बीमारी, बेकारी और सरकार की लापरवाही से सिकुड़ रहा है बिरहोरों का कुनबा

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इन्द्रमणि साहू

झारखंड में बिरहोर जनजाति एक विलुप्तप्राय मगर एक विषिष्ठ जनजाति है जो झारखंड के जंगलों या जंगलों के किनारे निवास करता है. इस राज्य के कर्इ जिलों में यह जनजाति आज भी अच्छी-खासी संख्या में है खासकर कोडरमा, पलामू, गढ़वा, धनबाद, सिंहभूम, गिरिडीह, लोहरदग्गा, रांची, हजारीबाग, गुमला इत्यादि में. लेकिन, अफसोस इस बात की है कि इसकी संख्या लगातार कम होती जा रही है या इसकी जनसंख्या लगातार घटायी जा रही है. जनसंख्या घटने के पीछे प्राकृतिक कारण हो न हो पर राजनीतिक कारण जरूर रहा है. माना जाता है कि इस जनजाति का रहन-सहन, भेश-वूषा, भाषा-बोली इत्यादि आस्ट्रेलियार्इ जनजाति से मिलता-जुलता है. झारखंड के संदर्भ में देखें तो बिरहोर और खरवार जनजाति एक दूसरे से बहुत हद तक एक जैसा है. गरीबी, भूखमरी, बीमारी और अन्य तरह के तमाम मुददे यदि कहीं है तो वह इसी जनजातियों में खूब देखने को मिलता है.

झारखंड आज खनिज-संसाधनों के मामले में भले ही समृद्ध हों पर यहां रहने वाले आदिवासी, बिरहोर, दलित, महिला, बच्चे आदि वर्ग आज उपेक्षित और शोषित हैं. हर साल दर्जनों की मौतें बिरहोर और खरवार जनजाति में भूख से होती हैं. सरकार की तमाम सरकारी व कल्याणकारी योजनाएं उक्त समुदाय तक नहीं पहुंचती है या पहुंचते-पहुंचते योजना या नीतियां दम तौड़ देती है. सरकारी-गैरसरकारी तमाम दावे आज खोखले साबित हुए हैं. इनकी पूरी जिंदगी सदियों से जंगल पर आश्रित रहा है. सरकार की ओर से चलाये जा रहे इसके लिए विशेष अंगीभूत योजना भी इनकी जिंदगी या इनके सामाजिक-आर्थिक स्थिति में बदलाव नहीं ला पाये हैं. और न ही सर्व शिक्षा अभियान जैसी अरबों की योजना ने इनके बच्चों को स्कूल तक पहुंचा पाया है.

झारखंड में लगातार जंगलों का सफाया हो रहा है. इस कारण भी ऐसे जन समुदाय के जीवन जीने में फजीहत हो रही है. आम लोग इसे आज भी वनमानूश ही समझते हैं. अपने हिस्से के हक-अधिकार आज तक इन्हें नसीब नहीं हो पाया है. ऐसे जन समुदाय जहां भी रहते हैं सभी सामुहिक रूप से ही निवास करते हैं. लोगों की अपनी संस्कृति और बोली भाषा है. जीवन जीने के अलग अंदाज है. ग्रुप में रहना, ग्रुप में शिकार करना, ग्रुप में बाजार जाना इत्यादि इनके जीवन संस्कृति रहा है. ऐसे जनसमुदाय जहां निवास करती है उस स्थान को बिरहोर टंडा के नाम से जाना जाता है. यह समुदाय भले ही जंगल या जंगल के किनारे बसती है परंतु इनकी जीवन के मूल्य या जीवन संस्कृति बडे कायदे के होते हैं. आज सामान्य समुदाय विज्ञान या बाजार के चकाचौंध में लगभग फंस चुकी है. परंतु, बिरहोर समुदाय आज बहुत हद तक अपनी पुरानी लोक संस्कृति और पारंपरिक जीवन शैली में ही जीवन जी रहे हैं. यह समुदाय एकपत्नीमुखी होना ज्यादा पंसद करती है. अपनी पत्नी के सिवाय दूसरे की पत्नी या बहुपत्नी को तनिक भी पसंद नहीं करते है. विशेष परिस्थिति की बात अलग है.

