महिला आंदोलन की आयातित शब्दावली – मधु किश्‍वर

किसी भी सामाजिक मर्ज की दवा करने के लिए उस समाज की नब्ज को ढंग से पकड़ना पड़ता है। किसी डॉक्टर की चाहे नीयत जितनी भी अच्छी हो लेकिन मान लीजिए वह किसी पीलिया के मर्ज को निमोनिया मानकर इलाज शुरू कर दे तो जाहिर है, ऐसे मरीज का बेड़ा गर्क ही होगा। या फिर वह ऐसे थर्मामीटर का इस्तेमाल करे जो सौ डिग्री के बुखार को एक सौ पांच कह दे, यह भी ठीक नहीं होगा। कहने का मतलब बीमारी के मुताबिक इलाज हो। हमारे समाज में औरत को कई रूपों में देखा जाता है। उसके लिए जो भोग की वस्तु की शब्दावली आई है, वह तो इसका एक हिस्सा मात्र है। दूसरी ओर इसमें कोई दो राय नहीं कि इसी समाज में औरत को देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। इसी समाज में मां का दर्जा भगवान से ऊंचा माना जाता है। इसी समाज में भाई-बहन के रिश्ते को बड़ी अनोखी मान्यता मिली है। मुझे नहीं पता कि किसी अन्य समाज में रक्षा का बंधन या भाई-बहन के संबंधों को इतनी उत्कृष्ट मान्यता है, जितनी हमारे समाज में मिली। यह भी हो सकता है, वही भाई अपनी बहन को पिता की संपत्ति में हक न लेने दे लेकिन इसमें दोनों सही हैं। कहने का आशय यह कि समाज में केवल औरत भोग की वस्तु है, अगर ऐसा होता तो आज सारे घर टूट चुके होते और सारी औरतें सरे बाजार बैठी होती।

जरूरत है, अच्छाइयों की बातें भी करने की

समस्या यह है कि हमारे यहां जो नारी आंदोलन की शब्दावली है वह बहुत ही ‘इम्पोर्टेड’ भाषा में बात करती है। जो समाज में अच्छाइयां हैं, उनकी तो बात ही नहीं करनी उन्हें। सिर्फ बुराइयों की चर्चा होती है। ऐसे लोगों के लिए मुझे यही कहना है कि मेरी मां कहा करती थी कि कितना भी साफ-सुथरा कमरा हो पर जिस कोने में थोड़ी-सी भी गंध होगी मक्खी वहीं जाकर बैठती है। तो हमें सभी चीजों को साथ देखते हुए चलना होगा क्योंकि समाज की कमजोरियां दूर करने के लिए यह जरूरी है। एक बात यह भी समझनी होगी कि हमारे खिलाफ बाहरी शासकों (अंग्रेजों) ने सामाजिक-सांस्कृतिक जंग छेड़ा था कि हिन्दुस्तानी हर चीज में निकृष्ट हैं, वह गलीज व असभ्य कौम है। एक बाहरी शासक का शासितों के प्रति ऐसा रवैया होता ही है। उसका मकसद शासित समाज के स्वाभिमान को कुचलना है। कुचले स्वाभिमान वाले समाज में स्वयं सुधार की मौजूद अंदरूनी शक्ति खत्म होने लगती है। वह खुद से नफरत करने लगता है। ऐसे समाज वाली कौमें हमेशा तबाही के रास्ते पर चल पड़ती हैं। यह रवैया गलत है। अगर आपको समाज को सुधारना है तो उस जमीन पर खड़े होइए जो मजबूत है। दलदल में खड़े होकर आप सुधार नहीं कर सकते। हमारे समाज में बहुत-सी स्वस्थ ताकतें हैं। किसी बीमार आदमी को केवल एंटीबायोटिक दवा ही देंगे, उसे पौष्टिक आहार नहीं देंगे तो वह मर जाएगा क्योंकि एंटीबायोटिक उसके शरीर में मौजूद अंदर की खुद से लड़ने की ताकत खत्म कर देगा। तो हम वही कर रहे हैं कि हर वक्त अपने मुंह पर खुद थूक कर, अपने मुंह पर वही कालिख पोत कर। जो अंग्रेज हमारे मुंह पर पोतते रहे हैं और आज भी पश्चिमी देश पोतना चाहते हैं। अब हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने चेहरे पर इंपोर्टेड कालिख न पोतें। वही लांछन लगे जिसके हम हकदार हैं।

