भारतीय चिंतन में रसानुभूति

हृदयनारायण दीक्षित

मनुष्य आनंद अभीप्सु है। भक्तों के अनुसार प्रभु का भजन ही आनंद का स्रोत है। भक्त मुक्ति या मोक्ष नहीं मांगते। प्रभु प्रीति में ही आनंद सागर देखते हैं। महात्मा बुध्द संसार को दुखमय देखते थे। उन्होंने दुखों का कारण ‘अविद्या’ बताया और विद्या को मुक्ति का उपाय। मुक्ति ही आनंद है। बाकी सब दुख। मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष चित्त की इच्छाशून्य दशाएं हैं। बुध्द के पहले उपनिषद् दर्शन में भी इच्छाशून्यता पर जोर है। मानी बात है, इच्छाएं तनाव देती हैं। सारी इच्छाएं पूरी नहीं होती, अपूर्ण इच्छाएं और भी तनाव देती हैं। उपनिषद् दर्शन के अनुसार इच्छाओं की पूर्ति भी संतुष्टि नहीं देती। मन भिखारी है, वह लगातार ‘और-और’ मांगता है। ईश्वरवादी सुख और दुख को परमात्मा की देन मानते हैं कि वहीर् कत्ता, धर्ता, दाता विधाता है। लेकिन ईश्वर दर्शन विज्ञान की बड़ी समस्या है। संसार में शोषण, लूट, अन्याय और हिंसा है। तो क्या ईश्वर अन्यायी है? सवाल तरह-तरह के हैं। क्या भक्ति ही आनंद का मार्ग है? क्या इच्छाशून्य चित्त ही आनंद का स्रोत है? क्या पृथ्वी को आनंद मगन बनाने की मानवीय इच्छा और मुक्ति की इच्छाएं परस्पर विरोधी हैं।

‘ऋग्वेद’ मानवीय अभिलाषाओं और उनकी पूर्ति के प्रयासों से भरापूरा प्राचीनतम दस्तावेज है। ‘ऋग्वेद’ के खूबसूरत सूक्त (9.113) में मानवीय अभिलाषाओं की सूची है और इनकी पूर्ति की स्तुतियां हैं। नदियां जल देती हैं, अन्न देती हैं, समृध्दिदायिनी है। ऋषि की कामना है कि उसे ऐसा निवास मिले जहां निरंतर बहती नदियां हों। घूमने फिरने की सुविधा हो, जगमग प्रकाश हो ङ्ढ ‘यत्र ज्योतिरस्रम्’। (वही मन्त्र 7, 8, व 9) यहां कामनाओं, अभिलाषाओं को शून्य करने का कोई प्रश्न नहीं। कहते हैं, जहां सभी आवश्यक वस्तुए हों, दिव्यता हो, सभी कामनांए पूरी होती हों, वहां मुझे आवास दो- ‘यत्र कामा निकामाश्च स्वधा च यत्र तृप्तिश्च’। (वही मन्त्र, 10) यहां कामनाएं दुख नहीं देती। वे कर्म प्रेरक ऊर्जा हैं। कामनाओं को छोड़कर भजन कीर्तन करने या घर छोड़ देने की बातें नहीं हैं। यहां कामना में आनंद है, कामना पूर्ति के प्रयत्नों में आनंद है। 11वें मन्त्र में गजब की अभिलाषा है। कहते हैं – ‘यत्रानन्दाश्च, मोदाश्च, मुद प्रमुद आसते’ – जहां आनंद है, मोद हैं, मुद हैं, प्रमोद हैं, सारी कामनाएं तृप्त होती हैं, हम वहां रहें – ‘कामस्य तत्राप्ता कामाः’। यूरोपीय विद्वान और मार्क्सवादी टिप्पणीकार वैदिक साहित्य को आस्थावादी बताते हैं। उन्हें भौतिक सुखों और कामनाओं से भरीपूरी जिजिवीषा नहीं दिखाई पड़ती।