बिरहोर जनसमुदायों का जीवन जीने का अपना जीवनशैली है. सुबह जल्दी उठना, घर का सारा काम-काज निपटाना और 8-9 बजते-बजते जंगल निकल जाना इनका रोज का रूटिंन होता है. जंगल जाना, जंगल में शिकार करना या फिर जंगल में मिलने वाली खादय सामाग्रीया जड़ी-बुटी इक्कठा करते और शाम को घर लाना. दारू पीना, नाचना-गाना और परिवार के साथ आराम से बिना कोर्इ विशेष झंझट या आवयशकता जताये सो जाना फिर सुबह ठीक उसी तरह की प्रकि्रया से गुजरना इनका रोज का रूटिंन होता है.

 

लाखों-करोड़ों खर्च के बावजूद स्कूल तक नहीं पहुंच पाये बिरहोर के बच्चे : कोडरमा, मरकच्चो, डोमचांच एवं सतगांवां में रहने वाले लगभग 350 बिरहोर परिवार लगभग सभी निरक्षर हैं. इन्हें दूर-दूर तक शिक्षा से कोर्इ वास्ता नहीं है, न रहा है. चुंकि, इन्हें वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर विश्वास भी नहीं है. ये पारंपरिक और व्यवहारिक शिक्षा में ज्यादा विश्वास करने वाले होते हैं. हलांकि, आज कुछ बिरहोर अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजने लगे हैं. यह सब स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं या सरकारी प्रयासों का प्रतिफल है. लेकिन, उन्हें या उनके बच्चों को उस स्कूल में वैसी शिक्षा, माहौल, सम्मान या अन्य सुविधा नहीं मिलने के कारण उनके बच्चें स्कूल में ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाते हैं.

ज्ञात हो कि इस जिले में भी बिरहोरों के लिए या उनके बच्चों के लिए शिक्षा के लिए कर्इ कार्यक्रम चलाये गये. करोड़ों-लाखों रूपये खर्च किये लेकिन, उनके बच्चें आज स्कूलों में नहीं है. खासकर बालिकाओं का शिक्षा दर और उनके स्वास्थ्य के मामले में यह जिला काफी पीछे है. क्षेत्र में शैक्षणिक माहौल नहीं है. शैक्षणिक सुविधाओं का भी घोर अभाव है जिस वजह से उपर्युक्त गांवों के बिरहार एवं गैर बिरहोर जाति के बच्चे खासकर खासकर लड़कियां स्कूल जाने के बजाय ढीबरा चुनने, मवेशी चराने, जंगल से लकड़ी लाने, घर के काम-काज में हाथ बटाने, छोटे भार्इ बहनों की देखभाल करने इत्यादि कामों में अपना भविष्य गंवाते हैं.

झारखंड शिक्षा परियोजना का यहां बुरा हाल है. इस परियोजना से सरकारी स्कूलों में नामांकन दर जरूर बढ़ गया है पर वहां उनका ठहराव और गुणवतापूर्ण शिक्षा का मिलना एक चुनौती बना हुआ है. जबकि, पढ़ार्इ-लिखार्इ मानव योग्यता का एक जरूरी हिस्सा है. इसके लिए प्रारंभिक शिक्षा पहला कदम है. पढ़ार्इ ही एक ऐसा तकनीक है जिससे ज्ञान और सूचनाओं के लिए एक बड़ी दुनिया के दरवाजे खुल जाते हैं. शिक्षा पाने से बच्चों, महिलाओं व किषोरियों के पास कर्इ अवसर आ जाते है. इतना ही नहीं, इससे उनके अंदर चुनौतियों से सामना करने का हिम्मत, ताकत और आत्मविश्वास बढ़ जाता है. दुनिया को जानने के साथ-साथ अपने हक व अधिकारों को भी समझने लगते हैं. अपने उपर होने वाले दवाब का विरोध और शोषण से मुकित के लिए संधर्ष की प्रक्रिया से जुड़ जाती हैं. शिक्षा का अधिकार अन्य बुनियादी मानव अधिकारों के साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ है. जैसे भेदभाव से आजादी का अधिकार, काम का अधिकार, स्वयं तथा समुदाय को प्रभावित करने वाले फैसलों में भागीदारी का अधिकार, भरपूर व भयमुक्त जीवन जीने का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार, सुरक्षा व स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यकित का अधिकार, सहभागिता का अधिकार इत्यादि.