मां का दर्जा और भाई-बहन का प्रेम; अनोखी बातें

हमारे समाज में बहुत-सी अनोखी बातें हैं। उनको सामने लाइए। देखिए कि इसमें दो बातें तो बहुत ही अद्भुत हैं। एक तो मां का दर्जा। दूसरा स्त्री को शक्तिस्वरूपा मानना। सभी देवताओं से देवियों का स्थान ऊंचा है। राम, कृष्ण से कोई डरे न डरे लेकिन दुर्गा, काली से डरता है। देवी मां का रौद्र रूप, क्रोध झेलने की ताकत किसी में नहीं, देवताओं में भी नहीं। उनके क्रोध से पृथ्वी हिल जाती है। तो यह रूप हर औरत में है और यह समाज उसे पहचानता है। कोई भी औरत मजबूत होकर खड़ी होती है तो उसे यह समाज सिर आंखों पर उठा लेता है। यह हमारे समाज की एक बड़ी विशिष्टता है। नारी को भोग की वस्तु समझने का चलन भी है। यहां पोर्नोग्राफी आई है। ऐसी बहुत-सी घटिया बीमारियां हमने विदेशों से ली हैं। पश्चिमी देशों से पोर्नोग्राफी का कल्चर आया है। बहरहाल, कुछ विकृतियां घरेलू हैं तो कुछ पश्चिम की गुलामी का असर है। लेकिन इसी के साथ अपनी अंदरूनी मजबूतियां भी हैं जो हमारी विशिष्टता हैं। उनको पहचान लेंगे तो विकृतियों से लड़ पाएंगे। हर वक्त लानत देना कि भारत गंदा है, यहां औरतें सिर्फ पीटती हैं और उनका केवल शोषण होता है, ये सही नहीं हैं।

परम्परा का मतलब जाहिलपन ही नहीं है

कितने मुल्कों में आपने ऐसा आंदोलन देखा होगा कि नारी अस्मिता के लिए 70 फीसद से अधिक लड़के स्वेच्छा से शामिल हुए? ऐसा क्यों? कोई उन्हें बुलावा नहीं भेजा था। वे अपना ऋण चुकाने आगे आए। नारी को वस्तु मानने की जो विकृति है, उसका भी यदि हमें इलाज ढूंढना है तो अपने समाज की अंदरूनी शक्ति का इस्तेमाल करना होगा। समस्या यह है कि समाज के जो जोकर बन गए हैं उनको औरत की आजादी केवल पश्चिमी शब्दावली और पहनावे के साथ चाहिए। हमारे मुल्क में अच्छी-बुरी सभी परंपराओं को नकारने की प्रक्रिया चल पड़ी है। सारे जोकर यह स्थापित कर रहे हैं कि परंपरा का मतलब जाहिलपन है। यह खतरनाक है। इस मामले में मैं गाधी जी के उस वाक्य को चिराग की तरह मानती हूं कि ‘परंपराओं के सागर में तैरना बहुत अच्छा व स्वास्थ्यपरक है परंतु उसमें डूब जाना जानलेवा है।’

