घर में जैसे आवश्यकता का सभी सामान रखा हो पर कोई मनुष्य न रहता हो तो वह सामान निरर्थक होकर किसी उपयोग में नहीं लाया जा सकता। यही अवस्था इस संसार की भी होती, यदि ईश्वर न होता।
यदि ईश्वर इस सृष्टि की रचना न करता तो स्वाभाविक है कि यह सृष्टि न बनने से सारा आकाश अन्धकारमय रहता। हमारी व अन्य सभी प्राणियों की जीवात्मायें, जो सत्ता व स्वाभाविक गुणों में परस्पर हर प्रकार से समान हैं वह भी जन्म व मरण से मुक्त रहती और जो सुख वह मनुष्य आदि योनियों में प्राप्त करती हैं उनसे वंचित रहती क्योंकि सृष्टि न बनने से मनुष्यों के शरीर बनाने वाला प्रदान करने वाला भी कोई न होने से जन्म होना सम्भव ही न होता। इसका अर्थ यह कि ईश्वर न होता तो जीवात्माओं व प्रकृति के होने पर भी यह संसार अनिर्मित, अरचित, सत्तारहित वा निर्माणरहित होता। यह स्थिति वर्तमान स्थिति की तुलना में अत्यन्त दुःखद होती। अतः इस भौतिक व प्राणी जगत का साक्षात व निर्भ्रांत अस्तित्व होने से ईश्वर का होना स्वतः सिद्ध है। उस ईश्वर ने ही इस संसार को बनाया व इसे चला रहा है। हमें मनुष्यादि जन्म भी उस ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मानुसार हमें दिए हैं। हम सब प्राणी उस ईश्वर के अधिकतम् ऋणी हैं। न केवल यह जन्म अपितु इससे पूर्व के अनन्त जन्म भी उसी की कृपा से हमें मिलें थे और आगे भी अनन्त जन्म हमें हमारे कर्मानुसार ईश्वर हमें प्रदान करेगा। हम ईश्वर को उसके ऋण के बदले में अपनी ओर से कुछ दे ही नहीं सकते न उसको किसी वस्तु या पदार्थ की आवश्यकता है। हम उसे केवल नमन कर सकते हैं। धन्यवाद कर सकते हैं। उसकी स्तुति, कीर्ति, यश व महानता का गान कर स्वयं को ऋण से हलका अनुभव कर सकते हैं। उससे प्रार्थना करते हुए उससे सुख, स्वस्थ जीवन, दीर्घायु, वैभव, पुत्र-पुत्री व सच्चे व अच्छे मित्रों सहित ज्ञानी व ध्यानी आचार्य व गुरूओं की याचना कर सकते हैं। हम स्वाधीन रहें। कभी परतन्त्र न हों। हम किसी का शोषण न करें और न कोई हमारा शोषण करे वा हम पर अन्याय करे। यह प्रार्थनायें व आचरण करके हम ईश्वर का घन्यवाद व नमन कर उसे सन्तुष्ट कर सकते हैं। उससे दुःखों को दूर करने की प्रार्थना के साथ उससे बार-बार होने वाले जन्म व मरण के दुःखों से मुक्ति वा मोक्ष प्रदान करने की प्रार्थना भी कर सकते हैं। इसी आवश्यकता की पूर्ति वेद, वैदिक साहित्य, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि साहित्य के अध्ययन व आचरण से होती है।
इस प्रश्न का उत्तर कि यदि ईश्वर है तो दिखाई क्यों नहीं देता, यह है कि वह सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी व वर्ण-रंग रहित होने के कारण आंखों से नहीं दिखाई देता। वायु के परमाणु सूक्ष्म होने के कारण ही तो हमें दिखाई नहीं देते जबकि उनके परमाणु या अणुओं का अस्तित्व है। स्पर्श द्वारा उनका सासक्षात् अनुभव होता है। जो भी व्यक्ति ईश्वर को स्वीकार नहीं करता वह चाहे वैज्ञानिक हो या कोई अन्य, इसका मुख्य कारण उसका वैदिक ज्ञान से अपरिचित होना है। बिना अध्ययन के ज्ञान नहीं होता। ईश्वर कोई स्थूल भौतिक पदार्थ नहीं है अपितु अत्यन्त सूक्ष्म चेतन तत्व है। उसे जानने के लिए सात्विक व विवेक बुद्धि सहित वैदिक साहित्य का ज्ञान होना अत्यावश्यक है। जब इस आवश्यकता की पूर्ति होगी तो उन्हें ईश्वर का साक्षात् व निभ्र्रान्त ज्ञान अवश्य हो जायेगा।
ईश्वर यदि है तो वह गो आदि सर्वाधिक उपकारी पशुओं की हत्या को क्यों नहीं रोकता। इसका उत्तर है कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर के आधीन है। जीवात्मा ने पिछले जन्मों में कुछ कर्म किये हुए हैं जिनका फल उसे पहले मिलना है और इसका फल मिलने का अवसर बाद में आयेगा। परन्तु आयेगा अवश्य, इसमें शंका नहीं होनी चाहिये। एक कहावत है कि ईश्वर के यहां देर है परन्तु अन्धेर नहीं है। यह कहावत तो त्रुटियुक्त है, वास्वविकता यह है कि ईश्वर के यहां न देर है न अन्धेर अपितु सब काम समय पर तसल्ली से होता है। आप अस्पतालों में नाना प्रकार के रोगियों को देखते है। क्या यह निष्कारण ही वहां पड़े हैं? इन्होंने अवश्य इस जन्म व पूर्व जन्म में ऐसे कर्म किये हैं जिनका परिणाम रोग के रूप में उन्हें दुःख की स्थिति में रहकर भोगना पड़ रहा है। उनका पैसा भी उनको रोगमुक्त नहीं कर पा रहा है। ऐसे ही कर्म के फलों के अनेक उदाहरण हैं। ईश्वर गो आदि पशुओं की हत्या करने वाले मनुष्यों के हृदय में हत्या न करने की प्ररेणा क्यों नहीं करता, इसका उत्तर यह है कि ईश्वर भय, शंका व लज्जा आदि के रूप में प्रेरणा तो निरन्तर करता है परन्तु जीव की स्वतन्त्रता तथा हत्या करने वाले के तामसिक व राजसिक गुणों तथा प्रवृत्ति के कारण उनके हृदय में यह प्रेरणा होने पर भी मनुष्य इसकी उपेक्षा कर देता है। जब भी मनुष्य बुरा काम करता है तो उसके हृदय में भय, शंका व लज्जा ईश्वर के द्वारा उत्पन्न होती है। यह सभी मनुष्यों का एक सामन अनुभव है। इतना ही नहीं, यदि हम परोपकार, दान व किसी दुःखी व पीडि़त की सेवा करते हैं, तब भी ईश्वर से हमें उत्साह व आनन्द तथा शाबाशी मिलती है। यह भी सभी मनुष्यों का एक समान अनुभव है। अतः ईश्वर पर यह आरोप की वह हत्या करने वाले को रोकता नहीं है, यह सर्वथा निराधार है। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख के विषय व उसमें निहित लेखक की भावनाओं को समझ सकेंगे और इस लेख को उपयोगी पायेंगे।