सुख-दुख आते जाते हैं। सांसारिक क्षेत्र की अनुकूलता सुख है और प्रतिकूलता दुख। अस्तित्व विराट है। अस्तित्व से प्रेम छन्द की अनुभूति ही आनंद है। सांसारिक अनुकूलता की प्राप्ति स्वस्ति-कल्याण है। पूषा धन समृध्दि देते हैं – ‘स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः’। इन्द्र भी ‘स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु’ हैं। (1.89.6) संसार कठिनाईयों का दुर्ग है, कठिनाइयों का अभाव स्वस्ति है ‘स्वस्तिभिरति दुर्गाणिविश्वा’। (10.56.7) इसलिए ‘स्वस्तिमिन्द्रामरूतो दधात्’ – इन्द्र और मरूत हमारा कल्याण करें। (2.29.3) कल्याण भौतिक समृध्दि है। एक प्रख्यात मन्त्र में अग्नि से स्तुति है ः ‘अग्ने नये सुपथा राये, अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्’ – हमें समृध्दि प्राप्ति के लिए उत्तम मार्ग पर ले चलें। आप विद्वान हैं। (1.89.1) यहां ‘राये’ समृध्दि है इसलिए स्वस्ति है। ‘ऋृग्वेद’ में मरूतों से कहते हैं ‘स्वस्ति राये मरूतो दधातन’। (10.63.15) संसार दुर्गम है, स्वस्ति सनातन कामना है यात्रा में, जलों के मध्य, और युध्द क्षेत्र कर्मक्षेत्र में भी स्वस्ति चाहिए – ‘स्वस्ति नः पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्ववर्ति’। (10.63.15) यह तो हुई अग्नि, इन्द्र, वरूण, आदि देवों से स्वस्ति की स्तुति लेकिन पृथ्वी ‘स्वस्तिरिध्दि’ है – ‘स्वस्तिरिध्दि प्रपथे श्रेष्ठा’। (वही, 16) यह देव गोपा है – ‘देवसंरक्षित है’, ‘ये पृथ्वी वनों और हमारे घर में भी कल्याण करें।

मनुष्य का अन्तःकरण ही आनंद की मुख्य भूमि है। मनुष्य का भाव ‘स्वभाव’ है। स्वभाव में निवास ‘स्वस्थ’ है। जैसे घर का प्रेमी गृहस्थ वैसे ही स्वयं का प्रेमी ‘स्वस्थ’। इसी तरह चिन्ता से मुक्ति ‘स्वस्ति’ है। ऐसे ही स्व-अर्थ ‘स्वार्थ’ है। स्वभाव, स्वस्थ और स्वस्ति जैसे शब्दार्थ का लक्ष्य स्वार्थ है। स्वार्थ का परम परमार्थ है। परमार्थ की अनुभूति आनंद है। सुख, स्वस्ति स्वास्थ्य और आनंद प्राप्ति की कामना मनुष्य का स्वभाव है। इच्छा, अभिलाषा, आकांक्षा और कामना मनुष्य की प्रकृति हैं। काम सृष्टि सर्जन की आदि इच्छा है – ‘काम स्तदग्रे समवर्तताधि’ (10.129.4) यहां काम देवता हैं। काम सभी कामनाओं का बीज है। कामनाएं अनंत हैं। ‘ऋृग्वेद’ में सीधी मानवीय इच्छांए हैं। सूर्यास्त होता है, सबकी घर जाने की इच्छा होती है-‘विश्वेषां चरतां अमा कामः अभूत’ (2.38.6) पत्नी का साथ आनंददायी है कामना है कि वह बुढ़ापे तक साथ रहे। (10.85.36) दोनो का मन एक होना जरूरी है। अग्नि पति-पत्नी का मन एक कर देते हैं – ‘दम्पति समनसा कृणोषि’। (5.3.2) ऋषि सौ बरस तक स्वस्थ रहकर जीना चाहते हैं। वे धन कामी हैं, परिवार प्रेमी हैं। सुशासन के इच्छुक हैं। मजबूत राष्ट्र चाहते हैं। सृष्टि रहस्यों को जान लेने की कामनाएं करते हैं। वे सांसारिक ऐषणाओं की पूर्ति के लिए जमकर परिश्रम करते हैं। सबका बीज काम है। इस बीज वृक्ष की शाखाएं कामनाएं हैं और फल है आनंद।

