“दूसरों की उन्नति में ही हमारी व देश समाज की उन्नति सम्भव है”

0
209

मनमोहन कुमार आर्य

परमात्मा ने यह संसार जीवात्माओं के कर्म फल भोग और अपवर्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिये बनाया है। मनुष्य तथा सभी पशु-पक्षी आदि योनियों में सबका आत्मा एक जैसा है। सबको समान रूप से सुख व दुःख की अनुभूति होती है। सब जीवात्मायें अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों को प्राप्त हुए हैं और अपने-अपने कर्मों के सुख व दुःखों को भोग रहे हैं। सुख व दुःख प्रदान करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है। सभी शरीरधारी जीवात्माओं का परमात्मा की ओर से यह कर्तव्य निश्चित है कि वह सब जीवों को अपने-अपने कर्मों का फल भोगने में सहयोगी बनें तथा असहयोग कदापि न करें। वेद एवं वैदिक साहित्य में इस विषयक नियम व मर्यादायें विद्यमान हैं। यदि कोई मनुष्य या पशु-पक्षी किन्हीं शरीरधारी या प्राणधारियों के कर्तव्यों के पालन व उनकी जीवन की रक्षा में बाधक बनता है तो हम उन बाधाओं को दूर करने के लिये वेद व ऋषियों द्वारा वर्णित विधानों के अनुसार सहायता व निर्णय ले सकते हैं। यदि हम अकारण दूसरों के कर्म फल भोग में बाधक बनते हैं तो यह किसी भी मनुष्य, विद्वान व आचार्य के लिये उचित नहीं है। संसार में यह देखने में आ रहा है कि शिक्षित एवं बुद्धिमान लोग अकारण ही दूसरे मनुष्यों का शोषण करने के साथ अन्याय भी करते हैं और पशु-पक्षियों की अकारण हत्या कर मांसाहार करके पाप के भागी बनते हैं।संसार में जितने धार्मिक व ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ हैं वह सब अल्पज्ञ व अल्प-बुद्धि मनुष्यों द्वारा रचित हैं। मनुष्य का आत्मा एकदेशी, समीम, अल्पज्ञ एवं अल्प सामर्थ्यवाला के स्वभाववाला होने से सत्य यथार्थ ज्ञान के लिये ईश्वर पर निर्भर है। यह ज्ञान उसे वेद और योगी ऋषियों के बनाये वेदानुकूल ग्रन्थों के अध्ययन तथा योगदर्शन के अनुसार योग साधना करने से प्राप्त होता है। यही कारण है कि महाभारत काल तक केवल वेद और ऋषियों के ग्रन्थों का ही प्रचार था। लोग प्रायः सुखी थे। उस समय ईसाई, मुसलमान व हिन्दुओं के आजकल के जैसे झगड़े व आतंकवाद आदि की समस्यायें नहीं थीं। महाभारत युद्ध के कारण सभी धार्मिक व सामाजिक व्यवस्थायें एवं ऋषि-मुनि काल कवलित हो गये और देश में अज्ञान का तिमिर छा गया। वेद के मन्त्रों के गलत अर्थ किये गये और इस कारण यज्ञों में पशु हिंसा भी आरम्भ हुई। कालान्तर में महात्मा बुद्ध ने यज्ञों में हिंसा का विरोध किया। यज्ञों में पशु हिंसा से त्रस्त महात्मा बुद्ध व उनके शिष्यों ने अहिंसा को ही मनुष्य धर्म का प्रमुख आधार माना और इसका ही प्रचार किया। अनेक अनेक बातों की उपेक्षा की गई। इससे भी अनेक हानिकारक प्रभाव हुए। इससे दुष्टों के दमन व समाज व देश के शत्रुओं के प्रति जो सैन्य बल के प्रयोग से सत्य व धर्म की रक्षा की जाती थी, जैसा महाभारत में श्री कृष्ण ने या रामायण काल में मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम ने किया था, वह भी नष्ट व समाप्त हो गया। सत्य की स्थापना व असत्य के दमन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। हिन्दू जाति इससे दुर्बल व स्वाभिमान से दूर हो गई और हर हाल में हिंसक दुष्ट मनुष्यों व देश के शत्रुओं के प्रति भी अहिंसा का ही व्यवहार होने लगाबौद्धमत के बाद जैनमत का प्रादुर्भाव हुआ। इस मत ने भी अहिंसा को प्रमुखता दी। इन दोनों मतों ने ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया। यह महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी को ही ईश्वर के स्थान पर मानने लगे और इन्हीं महात्मा व महापुरुषों की पूजा अर्चना आरम्भ हो गई। यही मूर्तिपूजा पद्धति आर्य हिन्दुओं ने भी स्वीकार की और कालान्तर में राम व कृष्ण एवं कुछ अन्य महापुरुषों को ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया