गायत्री महामंत्र का महत्व

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मनमोहन कुमार आर्य

वेदों में गायत्री  मंत्र के नाम से एक मंत्र आता है जो निम्न है। इसे गायत्री मंत्र इस लिये कहते हैं कि इसे गाया जाता है और यह मंत्र गायत्री छन्द निबद्ध है। इसे गुरू मंत्र भी कहते हैं। इस कारण कि गुरुकुल में प्रवेश करते समय आचार्य अपने ब्रह्मचारी को प्रथम वार इसी वेद मंत्र का अर्थ सहित ज्ञान कराते हैं व इसके जप इससे ईश्वर उपासना की प्रेरणा करते हैं।

 

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रयोदयात्।।

 

इस मंत्र का अर्थ ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में किया है। उन्होंने कहा है कि ओ३म् ईश्वर का सर्वोत्तम नाम है। यह ईश्वर का निज नाम है और मुख्य नाम भी उसका यही है। ईश्वर के इस एक नाम में ईश्वर के अनेक नाम आ जाते हैं। वह लिखते हैं कि ओ३म्, यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक ओ३म् समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि। ओ३म् शब्द इन नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं। यह ईश्वर के ओ३म् नाम की संक्षिप्त व्याख्या है। मन्त्र में तीन महाव्याहृतियां हैं। इनका संक्षिप्त अर्थ है कि जो सब जगत् के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों अर्थ तैत्तिरीय आरण्यक के वचनों के अनुसार किये हैं।

 

मन्त्र में ‘सवितुः’ शब्द आया है। इसका अर्थ है कि जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है। ‘देवस्य’ शब्द भी मन्त्र में है जिसका अर्थ है कि जो सर्व-सुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो ‘वरेण्यम’ स्वीकार करने, ग्रहण व धारण करने योग्य स्वरूप है ‘तत्त्’ उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग ‘धीमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिए उस परमात्मा के स्वरूप को हम लोग धारण करें, इसलिए कि जो सविता देव परमात्मा ‘नः’ हमारी ‘धियः’ बुद्धियों को ‘प्रचोदयात्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।

 

यह गायत्री मंत्र अपना महत्व स्वयं बता रहा है। इस मंत्र में ईश्वर से धन व वैभव की प्रार्थना नहीं की गई है और न ही अच्छे भोजन व वस्त्र आदि को मांगा गया है। शरीर युवा रहकर अमर होने का वरदान भी नहीं मांगा गया है। यह भी नहीं कहा गया है कि मैं कोई चुनाव जीत जांऊं या मेरी कोई लाटरी लग जाये, विवाह या बच्चे प्राप्त हों, अपितु बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा करने को इस संसार के स्वामी सर्वव्यापक ईश्वर से प्रार्थना की गई है। यदि हमारी बुद्धि श्रेष्ठ होगी और उसे ईश्वर की प्रेरणा प्राप्त होगी तो मनुष्य के जीवन का कल्याण ही कल्याण है। वह ज्ञान सम्पन्न होगा। ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति अपने शरीर को निरोग व स्वस्थ भी रख सकता है। वह न केवल अपना अपितु दूसरों का कल्याण भी कर सकता है। ऐसा व्यक्ति अपने देश की उन्नति व उसे पराधीनता आदि द्वन्दों व कष्टों किंवा दुःखों से बचा कर उसे व उसकी प्रजाओं को धर्म का आचरण करा कर उन्हें पवित्र अर्थ, काम व मोक्ष की ओर ले जा सकता है व प्राप्त करा सकता है। अतः हमें प्रतिदिन प्रातः व सायं सन्ध्या व अग्निहोत्र तो करना ही चाहिये अपितु इसके साथ कुछ समय गायत्री  मंत्र का अर्थ सहित जप भी करना चाहिये। सर्वव्यापक ईश्वर हमारे हृदय सहित हमारी आत्मा के भीतर व बाहर विद्यमान हैं। वह हमारी प्रत्येक प्रार्थना को सुनते हैं और हमारी पात्रता के अनुसार उसे पूरा करते हैं। पात्रता आत्मा की शुद्धता, निर्मलता व सदाचरण से ही प्राप्त होती है। इसके लिए हमें विद्यार्जन करना भी आवश्यक है। हम यदि  ईश्वर के भक्त व उपासक ज्ञानी सज्जनों की संगति करेंगे तो हमारी अविद्या व अज्ञान अवश्य दूर हो सकता है।

 

हमने सुना, देखा व अनुभव किया है कि यदि कोई मनुष्य केवल काम चलाऊ हिन्दी पढ़ना जानता है तो वह ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश व अन्य सभी ग्रन्थों, वेदभाष्य एवं वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन कर एक ऊंचा विद्वान बन सकता है। हमारे एक मित्र जिनसे प्रभावित होकर हम आर्यसमाज के सदस्य बने वह संस्कृत के विद्वान नहीं थे परन्तु वह ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थों का स्वाध्याय करते थे, उनका शरीर पुष्ट एवं आकर्षक था। वह प्रभावशाली वक्ता थे। देश भर में आर्यसमाजों के उत्सवों व अन्य कार्यक्रमों में वह प्रचार व व्याख्यान के लिये जाते थे। सन्ध्या एवं योग के साधनों में भी उनकी रूचि थी। हम जब उनके विचार सुनते थे और वह हमें प्रेरणा करते थे तो हम भी अध्यात्म व आचरण संबंधी वेद चिषयक पुस्तकों को लेकर पढ़ते रहते थे। हमें लगता है कि इन सबसे हमें लाभ हुआ है। सत्यार्थप्रकाश, वेद विषयक ग्रन्थों व विद्वानों के प्रवचन आदि सुनकर हमें मनुष्य जीवन के उद्देश्य, लक्ष्य व उनकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी हुआ है। मनुष्य को अपने उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान हो जाये वा उसे प्रशिक्षक मिल जाये तो इससे अधिक महत्व और किस वस्तु का हो सकता है? नहीं हो सकता है। जीवन भर अच्छे व अवैध तरीकों से केवल धन कमाना ही मनुष्य का मुख्य कर्तव्य नहीं है। आवश्यकतानुसार मनुष्य के पास धन होना चाहिये। अधिक मात्र में धन हो तो दान करना चाहिये अन्यथा चाणक्य जी के अनुसार यह मनुष्य का नाश कर डालता है। धन की तीन गति भोग, दान व नाश ही हैं।

