शिवसेना के ‘अयोध्या दांव’ के निहितार्थ

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निर्मल रानी

गत् 25 नवंबर की तारीख एक बार फिर पूरे देश के लिए तनाव की स्थिति पैदा करने वाली प्रतीत हो रही थी। खासतौर पर दलाल व बिकाऊ टीवी चैनल्स द्वारा चारों ओर ऐसा वातावरण पैदा किया जा रहा था गोया 6 दिसंबर 1992 की पुनरावृत्ति होने वाली हो। एक ओर तो उद्धव ठाकरे पहली बार अयोध्या पधार रहे थे। यहां यह जि़क्र करना ज़रूरी है कि ठाकरे परिवार के सदस्य चाहे वे बाल ठाकरे हों,उद्धव ठाकरे या फिर इनके पारिवारिक प्रतिद्वंद्वी राज ठाकरे। यह सभी नेता चूंकि अपने-आप को मुंबई का ही शेर समझते हैं और अपनी पूरी राजनीति महाराष्ट्र तथा मराठा क्षेत्रवाद पर आधारित रखते हैं इसलिए इन लोगों का मुंबई से बाहर जाना यहां तक कि राजधानी दिल्ली में भी पधारना नाममात्र ही होता है। परंतु 25 नवंबर को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने दल-बल के साथ केवल इसलिए अयोध्या पहुंचे ताकि वे मंदिर निर्माण की तिथि घोषित करा सकें। उद्धव ठाकरे के अनुसार वे सोते हुए कुंभकरण को जगाने अयोध्या आए थे। ठाकरे के राजनैतिक $कदमों से सा$फ ज़ाहिर हो रहा है कि वे स्वयं को भाजपा व संघ परिवार से बड़ा रामभक्त और मंदिर निर्माण में सबसे अधिक आक्रामक व अग्रणी दिखाई देना चाहते हैं। सवाल यह है कि आखिर क्या वजह है कि भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक सहयोगी होने के बावजूद ठाकरे की शिवसेना व संघ पोषित भाजपा के मध्य राम मंदिर निर्माण को लेकर ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है?दरअसल भारतीय जनता पार्टी की क्षेत्रीय दलों से स्वार्थपूर्ण गठबंधन की राजनीति को शिवसेना भांप चुकी है। वह यह बखूबी समझती है कि किस प्रकार भाजपा देश के विभिन्न राज्यों में अपने पैर जमाने के लिए किसी लोकप्रिय क्षेत्रीय राजनैतिक दल से गठबंधन कर उस राज्य में अपने पैर पसारती है और आगे चलकर यही भाजपा उसी क्षेत्रीय दल से प्रतिस्पर्धा की स्थिति में आ खड़ी होती है और धीरे-धीरे उसी क्षेत्रीय दल को निगलने की कोशिश भी करने लगती है। हिंदुत्ववाद को लेकर वैचारिक समानता होने के बावजूद शिवसेना, भारतीय जनता पार्टी के इस जाल में उलझना नहीं चाहती। हां इतना ज़रूर है कि महाराष्ट्र में हिंदुत्ववादी मतों का बिखराव रोकने के उद्देश्य से समय-समय पर विधानसभा व लोकसभा चुनावों के समय केवल भाजपा के साथ गठबंधन ज़रूर करती रहती है। यहां यह भी बताना ज़रूरी है कि कई बार शिवसेना ने भाजपा के साथ अपनी शर्तों पर चुनावी गठबंधन किया है भाजपा की शर्तों पर नहीं। गोया शिवसेना भाजपा को यह एहसास दिला पाने में लगभग सफल रही है कि महाराष्ट्र में भाजपा को तो शिवसेना की मदद की ज़रूरत पड़ सकती है परंतु शिवसेना भाजपा की मोहताज नहीं।वर्तमान समय में देश की राजनीति किस करवट बैठ रही है यह सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी बखूबी देख रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि उग्र,आक्रामक तथा क्षेत्रवादी मराठा राजनीति करने के बाद उनका राष्ट्रीय जनाधार बना पाना आसान काम नहीं है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश व बिहार के मेहनतकश लोगों के साथ शिवसेना के कार्यकर्ता समय-समय पर किस निर्दयता से पेश आते हैं यह भी किसी से छुपा नहीं है। ठाकरे यह भी देख रहे हें कि जीएसटी,नोटबंदी ,मंहगाई,डीज़ल-पैट्रोल की कीमतों में हो रही बेतहाशा वृद्धि, डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन तथा बहुचर्चित राफेल विमान घोटाला जैसे अनेक विषय 2019 में होने वाले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। ऐसे में शिवसेना स्वयं को भाजपा से अलग करने के ‘लाभदायक बहाने’ तलाश करने में लगी है। ज़ाहिर है स्वयं को राम मंदिर के निर्माण में सबसे अग्रणी बताना व इसके लिए सबसे