मध्यप्रदेश के छतरपुर के अकोना गांव के गुरवा अहिरवार आज अपनी कच्ची झोंपड़ी में अपनी बुजुर्ग पत्नी और तीन नातियों के साथ रह रहे हैं। उनके दो बेटे और बहू रोजगार की तलाश में जुलाई में ही दिल्ली जा चुके हैं। बुंदेलखण्ड के इस इलाके के किसी भी बस अड्डे और रेल्वे स्टेशन पर आपको 5 से लेकर 25 लोगों का समूह सिर पर सफेद बोरी लादे, बिस्तरों का बंडल बांधे, महिलायें अपनी गोद में छोटे-छोटे बच्चों को लिये यात्रा के साधनों का इंतजार करते हुये नजर आ जायेंगे। इनके नाम, जाति और गांव अलग-अलग हो सकते हैं पर इनकी कुण्डली में एक ग्रह बैठ गया है जिसे हम कहते हैं बदहाली में पलायन, स्वेच्छा या अपनी इच्छा से नहीं बल्कि गांव में जीविका और रोटी के विकल्प खत्म हो जाने के बाद जीवन बचाने के लिये चुना गया विकल्प है पलायन।
यहां से जाने वाला हर परिवार देश के किसी भी कोने में पलायन करके जाये, उसके साथ गेहूं-आटा की बोरी जरूर होती है। कारण साफ है कि वे दिल्ली में पहुंचकर भी कब रोजगार पा सकेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं होता है। तब तक महिलायें, बच्चे क्या खायेंगे इसके लिये 15 दिन का अनाज साथ रखना सबसे जरूरी है। परन्तु सबके साथ खाना ले जाने की स्थिति हो यह भी जरूरी नहीं है। गुरवा अहिरवार के दोनों बेटे और बहू (लखन, पप्पू और सील्ता) जब जुलाई में दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे तो उनकी रसद में खाने का सामान नहीं था। इस परिवार के पास इतना पैसा भी नहीं था कि वह तीन लोगों के लिये पचास किलो गेहूं की जुगाड़ कर पाता। अंतत: दो दिन की रोटी और नमक पोटली में बांध कर जिन्दगी की तलाश में गुरवा के युवा बच्चे सैनिक बन कर जिंदगी की लड़ाई लड़ने गांव से निकल गये। उनके पास दिल्ली तक की यात्रा करने के लिये अरे हां, रोजगार गारण्टी योजना भी तो है जिसे भारत की सरकारों की झण्डादारी योजना कहा जाता है। दुनिया की सबसे बड़ी रोजगार गारण्टी योजना है यह, और भारत में गांव के हर परिवार को रोजगार की कानूनी गारण्टी देता है यह कानून। पर गुरवा अहिरवार के दलित परिवार ने सरकार की इस योजना की मदद क्यों नहीं ली। ली थी, सरकार की बात पर विष्वास करके मदद लेने की कोशिश की थी। छह महीने पहले इस परिवार ने नरेगा में 40 दिन की हाड़-तोड़ मजदूरी की थी पर अब तक उन्हें अपने श्रम का मेहनताना नहीं मिल पाया है। इतना ही नहीं पिछले 8 महीनों में अकोना गांव में एक भी नया विकास या रोजगार का काम नरेगा के तहत शुरू नहीं हुआ है। गुरवा की बुजुर्ग हमसफर रतिया बाई कहती हैं कि यदि हमें गांव में ही मजदूरी मिलती तो लड़के-बच्चे अनाथों की तरह पलायन करने के लिये मजबूर नहीं होते। दिल्ली में कोई सुख थोड़े मिलता है। वहां भी कुल सौ-डेढ़ सौ रूपये की मजदूरी मिलती है, वह भी महीने में 15 से 17 दिन की। क्या वहां, इससे गुजारा संभव है? हमारे लिये कुछ बचाने के लिये उन्हें वहां खुले आसमान के नीचे सोना पड़ता है, बारिश में भीगना पड़ता है, कई किलोमीटर भारी सामान लेकर एक जगह से लेकर दूसरी जगह तक भटकना पड़ता। और कोई वहां हमारे रिष्तेदार थोड़े रहते हैं; वहां तो जो ठेकेदार दिलवा दे, वही सबसे बड़ा सहारा होता है। रतिया बाई के मुताबिक उन्हें नहीं पता है कि दिल्ली में उनके बच्चे कहां और क्या काम करते हैं? किसी आस-पड़ोस वाले के फोन पर कभी वे बात कर लेते हैं जिससे पता चल जाता है कि बच्चे जिंदा हैं!!
यह पलायन स्वेच्छा का पलायन नहीं है बल्कि बदहाल परिस्थितियों में जीवन बचाने के लिये किया जा रहा अनैच्छिक पलायन है। छतरपुर बस स्टैण्ड पर बस संचालन की व्यवस्था करने वाले अजय नायक बताते हैं कि 20 अगस्त के बाद से हर रोज 8 से 10 हजार लोग जिले से पलायन करके दिल्ली या दूसरे महानगरों की ओर जा रहे हैं। वे किसी भी परिस्थिति में यहां रूकना नहीं चाहते हैं क्योंकि उन्हें तत्काल काम की जरूरत है ताकि रोटी, इलाज और कर्जे के ब्याज के भुगतान की व्यवस्था की जा सके।
बहरहाल जिले के कलेक्टर ई. रमेश कुमार इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि बुंदेलखण्ड के इस जिले से मजदूर और किसान बदहाली के कारण पलायन करके जा रहे हैं। उनके मुताबिक ”लोग बेहतर अवसरों के लिये पलायन कर रहे हैं। मैं भी तो इसीलिये अपने गृहराज्य आंध्रप्रदेश को छोड़कर मध्यप्रदेश आ गया।” वे अपनी तुलना बुंदेलखण्ड के मजदूर-किसानों से कर रहे हैं जो भुखमरी की कगार पर हैं। वे (यानी कलेक्टर) जिले में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के सही और उपयोगी क्रियान्वयन के लिये जिम्मेदार हैं किन्तु गंभीर सूखा होने के बावजूद छतरपुर में मजदूरों को काम नहीं दिया जा रहा है, जिन्होंने मजदूरी की है उन्हें 6-6 महीनों से मजदूरी नहीं मिली है और स्थाई परिसम्पत्तियों के निर्माण की बात तो अभी दूर का ख्वाब है। वे कहते हैं कि ”नरेगा एक मांग आधारित योजना है, यदि मांग आयेगी तो सरकार जरूर पूरा करेगी।” साफ है कि वे शुध्द नौकरषाही नजरिये से इस बदहाली को देख रहे हैं जिसमें मंशा को साफ नहीं माना जा सकता है।
अब संयोग देखिये कि विश्वबैंक भी यही कहता है कि पलायन कोई बुरी अवस्था नहीं है यह तो विकास की निशानी है। यदि नरेगा से पलायन रूकेगा तो इससे विकास बाधित होगा। ऐसा ही हमारे राज्य की नौकरशाही भी मानती है। वे खुले मन से यह नहीं जानना चाहते हैं कि किसका विकास और किसका पलायन, किसकी मर्जी, किसकी मजबूरी, कैसा विकास और किसकी कीमत पर।
-सचिन कुमार जैन