 

ईश्वर व आत्मा को जानना, सदाचरण, वेदाध्ययन व स्वाध्याय आदि करके व क्रियात्मक योग के द्वारा ईश्वर की निकटता को प्राप्त कर उसका साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। हम यदि सत्य मार्ग पर चल रहे हैं तो लक्ष्य या मंजिल कितनी भी दूर क्यों न हो, हम यदि एक कदम भी सही दिशा में बढ़ाते है ंतो लक्ष्य से हमारी दूरी कुछ कम होती है। हमें ईश्वर व हमारे बीच की जो दूरी है उसे सन्ध्या, यज्ञ, स्वाध्याय, परोपकार व परसेवा आदि कार्यां से कम करना है अथवा उसे दूर करना है। यह काम केवल मनुष्य जीवन में ही हो सकता है। सौभाग्य से हमें मनुष्य जीवन मिला हुआ है। हम ईश्वर प्राप्ति के साधन कर सकते हैं। हम अपने मन से स्वार्थ आदि की भावनाओं को दूर कर दूसरों के हित के लिए कार्य करें और साथ ही अपनी आत्मा की उन्नति हेतु स्वाध्याय, साधना व सदाचरण करते रहें, इसी से हमें लाभ होगा। गायत्री मन्त्र हमें आत्मा की उन्नति, ईश्वर प्राप्ति, आत्म-शान्ति व सुख प्रदान करता है। अतः गायत्री मंत्र की महिमा निर्विवाद है। संसार की किसी भी पुस्तक का कोई भी विचार व कथन गायत्री मंत्र की तुलना में इससे अधिक ऊंचा नहीं है। मनुष्यमात्र को गायत्री मंत्र का अर्थ सहित उच्चारण कर, उसका चिन्तन व मनन करते हुए अपने आचरण को सुधारना चाहिये। इससे हमारा यह जन्म, परजन्म व उसके बाद के अनेक व सभी जन्म सुधरेंगे। हमें सुख व शान्ति मिलेगी। ज्ञान वृद्धि व आर्थिक समृद्धि भी हमें प्राप्त होगी।

 

हम स्वयं भी गायत्री मंत्र से जुडे रहें व अपनी सभी सन्तानों को जन्म से ही गायत्री मंत्र के अर्थ सहित जप की प्रेरणा करें तो उन्हें भी इसका लाभ जीवन भर प्राप्त होगा। हमने स्वर सामग्री कही जाने वाली लता मुंगेश्वर जी के एक साक्षात्कार में उनके मुख से सुना था कि उनके पिता उनकी सभी बहनों को गायत्री मंत्र सुनाते व उसका अभ्यास कराते थे। बचपन उन्होंने गायत्री मंत्र की साधना की थी। अपनी सफलता में वह गायत्री मंत्र को सर्वाधिक महत्व देती हैं। यह तो एक साधारण उदाहरण हैं। हमारे एक शीर्ष विद्वान महात्मा आनन्द स्वामी भी बचपन में मूढ़ बुद्धि के थे। स्कूल में फेल होते रहते थे। परिवार के सभी लोग उनसे अप्रसन्न थे और उनकी ताड़ना करते थे। कुछ समय बाद स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने गायत्री मंत्र की साधना आरम्भ की। अब फेल होने वाला यह बालक अपनी कक्षा में प्रथम आने लगा। भविष्य में वह एक सफल व्यवसायी, समृद्ध व सुखी मनुष्य बनने के साथ वैदिक विद्वान महात्मा बने। उन्हीं का स्मारक देहरादून का वैदिक साधन आश्रम तपोवन है जहां आकर वह महीनों तक एकान्त साधना करते थे। उस समय यहां वन में न जल था न विद्युत, दूरभाष के संकेत तो आज भी ठीक से नहीं आते। वन्य जन्तुओं के खतरों की परवाह किये बिना उन्होंने यहां साधना की थी और सफल हुए। आज भी उनका यश है। आजकल स्वामी चित्तेश्वरानन्द भी इसी प्रकार से एकान्त साधना करते व कराते हैं। वह चतुर्वेद पारायण यज्ञ भी करते व कराते हैं। आर्यसमाज में उनकी भी ख्याति व सम्मान है। ऐसे अनेक उदाहरण आर्यसमाज में हैं। गायत्री मन्त्र के महत्सव के कारण ईश्वर के साक्षात्कर्ता सभी ऋषि व विद्वान गहन ज्ञान के आधार पर गायत्री मन्त्र की साधना का उपदेश देते हैं। हमें अपनी आत्मिक, शारीरिक व सामाजिक उन्नति के लिए अवश्य ही गायत्री मंत्र का अर्थ सहित जप करते हुए नित्य प्रति साधना करनी चाहिये।

-मनमोहन कुमार आर्य

 

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