“ऋषि दयानन्द का वर्ण व्यवस्था पर महत्वपूर्ण उपदेश”

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मनमोहन कुमार आर्य,

ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वर्ण व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाला है और वेदानुकूल ग्रन्थों के बुद्धि व तर्क संगत प्रमाण भी दिये हैं। हम यहां सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास से उनके कुछ विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि जो शूद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय, वैसे ही ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पन्न हुआ हो और उस के गुण, कर्म, स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाय। वैसे क्षत्रिय, वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण वा शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता हो जाता है। अर्थात् चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो वह-वह उसी वर्ण में गिनी जाये। अपनी इस मान्यता को ऋषि दयानन्द ने मनुस्मृति के श्लोक शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। से पुष्ट किया है।

 

ऋषि दयानन्द आपस्तम्ब सूत्र ग्रन्थों के निम्न प्रमाण भी प्रस्तुत प्रस्तुत करते हैंः

 

धर्मचर्य्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ।।1।। 

            अधर्मचर्य्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्यं वर्णामापद्यते जातिपरिवृत्तौ।।2।।

 

इनका अर्थ करते हुए ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाये कि जिस-जिस के योग्य होवे। 1।।

 

वैसे अधर्माचरण से उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जावे।।2।।

 

जैसे पुरुष जिस-जिस वर्ण के योग्य होता है वैसे ही स्त्रियों की व्यवस्था समझनी चाहिये। इससे क्या सिद्ध हुआ कि इस प्रकार होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभावयुक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं। अर्थात् ब्राह्मणकुल में कोई क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सदृश न रहे। और क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण भी शुद्ध रहते हैं। अर्थात् वर्णसंकरता प्राप्त न होगी। इस से किसी वर्ण की निन्दा व अयोग्यता भी न होगी।

 

यह गुण व कर्मों से वर्णों की व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें वर्ष और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिये। और इसी क्रम से अर्थात् बाह्मण वर्ण का ब्राह्मणी, क्षत्रिय वर्ण का क्षत्रिया, वैश्य वर्ण का वैश्या और शूद्र वर्ण का शूद्रा के साथ विवाह होना चाहिये। तभी अपने-अपने वर्णों के कर्म और परस्पर प्रीति भी यथायोग्य रहेगी। इन चारों वर्णों के कर्तव्य कर्म और गुण ये हैं-

 

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

            दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।1।।

            शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

            ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्मस्वभावजम्।।2।।भगवद् गीता।।                        

 

ब्राह्मण के पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना कराना, दान देना, लेना ये छः कर्म हैं परन्तु प्रतिग्रहः प्रत्यवरः (मनुस्मृति) अर्थात् प्रतिग्रह लेना नीच कर्म है।।1।। (शमः) मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी और उस को अधर्म्म में कभी प्रवृत्त न होने देना, (दमः) श्रोत्र और चक्षु आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोक कर धर्म्म में चलाना, (तपः) सदा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना। (शौच)-

 

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्ञानेन शुध्यति।।मनुस्मृति।।

 

जल से बाहर के अंग, सत्याचार से मन, विद्या और धर्मानुष्ठान से जीवात्मा और ज्ञान से बुद्धि पवित्र होती है। भीतर के राग, द्वेषादि दोष और बाहर के मलों को दूर कर शुद्ध रहना अर्थात् सत्यासत्य के विवेकपूर्वक सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से निश्चय पवित्र होता है। (क्षान्ति) अर्थात् निन्दा स्तुति, सुख दुःख, शीतोष्ण, क्षुधा तृषा, हानि लाभ, मानापमान आदि हर्ष शोक, छोड़ के धर्म्म में दृढ़ निश्चय रहना। (आर्जव) कोमलता, निरभिमान, सरलता, सरलस्वभाव रखना, कुटिलतादि दोष छोड़ देना। (ज्ञानम्) सब वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़ने पढ़ाने का सामर्थ्य, विवेक सत्य का निर्णय जो वस्तु जैसा हो अर्थात् जड़ को जड़ चेतन को चेतन जानना और मानना। (विज्ञान) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को विशेषता से जानकर उन से यथायोग्य उपयोग लेना। (आस्तिक्य) कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व जन्म, धर्म, विद्या, सत्संग, माता, पिता, आचार्य और अतिथियों की सेवा को न छोड़ना और निन्दा कभी न करना। ये पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिये।।2।। क्षत्रिय