गया। भारत में धीरे-धीरे मत-मतान्तरों की वृद्धि होती गई। आज देश में इतने मत हैं कि इनकी गणना भी सम्भव नहीं है। हर गुरु एक नया मत चला रहा है जिससे समाज संगठित होने के स्थान पर विघटित हो रहा है। इन मतों से धर्म की उन्नति होने के स्थान पर मनुष्य-मनुष्य में भेद व परस्पर, मेरा मत व मेरा गुरु दूसरों से श्रेष्ठ है, का भाव उत्पन्न हो रहा है जिससे मनुष्यों की एकता भंग हो रही है। यरुशलम में महात्मा ईसाई मत का प्रादुर्भाव हुआ। अरब देशों में भी एक मत का आविर्भाव हुआ। वेदों की ओर इनमें से किसी का ध्यान ही नहीं गया। यदि जाता भी तो वेद के अर्थ जानने की योग्यता उस समय के विद्वान आचार्यों में भी नहीं थी। यही कारण है कि सायण और महीधर वा उव्वट जैसे वेदभाष्यकार भी वेदों के सत्य अर्थ नहीं कर सकें। इन सब मतों और सबकी अलग-अलग प्रथाओ ंव परम्पराओं ने मनुष्य-मनुष्य के बीच दूरी स्थापित की। इन अविद्यायुक्त मतों व मिथ्या परम्पराओं के कारण ही देश में अनेक राज्य स्थापित हुए और देश के अनेक भाग विधर्मी विदेशियों का सैकड़ों वर्षों तक गुलाम भी बने। वेदों ने मनुष्यों कोमनुर्भवअर्थात् सच्चा मनुष्य बनने का सन्देश दिया था। मनुष्य को मनुष्य मननशील चिन्तनशील प्राणी होने के कारण कहा जाता है। मनुष्य वेदों ऋषियों के सत्य ग्रन्थों को पढ़कर मनन, चिन्तन, ईश्वर की उपासना परोपकार के काम करने से मनुष्य बनता है। हम यूरोप के अनेक लोगों में अच्छे गुणों को पाते हैं जो मानवीय गुण हैं परन्तु उनमें भी येन केन प्रकारेण अपने मत के लोगों की संख्या वृद्धि करने के लिये गरीब, असहाय, रोगी, भूखे व अशिक्षित लोगों का लोभ व भय आदि से धर्मान्तरण व मतान्तरण करते देखा जाता है। इतिहास में यह घटनायें प्रचुरता से भरी पड़ी हैं। दो हजार वर्ष पूर्व भारत में कोई मनुष्य न ईसाई था और न ही मुसलमान। आज क्या स्थिति है यह सबको विदित है। इसका कारण क्या है, वह भी एक धर्म, एक मत, एक विचार, एक भाव, एक भाषा, संगठन, परस्पर प्रेम, सहयोग, एक सुख-दुख व सत्य वैदिक मानवीय गुणों का न होना है। ऋषि दया ने सच्चे ईश्वर की खोज व मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिये अपने माता-पिता का घर छोड़ा था। उन्होंने पूरे देश में धार्मिक विद्वानों व योगियों के पास जाकर उनसे विद्या को प्राप्त किया। वह सच्चे व सफल योगी भी बने और वेद ज्ञान जो सत्य विद्या के मूल स्रोत हैं, उनके ऋषि व उच्च कोटि के योगी विद्वान बनें। उन्होंने देश की दशा को देखा तो उनका दैवीय गुणों से भरा हुआ आत्मा व मन चीत्कार कर उठा। उन्होंने इन सब समस्याओं के कारणों का पता लगाया। इसका कारण उन्हें धर्म, मत, सम्प्रदायों, पन्थों की अविद्यायुक्त मान्यतायें व परम्परायें प्रतीत हुई। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से उन्होंने इनका खण्डन करने सहित सत्य वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार करने को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। सन् 1863 में गुरु विरजानन्द जी से विद्या प्राप्त कर उन्होंने प्रचार आरम्भ किया और मनुष्य जीवन का कारण, उसका उद्देश्य व लक्ष्य को देश की जनता के सम्मुख रखा। उन्होंने मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने के उपाय व आदर्श जीवन शैली पर भी अपने मौखिक प्रवचनों व ग्रन्थों के द्वारा प्रकाश डाला।