परिवार टूटा तो सरे बाजार नजर आएंगी महिलाएं

ऐसा तो है नहीं कि हम-आप सभी वहशी जानवर बन गए हैं। क्या आप बन गये हैं? अगर नहीं तो आपको क्यों लगता है कि बाकी सभी बन गए हैं? आखिर समाज हमसे-आपसे ही मिलकर बनता है। किसी को भी उतनी ही मात्रा में गाली देनी चाहिए जितनी कि वह खुद के ऊपर लागू होती है। आज परिवार जैसी संस्था को तोड़ने की प्रक्रिया चल रही है। परिवार है तो औरत की इज्जत है। परिवार टूटेंगे तो औरत वाकई सड़क पर खड़ी नजर आएगी। पश्चिमी देशों में केवल समानता की बात होती है लेकिन हमारे परिवार में औरत को विशिष्ट दर्जा देने की बात होती है। हमारे समाज में पुरु ष से कहीं ऊंचा दर्जा महिलाओं का है। बेटी का पैदा होना भी लक्ष्मी का आगमन माना जाता रहा है। हालांकि भ्रूण हत्याओं का चलन होने से भी इनकार नहीं है। स्त्रियों को मारना-पीटना भी एक स्थिति का पक्ष है लेकिन बेटियों का पूजन भी तो होता है। दोनों ही तथ्य सही हैं लेकिन हमें एक सच को नकारना नहीं चाहिए कि सिर्फ भ्रूण हत्या सही है, बाकी नहीं। यहां सम्मान के संस्कार भी हैं। हां, अगर वे दबे हैं तो उन्हें उभारना है। किन हालातों से वे दबे हैं, यह देखना है।

भोग-संस्कृति भी पश्चिम की दी हुई, जैसा मन वैसी दिखेगी स्त्री

भोग संस्कृति ज्यादातर भौंड़ी अंग्रेजीयत ने ही जितना माना है, उतना किसी ने नहीं। अपनी विकृतियों को झेलने और सुधारने की क्षमता सभी देश स्वयं रखते हैं पर जब अपनी विकृतियां नकलची बंदर की हैं तो आपको समझ नहीं आता कि इसको कैसे हटाएं। हमारा समाज भी आज नकलची बंदर बन गया है। इसलिए सुधारना मुश्किल हो रहा है। अजंता की गुफा या देश के किसी मंदिर में जाकर कोई छेड़खानी नहीं करता जहां चित्रों में औरतों के तन पर भीनी वेश-भूषा है। हमारे यहां कई ऐसे मंदिर हैं, जहां स्त्री-पुरु ष के रिश्ते और उनके शारीरिक सेक्स को भी पवित्र मान कर स्थान दिया गया। वहां जाकर तो कोई यौन हिंसा नहीं करता। किंतु किसी-किसी कंपनी के कैलेन्डर केवल यौन शोषण के लिए ही हैं। क्या फर्क है? शरीर तो दोनों औरत के दिख रहे हैं? इसका मतलब है कि हम जिस दृष्टि से औरत को देखते हैं, वैसा ही आचरण करते हैं। महत्त्वपूर्ण है कि हम उसको देवी, शक्ति, पूजनीय, ईरीय करिश्मा या प्रजनन स्रेत मानते हैं अथवा भोग की वस्तु? सवाल है कि कैलेन्डर कहां की उपज है? नकलची संस्कृति की ही तो उपज है।

