मौन में पलने दो

0
180

तुम मेरे संतृप्त स्नेह की शिल्पकार

जैसे  भी  चाहो  तराशो  इसको,

नाम दो, आकार दो, ….. पर

शब्द  न दो,

कि शब्दों  में  छिपे होते हैं भ्रम अनेक,

छंटता है इनसे अनिष्ट छलावा,

शब्द  छोड़  जाते  हैं   छलनी  मुझको,

प्रिय, मैं अब स्नेह से नहीं

स्नेहमय शब्दों से डरता हूँ ।

 

आओ, बैठो पास, और पास मेरे,

कहो — कहो  न  शब्दों  से  कुछ,

कहो,  पर  जो  कहना  है  तुमको

बस,  मंद्र मौन को कहने दो —

कि  शब्दों  से  कहीं  बढ़  कर

सच, अलंकृत होगा यहाँ पर

मौलिक  मार्मिक  मौन  से,  प्रिय

अनुरक्त भावनाओं में अनुरंजन,

स्निग्ध आकांक्षायों में उत्परिवर्तन ।

 

तुम  कभी मुझको ग़लत न समझो,

आँख की पुतली-सा प्रिय है मुझको

सौम्य सुकुमार संचेय स्नेह तुम्हारा ।

जो होता केवल एक ही अर्थ

तो मैं न डरता, न डरता,

सह लेता,

पर यहाँ तो प्रिय

प्रत्येक शब्द के हैं अर्थ अनेक —

हो  सकता  है  कि  तुम कहो  कुछ

और मैं समझूँ  उसका

अर्थ कुछ और ।

इसीलिए प्रिय,

अब मैं शब्दों से नहीं

शब्दों के  प्रकरण  से  डरता  हूँ ।

 

तुम, मेरे स्नेह की प्रशंसनीय शिल्पकार

यह मेरी  एकमात्र  अनुनय विनय है तुमसे

मुझको अब कुछ और शब्द न दो आज,

तुम स्नेह को अपने मौन में पलने दो ।

 

——-

— विजय निकोर

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here