महर्षि दयानन्द ने अपने समय में विद्यमान प्रायः सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों से सभी विषयों पर चर्चा, वाद व शास्त्रार्थ किये और उन्होंने सबका समाधान किया। कुछ मत-मतान्तरों के लोगों ने उनकी मान्यताओं को स्वीकार किया और उनमें से कुछ वैदिक धर्म की शरण में भी आये। ऐसे ही एक मुस्लिम बन्धु मोहम्मद उमर ने ऋषि दयानन्द के प्रवचन सुनकर वैदिक धर्म में प्रविष्ट कराने की मांग की। ऋषि दयानन्द ने उनकी मांग को स्वीकार किया और उन्हें उनके परिवार सहित शुद्धि करके वैदिक धर्म में प्रविष्ट कराया गया। ऋषि दयानन्द ने वेद के मानवीय, सत्य, सर्वथा पूर्ण एवं निर्दोष सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना भी की। आर्यसमाज ने वेद एवं वेदों पर आधारित वेदानुकूल दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का मुख्य रूप से प्रचार किया। आर्यसमाज के सिद्धान्तों का सभी मत, पंथ, सम्प्रदायों व धर्म कहे जाने वाले मत व सम्प्रदायों पर भी प्रभाव पड़ा। सभी ने अपने मत की कुछ मान्यताओं का सुधार भी किया। पुराणी बन्धुओं ने तो सबसे अधिक ऋषि दयानन्द की मान्यताओं को स्वीकार किया है। ऋषि से पूर्व यह लोग स्त्री व शूद्रों का वेदाधिकार स्वीकार नहीं करते थे। विदेश यात्रा को धर्म भ्रष्ट होना मानते थे। इनमें जन्मना जाति-वाद व छुआछूत प्रचलित था। देश में नाम मात्र के स्कूल व पाठशालायें थी जो अंग्रेजों द्वारा चलायी जाती थीं। आर्यसमाज ने गुरुकुल व दयानन्द आर्य वैदिक कालेज (डी.ए.वी. कालेज) खोलकर शिक्षा जगत में क्रान्ति को जन्म दिया। नारियों को समान अधिकार प्रदान कराये। देश व समाज से सभी अन्धविश्वासों व कुरीतियों का उन्मूलन किया। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष तथा सामाजिक भेदभाव आदि को भी वेद, दर्शन, उपनिषद, स्मृति व युक्तियों के विरुद्ध सिद्ध किया। मूर्तिपूजा ईश्वर पूजा का पर्याय नहीं है। ईश्वर पूजा तो हृदय में विद्यमान परमात्मा व आत्मा दोनों का ध्यान करने तथा ईश्वर के गुणों का चिन्तन व प्रार्थना करने से होती है। आर्यसमाज ने देश देशान्तर में वायु शुद्धि हेतु अग्निहोत्र-यज्ञ एवं पर्यावरण को स्वच्छ रखने का भी प्रचार किया। देश की आजादी का मन्त्र भी आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ही दिया था। आर्यसमाज ने देश के क्रान्तिकारी व अहिंसात्मक आन्दोलन दोनों में सबसे अधिक योगदान दिया। देश व समाज हित का ऐसा कोई कार्य नहीं है जो आर्यसमाज ने न किया हो।आर्यसमाज के दस नियम हैं जिसमें नौवां नियम है प्रत्येक मनुष्य को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। आज समाज के शिक्षित व धनी लोग इस नियम का पालन करते हुए दिखाई नहीं दे रहे हैं। यही कारण है कि देश के नागरिकों के जीवनस्तर में भारी अन्तर है। इसका कारण हमारी सरकारी नीतियां व नियम आदि भी हैं। यह देखकर भी आश्चर्य होता है कि हमारे देश के किसानों को आत्महत्या करनी पड़ता है। यह स्थिति आजादी से पहले भी थी और आजादी के 71 वर्षों में भी बनी हुई है। आज भी करोड़ों लोगों को दो समय का पेट भर कर भोजन नहीं मिल पाता। वस्त्र और चिकित्सा की सुविधायें भी सबको सुलभ नहीं हैं। शिक्षा भी आज व्यवसाय बन गई है। यह स्थिति मध्यकाल व वैदिक काल से भी निश्चित रूप से बुरी है। मनुष्य का अर्थ है कि वह मननशील बने। मननशील होगा तो वह अवश्य ही अपनी उन्नति से सन्तुष्ट नहीं होगा अपितु सबकी उन्नति में सहायक व सहयोगी होगा और दूसरों की उन्नति से सन्तुष्ट होगा। आज की शिक्षा भी इस महत्वपूर्ण विषय पर सकारात्मक भूमिका न निभा कर नकारात्मक भूमिका ही निभा रही है। आज वेद व आर्यसमाज के प्रचार की सबसे अधिक आवश्यकता है। जन्मना जातिवाद जैसी अन्य सभी सामाजिक कुप्रथायें दूर होनी चाहिये और देश के सभी सज्जन लोगों को भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा व रोजगार की गारंटी मिलनी चाहिये। इसके साथ देश में सभी समुदायों की जनसंख्या का सन्तुलन बिगड़ना नहीं चाहिये। इसमें अन्तर होने पर देश का भविष्य असुरक्षित हो जायेगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। आर्यसमाज के विद्वानों एवं नेताओं को इन सभी विषयों पर विचार करने के साथ पत्र व पत्रिकाओं में लेख भी देने चाहियें। हमने ऋषि दयानन्द द्वारा सन् 1875 में उठाये एक विषय को प्रस्तुत किया है। इस पर हमारे सभी मित्र पाठक अपने विचार प्रस्तुत करें, यह हमारी विनती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here