 

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।1।।मनुस्मृति।।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।2।। भगवद्गीता।।

 

न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़ के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना सब प्रकार से सब का पालन, (दान) विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना, (अध्ययन) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़ाना और विषयों में न फंस कर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना।।1।।

 

(शौर्य) सैकड़ों सहस्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना। (तेजः) सदा तेजस्वी अर्थात् दीनतारहित प्रगल्भ दृढ़ रहना। (धृति) धैर्यवान् होकर (दाक्ष्य) राजा और प्रजा संबंधी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना। (युद्धे) युद्ध में भी दृढ़ निःशंक रहके उस से कभी न हटना न भागना अर्थात् इस प्रकार से लड़ना कि जिस से निश्चित विजय होवे, आप बचे, जो भागने से वा शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती हो तो ऐसा ही करना। (दान) दानशीलता रखना। (ईश्वरभाव) पक्षपातरहित होके सब के साथ यथायोग्य वर्त्तना, प्रतिज्ञा पूरा करना, उस को कभी भंग होने न देना। ये ग्यारह क्षत्रिय के गुण हैं।।2।। वैश्य-

 

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदं वैश्यस्य कृषिमेव च।।मनुस्मृति।।  

 

(पशुरक्षा) गाय आदि पशुओं का पालन-वर्द्धन करना (दान) विद्या धर्म की वृद्धि करने कराने के लिये धनादि का व्यय करना (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना (अध्ययन) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना (वाणक्पथ) सब प्रकार के व्यापार करना (कुसीद) एक सैकड़े में चार, छः, आठ, बारह, सोलह, वा बीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रुपया दिया तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना और न देना (कृषि) खेती करना। ये वैश्य के गुण कर्म हैं। शूद्र-

 

एकमेव हि शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया।।मनुस्मृति।।

 

शूद्र को योग्य है निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़ के बाह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा यथावत् करना और उसी से अपना जीवन-यापन करना। यही एक शूद्र का कर्म गुण हैं।

 

ये संक्षेप से वर्णों के गुण और कर्म लिखे। जिस-जिस पुरुष में जिस-जिस वर्ण के गुण कर्म हों उस-उस का अधिकार देना। ऐसी व्यवस्था रखने से सब मनुष्य उन्नतिशील हो हैं। क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि जो हमारे सन्तान मूर्खत्वादि दोषयुक्त होंगे तो शूद्र हो जायेंगे और सन्तान भी डरते रहेंगे कि जो हम उक्त चालचलन और विद्यायुक्त न होंगे तो शूद्र होना पड़ेगा और नीच वर्णों को उत्तम वर्णस्थ होने के लिए उत्साह बढ़ेगा।

 

वर्णव्यवस्था विषयक विचारों का उपसंहार करते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं कि विद्या और धर्म के प्रचार का अधिकार ब्राह्मण को देना क्योंकि वे पूर्ण विद्यावान् और धार्मिक होने से उस काम को यथायोग्य कर सकते हैं। क्षत्रिय को राज्य के अधिकार देने से कभी राज्य की हानि वा विघ्न नहीं होता। पशुपालनादि का अधिकार वैश्यों ही को होना योग्य है क्योंकि वे इस काम को अच्छे प्रकार कर सकते हैं। शूद्र को सेवा का अधिकार इसलिये है कि वह विद्या रहित मूर्ख होने से विज्ञान सम्बन्ष्धी काम कुछ भी नहीं कर सकता किन्तु शरीर के काम सब कर सकता है। इस प्रकार वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजा आदि सभ्य जनों का काम है।

 

हम आशा करते हैं कि ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में उपर्युक्त उपदेश से हमारे बहुत से मित्रों की वर्णव्यवस्था विषयक भ्रान्ति दूर होगी। यदि हमारे दलित बन्धु भी ऋषि दयानन्द के उपर्युक्त विचारों को पढ़ेंगे तो उन्हें भी लाभ होगा और वह भी अपनी भ्रान्तियों को दूर कर सकेंगे और वैदिक धर्म के शत्रुओं के बहकाने से बच सकेंगे।

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