इमरान अब बनें सारे दक्षिण एशिया के कप्तान

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

कई दशकों बाद पाकिस्तान में एक ऐसी सरकार आई है, जो न तो पीपल्स पार्टी की है और न ही मुस्लिम लीग की है। न यह भुट्टो-परिवार की है और न ही नवाज़ शरीफ की है। यह सरकार न ही किसी जनरल अयूब या जनरल जिया-उल हक या जनरल मुशर्रफ की है। यह सरकार तहरीके-इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान की है। उस प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान की है, जो कई बार भारत आ चुका है और जिसके दर्जनों दोस्त भारत में फैले हुए हैं। इमरान ने चुनाव जीतते ही जो बयान दिया, मुझे याद नहीं पड़ता कि पाकिस्तान के किसी अन्य नेता ने आज तक वैसा बयान दिया है। भारत यदि एक कदम बढ़ाएगा तो संबंध सुधारने के लिए हम दो बढ़ाएंगे।

इसके बावजूद जरा सोचें कि हम लोग क्या कर रहे हैं ? हमारा मीडिया और हमारे दो प्रमुख राजनीतिक दल एक अ-मुद्दे को मुद्दा बनाए हुए हैं। उन्होंने तिल को ताड़ बना दिया है। बात का बतंगड़ कर दिया है। नवजोत सिद्धू क्या है ? एक खिलाड़ी है। आजकल वह प्रांतों के सैकड़ों मंत्रियों में से एक मंत्री है। वह 12 साल तक भाजपा के सांसद रहे हैं। इमरान के व्यक्तिगत मित्र होने के नाते वे उनके शपथ समारोह में भाग लेने पाकिस्तान गए जैसे नरेंद्र मोदी ने अपनी शपथ के समय मियां नवाज़ शरीफ को बुलाया था। शरीफ और मोदी का आपस में परिचय तक नहीं था। जहां तक पाकिस्तानी सेनापति कमर बाजवा और सिद्धू की गल-मिलव्वल का सवाल है, मैं इसे अतिवाद मानता हूं लेकिन सिद्धू ने अपने पुराने नेताजी की नकल मारी है। भाजपा और कांग्रेस के लिए मोदी और इमरान तो हाशिए में चले गए और उन्होंने सिद्धू को अपने सिर पर बिठा लिया है।

दोनों पार्टियां पटरी से उतर रही हैं। लेकिन दोनों देशों की सरकारें पटरी पर ही चलने की कोशिश कर रही हैं। देखिए, हमारे प्रधानमंत्री मोदी ने इमरान को फोन करके बधाई दी। अपने आप दी। शपथ के बाद उन्होंने चिट्ठी लिखी। चिट्ठी में भी कोई कटु बात नहीं लिखी। दोनों देशों के संबंध सुधारने के लिए उन्हें इमरान से क्या-क्या उम्मीदें हैं, यह लिखा। हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी को सद्भावनापूर्ण पत्र लिखा। उधर कुरैशी ने जो बयान दिया, उसमें भारत-पाक संबंधों को सुधारने पर जोर दिया गया। उन्होंने कश्मीर और परमाणु-शक्ति का हवाला जरुर दिया लेकिन उनका जोर इसी बात पर था कि दोनों देशों के संबंधों में नए अध्याय की शुरुआत होनी चाहिए। हो सकता है, सुषमा और कुरैशी की सितंबर में भेंट हो जाए। दोनों संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में भाग लेने के लिए सितंबर में न्यूयार्क में रहेंगे।

सिद्धू के गल-मिलव्वल विवाद को हमारे टीवी चैनलों ने इतना उछाला कि दिल को छू-लेनेवाले जिस तथ्य पर भारतवासियों का ध्यान जाना चाहिए था, गया ही नहीं। वह तथ्य था, अटलजी के अंतिम संस्कार के समय पाकिस्तान के सूचना-मंत्री अली जाफर का उपस्थित होना। पाकिस्तान की तदर्थ सरकार का मंत्री इस मार्मिक मौके पर क्या इमरान की सहमति के बिना भारत आ सकता था ? पाकिस्तान के कुछ अखबारों और चैनलों ने भी अटलजी को बहुत प्रेम और सम्मान के साथ याद किया। ये बात दूसरी है कि पाकिस्तान के विरोधी नेता मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वे इमरान सरकार का स्वागत करके फौज द्वारा जबर्दस्ती लादी गई सरकार को बढ़ावा दे रहे हैं।