वाणी भी आनंद का स्रोत है। वे घी से भी मधुर स्तुतियां बोलते हैं। (8.24.20) तमाम खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट होते है, मधु, दुग्ध और घी ऐसे ही है लेकिन वाणी में भी स्वाद है उच्यते वचः स्वादोः स्वादीयः। (1.114.6) वैदिक समाज की मधु अनुभूति आनंद का पर्याय है। ‘ऋृग्वेद’ आकांक्षा का मधुकोष है, इन्द्र ने नदियों को – मधुअर्णसः – मीठे पानी से भर दिया। (1.62.6) यहां बादल भीतर भी मधु है। बृहस्पति ने मधु धारम् – मधु की धारा वाले बादल को तोड़ा। (2.24.4) पर्जन्य में भी मधु भरा है। (7.101.1) देवीं आपं – ‘ये जलदेवियां मधुमद्भिः अर्णोभिः’ – मधुमय जलों से भरी हुई हैं। (4.3.12) मधु आनंद की अनुभूति में पृथिवी, आकाश, सारा ब्रह्माण्ड मधु से भरा है, ”हे द्यावा पृथिवी, मधु मिमिक्षताम्” – हमें तुम दोनो मधुर रस से मिलाओ। तुम दोनो – मधुश्च्युता – मधुर रस का स्राव करने वाली हो, मधुदुधे – मधुर रस की वर्षा करने वाली हो, मधुव्रते – मधुर रस देना तुम्हारा स्वभाव ही है। (6.70.5) अग्नि मधुजिह् है। (1.44.6) अग्नि की जीभ मधुमती है। (3.57.5) ‘अथर्ववेद’ के एक सूक्त (1.34) में एक लता है, उसका नाम मधुक है। कहते हैं मधुक मधुरता के साथ पैदा हुई है। हम इसे मधुरता के साथ खोदते हैं – ‘मधुजाता मधुनां त्वां खनामसि’। हे लता! आप स्वभाव से मधुर है, हमें मधुरता दें। (वही, 1) आगे गजब की मधु आकांक्षा है, ‘जिह्वाया अग्रे मधुमे जिह्वामूले मधूलकम्’ – हमारी जिह्वा का अग्रभाग मधुर हो, मूल भाग भी मधुर हो। हमारा घर से बाहर जाना मधुर हो दूर जाना मधुर हो। वाणी मधुर हो। हमको सब मधुमय प्यार करें। हम मधु से ज्यादा मधुर हों, मधुरता से भी ज्यादा मधुर हो जायें – ‘मधोरस्मि मधुतरो मदुधान्ममधुत्तमत्तरः’।

‘अथर्ववेद’ के नवे काण्ड ‘मधुविद्या सूक्त’ (9.1.23) में कहते हैं जो इस रहस्यमयी विद्या के ज्ञाता है वे ‘मधुमान भवित मधुमदस्याहार्य भवित, मधुमतो लोकांजयति’ – मधुमय हो जाते है, मधु को लब्ध होते है मधुर लोकों पर विजयी होते हैं। अश्विनी देव इस विद्या के ज्ञाता हैं। उनसे प्रार्थना है आप हमको मधुयुक्त बनाये। हम तेजस्वी वाणी (भी) मधुरता के साथ कहें। (वही, 19) फिर कहते हैं हम मधुरता उत्पन्न करें, मधुरता की संवृध्दि करें – ‘मधु जनिषीय मधुवंशिषीय’। (वही, 14) फिर पूरी प्रकृति जैसा मधुरस अपने लिए भी मांगते है गिरि, पर्वत, गो, अश्वादि और औषधियों की मधुरता हमारे भीतर भी स्थापित हो। (वही, 18) अथर्ववेद में मधुरता का मूलस्रोत हैं यह मरूद्गणों की पुत्री है और अग्नि वायु के संयोग से उत्पन्न हुई है। (वही, 3) मधुर बात यह है कि यह आदित्यों की माता है, वसुओं की कन्या है, प्रजाजनों की प्राण है और अमृत की नाभि है। (वही 4) अश्विनी देवों का मुख भी मधुप है। वे मधुप्रिय है। स्तुति है मीठा रस पीने वाले मुख से ङ्ढ ‘मध्वः पिबतम्’ – मधु पियो। मधु प्राप्ति के लिए घोड़े जोतो। मार्ग भी मधु से भरो। अश्विनी देव – मधूयु वा हैं – मधु के प्रेमी है। (5.73.8) अश्विनी देवों का रथ भी मधुवाहन है। (1.34.2) यहां सारे खाद्य और पेय मधु हैं। इन्द्र के लिए मधुपेयः मधुर है। इन्द्र, अग्नि, अथर्वा और अश्विनी सभी देवशक्तियां मधुप्रिय हैं। पुराणकाल के दौरान विद्वान-ब्राहमण भी मधुप्रिय कहे गये। मधु आनंदवाची है और आनंद मधु अनुभूति।

* लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद् सदस्य हैं।

1 COMMENT

  1. वेदों के बारे में मेने कभी भी नहीं तो अधिक सुना न ही पढ़ा में ब्रह्मण परिवार से हु फिर भी कोई बात तक नहीं करता मुझे भी वेदों को पढ़ने की इछा अधिक समय बाद हुई ऐसे में आपका वेदों की जानकारी देना वन्दनीय हे इस के लिए आपको बहूत बहूत साधुवाद देता हु

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