अब इस देश व राज्य में 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू हो गया है. पर पहल कहीं हो नहीं रहा है. शिक्षा का सर्वव्यापीकरण का सपना अब भी अधूरा है. गरीब घरों की अधिकांश लड़कियों के लिए स्कूल जाना एक असंभव सपना बना हुआ है. गरीब घरों की लड़कियां बचपन से घरेलू कामों में मदद करने लगते हैं या फिर यूं कहें कि उनके उपर घरेलू कार्यो का बोझ बढ़ जाता है. जब यह स्थिति यहां के गैर आदिवासी या गैरबिरहोरों की है तो आदिवासियों एवं बिरहोरों की स्थिति का स्वयं अंदाजा लगाया जा सकता है.

वर्ष 2001 से यहां सर्व शिक्षा अभियान चल रहा है। प्राथमिक शिक्षा का सर्वव्यापीकरण करना और 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को गुणात्मक शिक्षा देना इस अभियान का मुख्य लक्ष्य है। साथ ही, बालिकाओं की शिक्षा पर भी विशेष जोर दिया गया है. इसके लिए आवासीय व गैर आवासीय सेतु विधालय चलाया गया. लेकिन, सही तरीके से यह कार्यक्रम संचालित नहीं होने के कारण अपेक्षित व प्रभावकारी परिणाम सामने नहीं आ पाया. बिरहोर समुदाय के बच्चों के लिए यह अभियान तनिक भी पहल नहीं कर पायी है या यूं कहें कि यह अभियान बिरहोर, आदिवासी एवं दलित के बच्चों को छोड़कर अन्य समुंदाय एवं अधिकारियों-पदाधिकारियों के लिए एक हद तक सफल रहा है. क्षेत्र में आज भी बेटा-बेटी में काफी फर्क समझा जाता है. शिक्षा के महत्व से गरीब व दलित समाज आज भी अनभिज्ञ है. जिसके कारण गरीब, पिछड़े, बिरहोर एवं दलित समाज में आज कर्इ समस्याएं विधमान है. एक सर्वे के मुताबिक कोडरमा में बालिका शिक्षा दर पांचवीं तक यह 55 प्रतिशत, छठीं से आठवीं कक्षा तक 24 प्रतिशत और आठवीं से दसवीं कक्षा तक जाते-जाते इसका प्रतिशत घटकर 10 प्रतिशत हो जाता है. उसमें भी दलित, आदिवासी, आदिम जनजाति व पिछड़ी समुदाय की बचिचयों की स्थिति और भी दयनीय है. उपरयुक्त आंकडों के मुताबिक आदिम जनजाति के बच्चों का शैक्षणिक दर 1 प्रतिशत से भी कम है. या यूं कहें कि आदिम जनजाति के बच्चों का सिर्फ स्कूलों में नामांकन मात्र तक ही सीमित रह गया है.