उधर इमरान खान ने ट्वीट करके फिर कहा है कि भारत के साथ हर मसले को बातचीत के द्वारा सुलझाया जाना चाहिए, कश्मीर-विवाद को भी! जब मुशर्रफ- जैसे फौजी तानाशाह के साथ अटलजी और मनमोहनसिंहजी ने कश्मीर विवाद पर कई कदम आगे बढ़ा लिये थे तो इसी प्रक्रिया को और आगे क्यों नहीं बढ़ाया जा सकता लेकिन यहां नाक का सवाल आड़े आ रहा है। बातचीत की पहल कौन करे ? कुरैशी ने अपने बयान में कह दिया कि मोदी ने वार्ता का प्रस्ताव रखा है। पाक विदेश मंत्रालय ने तुरंत सफाई दी कि नहीं, कुरैशी के कहने का अर्थ यह था कि मोदी ने दोनों देशों के बीच रचनात्मक शुरुआत की बात कही है। मैं पूछता हूं कि बिना बात के, कोई रचनात्मक शुरुआत कैसे हो सकती है ? मोदी ने तो अपना काम कर दिया। अब इमरान आगे बढ़ें और कमान संभालें।

इमरान थोड़ा आगे बढ़े भी हैं। उन्होंने भारत-पाक व्यापार बढ़ाने की बात कही है। भारत ने 1996 से पाकिस्तान को ‘सर्वाधिक अनुग्रहीत राष्ट्र’ का दर्जा दे रखा है लेकिन पाकिस्तान यह दर्जा भारत को देने में झिझकता रहा है। इमरान हिम्मत करें, चाहे उस दर्जे का नाम थोड़ा बदल दें लेकिन भारत की चीज़ों के लिए अपने दरवाजे खोल दें तो दोनों देशों का जबर्दस्त फायदा होगा। यह कितनी विचित्र बात है कि पाकिस्तान के साथ भारत का व्यापार मुश्किल से सिर्फ 15 हजार करोड़ रु. का है, जो कि उसके विदेश व्यापार के एक प्रतिशत से भी कम है।

इमरान ने आतंकवाद के खिलाफ भी काफी बोला है लेकिन यह वह आतंकवाद है, जो पाकिस्तान के अंदर चल रहा है। उन्होंने उस आतंकवाद पर उंगली भी नहीं उठाई है, जो भारत और अफगानिस्तान के विरुद्ध चल रहा है। इसी आतंकवाद के कारण अमेरिका ने पाकिस्तान की आर्थिक मदद बंद कर दी है। पाकिस्तान के इस चुनाव ने जो संदेश दिया है, उसे इमरान ने अभी तक समझा है या नहीं ? उग्रवादियों ने सैकड़ों उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन पाकिस्तान की जनता ने सब के सब को रद्द कर दिया। उनमें से एक को भी नहीं चुना। यदि इमरान इन आतंकवादियों के विरुद्ध अपनी फौज को भी मना लें तो पाकिस्तान की जनता उनका तहे-दिल से स्वागत करेगी। वे सारे दक्षिण एशिया के कप्तान बन जाएंगे।

इमरान राजनीति में हैं और उससे बाहर भी हैं। भारत-पाक संबंधों को सहज बनाने में दोनों देशों के गैर-राजनीतिक तत्वों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है। इसका प्रमाण हमारे सुयोग्य राजदूत अजय बिसारिया द्वारा इमरान को क्रिकेट का वह बेट भेंट करना है, जिस पर हमारे खिलाड़ियों के दस्तखत हैं। मोदी और इमरान यदि राजनीतिक पहल करने में अभी झिझक रहे हों तो यह दूसरा रास्ता ज्यादा सरल और निरापद है। इसी से शुरुआत की जाए।

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