अलका सिन्हा
बहुत गुरूर था जिन्हें अपने होने का
बीमारी में भी नहीं लेते थे छुट्टी
कि कुदरत थम जाएगी उनके बिना
सफेद तौलिए से ढकी पीठ वाली कुर्सी पर बैठकर
जो बन जाते थे खुदा
आज वे सब हाथ बांधे घर में बैठे हैं।
असेंशियल सेवाओं में नहीं है कहीं
उनके काम की गिनती!
अलबत्ता उसका नाम है जिसके नमस्कार का
प्रत्युत्तर भी नहीं दिया कभी उन्होंने
और उनके भी नाम हैं
जिनके नाम से वाकिफ तक नहीं वे
नजर उठा कर देखा तक नहीं जिन चेहरों को
करते रहे जिनके योगदान को नजरअंदाज।
लॉकडाउन के दिनों में
वे अचानक हाशिए से केंद्र में आ गए हैं
कि उनकी सेवा और समर्पण से चल रही है दुनिया।
मुख पर मास्क लगाए और हाथ में झाड़ू लिए
वे सड़कों पर पड़ी गंदगी के साथ-साथ
आकाओं के मन पर जमी
अहंकार की धूल भी बुहार रहे हैं।
बाहर की दुनिया के साथ ही
भीतर की दुनिया भी साफ हो रही है
स्वच्छ और निर्मल हो रही है।