नहीं हो रहा है कोडरमा में कुपोषित बच्चों व आम लोगों का समुचित इलाज

कोडरमा जिला में विभिन्न बाल विकास परियोजनाओं की रिर्पोट के मुताबिक 1123 बच्चें अतिकुपोषित होने की पहचान की गयी है। लेकिन, इनके समुचित र्इलाज की कोर्इ व्यवस्था नहीं होने के कारण अभिभावक व्यथित है। ज्ञात हो कि जिला में कुपोषण निवारण केंद्र स्थापित जरूर है लेकिन, वहां कोर्इ व्यवस्था नहीं होने के कारण बच्चों का समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है। इसके अलावे अन्य स्वास्थ्य केंद्र, उपकेंद्र या सदर अस्पताल की स्थिति लचर है। न डाक्टर, न दवार्इयां और न ही कोर्इ टार्इम-टेबल और न ही अन्य कोर्इ सुविधा। लोग या मरीज भगवान भरोसे ही चल रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक कोडरमा जिला में आदिम जनजाति बिरहोर एवं दलित समुदाय में सबसे ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। अभी हाल ही में, कोडरमा के मरियमपुर में डायरिया के चपेट में आने से 39 वर्षीय चंदा बिरहोर की मौत हो गयी और आधे दर्जन से ज्यादा बच्चे डायरिया से ग्रसित है। लोकार्इ, चीतरपुर, मरियमपुर एवं झरनाकुंड में रहनेवाले बिरहोरों की स्वास्थ्य की वस्तुस्थिति का भी जायजा लिया गया. बिरहोरों को एवं उनके टोलों को या फिर उनके रहने-सहने के तरीकों को देखने से प्रथम दृष्टया यह कहा जा सकता है कि इनके स्वास्थ्य की स्थिति बेहद खराब और दयनीय है. कुपोषण, मलेरिया, डायरिया, हैजा, घाव की बीमारी, टीबी इत्यादि जैसी दर्जनों बीमारियों से ये समुदाय ज्यादातर ग्रसित रहते हैं. बीमार पड़ने पर ये लोग सबसे पहले अपना पारंपरिक तरीकों को ही इस्तेमाल करते हैं जैसे-झांड़-फूंक, जड़ी-बुटी या फिर अपने पारंपरिक देवी-देवता का पूजा-अर्जना. एकदम गंभीर अवस्था पर ये लोग अपने मरीज को किसी डाक्टर, सदर अस्पताल या फिर गांव के प्रैकिटसनर के पास ले जाते हैं. इनके मरीज अस्पताल में भी रहना पसंद नहीं करते हैं. कहा जाता है कि अस्पताल में हमें या हमारे मरीजों के साथ सही-सही व्यवहार नहीं किया जाता है. उपेक्षित और भेदभाव का व्यवहार देख अस्पताल से ये लोग या इनके मरीज भाग जाते हैं. बताते चलें कि बुधन बिरहोर के सीने में दर्द और खांसी बहुत दिनों से थी. समर्पण संस्था के कार्यकर्ताओं के सलाह पर ये सदर अस्पताल गये. वहां उन्हें भर्ती रख लिया गया. तीन दिन तक अस्पताल में रहा. तीन दिन बाद वह भाग कर घर चला आया. पूछने पर उन्होंने बताया कि अस्पताल में कोर्इ व्यवस्था था ही नहीं, वहां रहकर क्या करते. तीन दिन रहे पर खांसी कम नहीं हुआ. इलाज भी ठीक से नहीं करता था, खाली सुर्इया पर सुर्इया देते जा रहा था. न खाने के लिए गोलिया का ठिकाना था और न ही खाना मिलता था. वहां और दो दिन रहते तो शायद भूखे मर जाते. इसलिए 5 बजे सुबहे हम भाग गये. इसके बहु भी बीमार है. पूरा देह सफेद होता जा रहा है. अस्पताल जाने को ये तैयार ही नहीं है.

इसी टोले में एक आंगनबाड़ी केंद्र भी संचालित है. लेकिन, दुर्भाग्य यह है कि इनके समुदाय के बच्चों का नियमित टीकाकरण नहीं हो पाता है. यदि होता भी है तो कमिप्लट नहीं हो पाता है. नियमित टीकाकरण या पूरा टीकाकरण नहीं हो पाने के कर्इ कारण है जैसे-

 आवश्वकता की जानकारी नहीं होना या देने पर भी आवष्यकता महसूस न करना.