गंभीर व व्याकुल दिखाई देना भी ठाकरे को इस समय फायदे का सौदा महसूस हो रहा है। ठाकरे यह भी सोच रहे हैं कि उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे देश के दो बड़े राज्य जो केंद्रीय सत्ता के निर्माण में अपनी सबसे महत्वूपर्ण भूमिका अदा करते हैं इन राज्यों के लोग ठाकरे परिवार व शिवसेना की उत्तर भारतीय विरोधी सोच से चूंकि पूरी तरह से वाकिफ हैं इसलिए वे आसानी से शिवसेना के झांसे में नहीं आने वाले। लिहाज़ा ले-देकर भगवान राम के नाम का ही एक ऐसा सहारा है जो शिवसेना का न केवल बेड़ा पार लगा सकता है बल्कि राम मंदिर निर्माण की रेस में सबसे आगे दिखाई देने की वजह से ऐसी राजनैतिक परिस्थिति भी पैदा कर सकता है कि भविष्य में वे महाराष्ट्र में भाजपा को साथ लिए बिना चुनाव मैदान में जा सकें। इतना ही नहीं उद्धव ठाकरे भगवान राम के परम हितैषी बनकर महाराष्ट्र से बाहर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं।राम मंदिर निर्माण के सिलसिले में चल रही गहमा-गहमी के बीच इस समय कई प्रकार के मत-विचार,राजनैतिक हलचल व उठा-पटक देखी जा रही है। ठाकरे को यदि मंदिर निर्माण की तिथि जानने की जल्दी है तो मंदिर निर्माण का पक्षधर एक बड़ा वर्ग इस संबंध में संसद में विशेष बिल लाए जाने की बात कर रहा है। बौद्ध समाज के लोगों द्वारा भी इस विवाद में कूदने की खबर है। वे भी इस स्थान पर अपना अधिकार बता रहे हैं। एक पक्ष ऐसा भी है जो यहां भव्य राम महल बनाए जाने की पैरवी कर रहा है तो इन सबसे अलग अपना राग अलापते हुए प्रदेश के मु यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या में भगवान राम की देश की सबसे ऊंची प्रतिमा लगाने की घोषणा कर चुके हैं। यह और बात है कि अनेक स मानित संतों द्वारा योगी की इस घोषणा का यह कहते हुए विरोध किया जा रहा है कि भगवान राम की प्रतिमा खुले आसमान के नीचे स्थापित करना भगवान का अपमान करना है तथा नेताओं की तरह उनकी मूर्ति लगाना धर्म व शास्त्र स मत हरगिज़ नहीं। परंतु चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदाद पटेल की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा नर्मदा में स्थापित करवाकर भाजपा नेताओं में अपना कद सबसे ऊंचा करने का प्रयास किया है लिहाज़ा उसी प्रतिस्पर्धा में शामिल होते हुए योगी भी भगवान राम की देश की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित करा कर स्वयं को देश का सबसे बड़ा राम भक्त जताना चाह रहे हैं। योगी का यह दांव भविष्य में नरेंद्र मोदी से होने वाली उनकी प्रतिस्पर्धा में भी योगी के लिए लाभदायक साबित हो सकता है।एक ओर तो भगवान राम के तथाकथित राजनैतिक रामभक्तों में सबसे बड़ा भक्त होने की होड़ लगी हुई है तो दूसरी ओर देश की आम जनता इन स्वयंभू रामभक्तों के वास्तविक चेहरे को भलीभांति पहचान चुकी है। यही वजह है कि गत् 25 नवंबर को अयोध्या में आम लोगों का हुजूम लगभग न के बराबर था। 25 नवंबर को अयोध्या चलो के पोस्टर व  लैक्स लगभग पूरे लखनऊ में तथा प्रदेश के अधिकांश जि़लों में लगाए गए थे। ऐसी अनेक धर्मसभाएं आयोजित की गई थीं जिसमें 25 नवंबर को अयोध्या चलने का आह्वान किया गया था। उद्धव ठाकरे की अयोध्या यात्रा के साथ ही साथ विश्व हिंदू परिषद् भी एक बड़ा समागम आयोजित कर रही थी। परंतु स्वैच्छिक रामभक्तों ने अयोध्या की ओर कूच नहीं किया। जिस अयोध्या नगरी को भारतीय टीवी चैनल अल्पसंख्यको के लिए असुरक्षित बता रहे थे यहां तक कि कईअल्पसंख्यको परिवार भय के मारे अयोध्या छोडक़र चले गए थे वहां पूरी तरह से शांति रही। इस प्रकार का वातावरण यह समझ पाने के लिए काफी है कि भले ही राजनेता जनता के समक्ष स्वयं को सबसे बड़ा रामभक्त प्रमाणित करने की लाख कोशिशें करें परंतु देश की जनता अब भावनाओं में बहकर उनके झांसे में हरगिज़ नहीं आने वाली।

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