कानून का इस्तेमाल आटे में नमक की तरह

आजकल हर समस्या के समाधान के लिए नया कानून पास करने की वकालत होती है। समाज को सुधारने के लिए कानून का इस्तेमाल वैसे ही होना चाहिए जैसे आटे में नमक। अगर इसका अनुपात उलटा कर दें तो खाने लायक न नमक न आटा। कानून पास करने से पहले यह सोचना होगा कि कानून का पालन करने वाली एजेंसियों का हश्र इस समाज में क्या है? आपकी पुलिस का अपराधीकरण ऐसा है कि थानों में क्राइम अधिक और बाहर कम है। देश का कोई कानून नहीं है, जिसका इस्तेमाल पुलिस धन उगाही के लिए न कर रही हो। अपराधियों को संरक्षण देना पुलिस का मुख्य काम हो गया है। थाने अपराधियों की मैनुफैक्चरिंग की फैक्ट्री बन गए हैं। इसका सबसे अच्छा प्रमाण यह है कि पुलिस थानों से जो गांव जितने दूर-दराज हैं, वहां कोई अपराध नहीं है। जहां लोगों ने पुलिस की शक्ल भी नहीं देखी है, वहां घर में ताले नहीं लगाने पड़ते। वहां जघन्य अपराध नहीं होते या नगण्य होते हैं। जिस शहर में जितनी पुलिस है और उसके करीब जितने गांव-बस्तियां हैं, उनमें उतना ही अपराध है। जहां भी अपराध बढ़ाना हो वहां पुलिस थाना बना दीजिए तुरंत फैक्ट्री चालू हो जाएगी। इसलिए सबसे पहले पुलिस को सुधारें उसके बाद ही कानून सुधारिए। हमारी अदालतों का भी हाल यही है। वहां ज्यादातर वकील लोगों को नोच लेते हैं। अपराधी और जज का सीधा ताल्लुक होना चाहिए। न्याय के साथ जब तक वकीलों की दलाली और मोहताजी जुड़ी रहेगी, कुछ नहीं होगा। हमारी सरकार को डेढ़ सौ साल बनाई गई अदालती प्रक्रियाओं को बदलने की गरज नहीं है। अदालतों में जन भाषा का कोई स्थान नहीं है। अंग्रेजों के स्पेलिंग मिस्टेक को ठीक करने तक की हिम्मत सरकार में नहीं है। जब आपको आजाद हिन्दुस्तान में प्रशासन चलाने की तहजीब ही नहीं आई तो फिर कानून पर कानून बनाते जाइए, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसे में यह सोचना होगा कि हर मर्ज की दवा कानून पास करना नहीं है। पहले कानून के रखवालों को उस लायक बनाना होगा। हमारी पुलिस और न्यायिक संस्थाएं दोनों ही जनतंत्र की अपेक्षाओं के लायक नहीं हैं। उसमें भारी सुधार की दरकार है। उसके बाद ही कोई कानूनी बदलाव पर सोचना चाहिए।

(सुश्री किश्‍वर से मुकेश मिश्र ने की बातचीत, राष्‍ट्रीय सहारा से साभार)

5 COMMENTS

  1. मधु किश्वरजी,

    लेख बहुत अच्छा लगा,… तथा लगा की… कोई तो है.. जो प्रगतिशील विचारधारा वाली महिला होकर भी, आज की पुरुसोहों व् नारियों के पश्चिमी चश्मे को गलत बता सकती हैं… वर्ना लग रहा था … की इस समाज में सिर्फ बुराइयाँ हैं और वो भी पुरुषो द्वारा दी हुई..

    आपने बिलकुल सही आकलन किया है समाज का….. हमें पश्चिम की नक़ल छोड़ अपने समाज की अच्छाइयों को पहचानते हुए अपने समाज की बुराई दूर करनी होंगी…

    इस अच्छे लेख के लिए धन्यवाद… और भविष्य में अन्य इसी प्रकार के लेखों का इंतजार रहेगा…