 वेकिसन एवं अन्य लाजिस्टक की अनुपलब्धता

 प्रतिकुल प्रभावों के डर से

 टीकाकरण के दिन मां व बच्चों का क्षेत्र से बाहर रहना या काम में निकल जाना

एएनएम द्वारा इन्हें टीकाकरण कार्ड उपलब्ध कराया गया है लेकिन आज के तारीख में किसी के पास एक भी टीकाकरण कार्ड नहीं है. यहां के बिरहोर समुदाय साफ-सफार्इ के मामले में भी काफी पीछे है. इनलोग एक ही कपड़े को 15 दिन तक बिना धोये पहनते हैं. इनके टोलों के लिए भी सहिया का चयन किया गया है. लोकार्इ का सहिया बिरहोर महिला ही है. लेकिन, सही-सही जानकारी नहीं होने या प्रषिक्षण इत्यादि नहीं होने के कारण सहिया की भूमिका नगण्य है. प्रसव के दौरान ये स्वयं या कभी-कभार सहिया के सहयोग से टेम्पो में बैठकर अस्पताल जाती है या फिर घर पर ही प्रसव की प्रकि्रया से गुजरती है. प्रसव के पश्चात तीन माह तक इन्हें एवं इनके नवजात शिशु को घर या समुदाय से अलग रहना पड़ता है. तीन माह तक इन्हें या इनके बच्चों को कोर्इ छुता भी नहीं है. प्रसव के दौरान भी कोर्इ दार्इ का इन्हें सहयोग नहीं मिल पाता है. चाहे मौसम कार्इ भी क्यों न हो, इन्हें अलग रहकर जीवन जीना होता है. यह प्रथा परंपरा सदियों से चली आ रही है. ठंड के मौसम में ठंढ से बचने के लिए अगल-बगल आग या बोरसी भी रखती है जिससे कर्इ बार इनके कपड़े तो कर्इ बार इनके झोपड़ी में भी आग लग जाती है. जिससे जच्चा-बच्चा दोनों को खतरा होता है. लोकार्इ का लुल्हा बिरहोर का एक हाथ का जलना इसी तरह की घटना की उपज है. ठीक इसी तरह की एक घटना पिछले साल जियोरायडीह में घटित हुआ था. जहां जच्चा-बच्चा दोनों की मौत हो गयी. गर्भावस्था के दौरान भी ये सभी तरह के काम में लगी हुर्इ रहती है. अपने या अपने बच्चें का तनिक भी चिंता इन्हें नहीं रहती है. जिससे दोनों पर बुरा असर पड़ता है. इसके पीछे जो मजबूरियां है वह है गरीबी और जागरूकता का अभाव. शिशु मृत्यू दर में वृद्धि, परिवार नियोजन के बारे में इन्हें कोर्इ जानकारी नहीं हैं. 18 वर्ष के पहले शादी, लिंग अनुपात में भारी अंतर, महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान कुशल सेवा का न मिलना, पर्याप्त शुद्ध पेयजल का न मिलना, शौचालय का अभाव, संतुलित आहार का न मिलना, कुपोषण, खून की कमी इत्यादि यहां की प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है.

जंगल पर आश्रित है आज भी बिरहोर समुदाय:

वैसे तो, बिरहोर समुदायों का जीवकोपार्जन का मुख्य स्रोत जंगल ही रहा है. जंगल से दातुन-पता, बांस की लाठी, पैना, अखन, सुखा लकड़ी, जड़ी-बुटी, जंगली खादय सामगि्रयों में से टेना, पुटू, खुंखड़ी, बैर, आम, सताबर इत्यादि लाकर स्वयं इस्तेमाल करते है या फिर बाजार में बेचते हैं. यह काम महिला-पुरुष दोनों करते हैं. इसके अलावे पुरुष लोग जंगल से शिकार करते हैं और उसे भी स्वयं इस्तेमाल करते हैं या फिर बेचकर अपना गुजारा करते हैं. इस तरह वे इससे लगभग 50 से 100 रूपये तक कमार्इ कर लेते हैं. इधर कुछ वर्षो से कुछेक परिवारों को अन्त्योदय एवं अन्नपूर्णा योजना का लाभ मिलने लगा है.

भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है इनके हिस्से का अनाज भी

बिरहोरों को सरकारी सुविधाओं के नाम पर मात्र लाल कार्ड, इंदिरा आवास, बिरसा आवास, अंत्योदय योजना एवं अन्नपूर्णा योजना का लाभ मिल पा रहा है. वह भी कुछ ही परिवारों को. जो भी मिलता है उसमें से आधा से अधिक बिचौलिया या डीलर को भेंट चढ़ जाता है. जागरूकता के अभाव में आज आदिम जनजाति, दलित, आदिवासी तथा अन्य निम्न वर्ग के गरीब व जरूरतमंद लोग कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं. चाहे इंदिरा आवास की बात हो या दीन दयाल आवास योजना का लाभ, वृद्धापेंशन हो या सामाजिक सुरक्षा पेंशन. उक्त सभी योजनाओं में विचौलियों का दबदबा है. ग्रामीण प्रशासनिक उपेक्षा की शिकार होते रहे हैं. जिले में आज हजारों ऐसे गरीब परिवार हैं, जिन्हें सर छुपाने के लिए अब तक एक अदद छत भी नसीब नहीं हो पायी है। हजारों ऐसे परिवार भी हैं, जिन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता है। गरीबों को न्यूनतम मूल्य पर अनाज मुहैया कराने के लिए सरकार ने उन्हें कर्इ तरह के कार्ड भी उपलब्ध कराया है, जिसके आधार पर उन्हें स्थानीय जनवितरण प्रणाली की दुकान से सस्ते दर पर अनाज देने की व्यवस्था है। लेकिन, ये अनाज भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं. यहां गरीबों के हिमायती या उनके हित में कार्य करने वाला कोर्इ संगठन या संघ नहीं है. गरीबी के कारण वे अपने बच्चों को समुचित शिक्षा दे पाने में असमर्थ होते हैं. ऐसे लोगों की आर्थिक मजबूती प्रदान करने के उददेष्य से यहां राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून भी चलाया जा रहा है. बाबजूद ग्रामीणों खासकर बच्चों, किशोरियों व महिलाओं का भला नहीं हो पा रहा है. यदि किसी तरह गैर आदिम जनजाति के कुछ किशोरियां पांचवीं या आठवीं तक पढ़ार्इ कर भी लेती है तो हार्इ स्कूल या कालेज तक की पढ़ार्इ के लिए चुनौती बन जाती है. इसके लिए न अभिभावक तैयार होते हैं और न ही गांव में ऐसा कोर्इ माहौल है कि आगे की पढ़ार्इ जारी रखा जा सके. लिहाजा, अभिभावक अपनी बचिचयों को कम उम्र में ही शादी कर देना उचित समझते हैं.

गैर बिरहोर समुदाय के चालाक लोगों को बिचौलिया समझते हैं बिरहोर समुदाय के लोग

इस युग में नाम मात्र के लोग ही है जो इनके दशा-दिशा के बारे में सोचते हैं. गैर बिरहोर समुदाय को ये लोग उन्हें एक बिचौलिया की नजर से देखते हैं. क्योंकि, वे अक्सर इन्हें अपना शिकार बनाते हैं. शराब इत्यादि पिलाकर इनकी गाढ़ी कमार्इ और जंगल से अर्जन किया गया संसाधन या मारकर लाया गया जानवर ठग लेते हैं. वोट की राजनीति पर भी इन्हें विश्वास नहीं है. जो चुनाव में खड़े होते हैं उनके लोग इन्हें बहला-फुसलाकर वोट दिलाने ले जाते हैं या इनके नाम पर वे फाल्स वोट मार देते हैं. पंचायत चुनाव में भी ऐसे लोग वोट देने गये पर जीते हुए मुखिया, वार्ड सदस्य, पंचायत समिति सदस्य या अन्य जनप्रतिनिधि इनकी परिस्थितियों को जानने-समझने के लिए नहीं पहुंचा है. इनलोग अपने साथ हुए घटना, दुर्घटना या शोषण का कहीं षिकायत भी नहीं करते हैं. वर्षो से ये लोग अपने साथ होने वाले तमाम कारगुजारियों को सहते रहे हैं. लिहाजा, बीमारी, बेकारी और सरकार की लापरवाही की वजह से इनका कुनबा आये दिन सिकुड़ रहा है। जबकि, इनके आर्थिक व सामााजिक उत्थान के लिए प्रति वर्ष सरकार की ओर से लाखों रूपये खर्च किये जाते हैं। बाबजूद, इनकी माली हालात में कोर्इ तब्दीली नहीं आ पा रही है। इनकी संख्या लगातार कम हो रही है। जिसकी चिंता हम सबों को करनी चाहिए।

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