  2. उच्च संस्कृति रक्षक , भारत के परम कल्याण की दृष्टि से, मैं निम्न कहना चाहता हूँ।
    (१) अमरिका में युवा विवाह करता नहीं है। “वासना को ही प्रेम” समझा जाता है, उसकी पूर्ति डेटिंग में हो जाती है। युवा विवाह कर, सारी जिम्मेदारी क्यों ले? २०-२१ % जोडे ही,सगे बालकों के साथ रहते है।५४ % महिलाएं और ५०% पुरूष एक बार भी विवाह नहीं करते। तलाक ५० % होता है।
    (२) हमारा, सारा समाज समस्या के लिए प्रत्यक्ष, या अप्रत्यक्ष रीतिसे उत्तर दायी है।
    (३) कुछ घटक कॅटेलिटिक होते हैं। अप्रत्यक्ष। एक जिग-सॉ पज़ल की भाँति एक दूजे में अटके हुए। ठीक वैसे ही, दूरदर्शन,सिनेमा, कथा, कहानी, छायाचित्र, मॅगज़िन के कवर, वेश भूषा, भाषा,सारे ५ इंद्रियों पर होने वाले आघात जिम्मेदार है।
    (४) कुछ बडे विवेकी लोग बच जाते हैं, पर बाल मन पर परिणाम हुए बिना नहीं रहेगा।
    राम के उस आदर्श ने आज तक हमें बचाया है।
    (५) जिम्मेदार नेता और आध्यात्मिक गुरूओं को कौनसा वोट पाना है?
    वे आप को झूट क्यों बताएंगे? उन्हें तो नोबेल प्राइज़ भी नहीं चाहिए।
    (६) बिका हुआ, मिडिया बडा चोर है।
    पढने के लिए धन्यवाद।

  3. …स्लाट वाक निकालने लगते हैं. ये भारतीय तरीका नहीं है.आज हमारी बहनें और बेटियां हर वो काम करने की योग्यता व क्षमता रखती हैं जो दुनिया की कहीं की भी महिलाएं कर सकती हैं.आत्म विश्वास के साथ आगे बढ़ें. लेकिन ये न भूलें की ” ईस्ट इज ईस्ट, एंड वेस्ट इज वेस्ट, द ट्वेन शेल नेवर मीट”.

  4. मधु किश्वर जी एक ऐसा नाम है जो आधुनिक लेखिकाओं में प्रगतिशील धरा के साथ जोड़ा जाता रहा है. लेकिन ये लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.वास्तव में समस्या यही है की हम अपने समाज की कमजोरियों के बारे में चर्चा करते समय उसकी ताकत की चर्चा नहीं करते बल्कि समाज को पश्चिमी चश्मे से पढना शुरू कर देते हैं.हमारे समाज में ये जो एक संस्था है न, परिवार, ये हमारे समाज की सबसे बड़ी ताकत है. पश्चिमी समाज में समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है जबकि हमारे तयः समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है. दुनिया के अनेकों विश्वविद्यालयों में इस बात को लेकर अध्ययन हो रहे हैं की आखिर इस परिवार नामकी संस्था का विकास कैसे हुआ और इस की ताकत का क्या रहस्य है.पश्चिम में परिवार एक घेर है जो व्यक्ति को घेरता है और व्यक्ति उस घेरे का केंद्र है जबकि हमारे यहाँ ये घेर न होकर सर्पिल या अंग्रेजी में कहें तो स्पयिरल है. जो व्यक्ति से प्रारंभ होता है लेकिन व्यक्ति को जोड़ते हुए उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है. परिवार से ऊपर उठकर ये स्पयिरल बढ़त जाता है और अंत में अनंत की और बढ़ते हुए पिंड से ब्रह्माण्ड तक जुड़ जाते हैं.जबकि पश्चिमी मोडल में घेरे बढ़ते जाते हैं और एक दुसरे को घेरते चले जाते हैं लेकिन कोई भी घेर पहले वाले घेरे को जोड़ता नहीं है. कंसेंट्रिक सर्किल. इसी कारन से हमारे समाज में अपनी बुराईयों को दूर करने की एक अन्तर्निहित शक्ति (इनबिल्ट मेकेनिज्म) है.लेकिन पश्चिमी चश्मा लगते ही फिर समस्या का हल सही परिप्रेक्ष की बजाय कहीं और भटक जाता है. इसीलिए कुछ लोग कुछ मयादाओं के विरोध में ‘पिंक चड्ढी’ या ‘slt

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