जातीय राजनीति के खेल में ब्राहम्ण

प्रमोद भार्गव

राजनीति के जातीय खेल में ब्राहम्णों को ललचाने की होड़ शुरू हो गर्इ है। दो दशक से हाशिये पर डले ब्राहम्णों के दिन लगता है, बहुरने वाले हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के मददेनजर उत्तर प्रदेश में जहां समाजवादी पार्टी और बसपा में उन्हें रिझाने की होड़ चल रही है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व 2014 के आम चुनाव के लिए अपनी रणनीति में बदलाव की दृष्टि से नए समीकरण आजमाने जा रही है। कांग्रेस के बुजर्ुगवार नेता नारायणदत्त तिवारी और विधाचरण शुक्ल का पुनर्वास होने वाला है। इधर मध्यप्रदेश में इसी साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में भाजपा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने परशुराम जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोशित करके और उनकी जन्मस्थली जनापाव के जीर्णोद्धार के लिए 11 करोड़ का अनुदान देकर ब्राहम्ण मतदाताओं को पटाने का पासा फेंका है। जाहिर है देश की राजनीति में अब राम के स्थान पर परशुराम का बोलवाला बढ़ रहा है। लेकिन वास्तविक सामाजिक सरोकारों को नजरअंदाज कर जाीतय राजनीति को बढ़ावा देना देश की समरसता के लिए शुभ लक्षण नहीं है।

कांग्रेस गांधी, भाजपा दीनदयाल उपाध्याय, सपा राममनोहर लोहिया और बसपा डा भीमराव आंबेडकर के विचारों को प्रेरणा का स्त्रोत मानती रही हैं। इन वैचारिक विरासतों में वंचित वर्ग के उत्थान, समानता की अवधारणा और समरसता का वातावरण मुख्य लक्ष्य रहे हैं। लेकिन ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता के खेल में बाजी हथिया लेने की होड़ में ब्राहम्णों या अन्य अगड़ी जातियों को दाना डालने के जो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, वह इन दलों की मूल विचारधाराओं से कतर्इ मेल नहीं खाते। जाहिर है, हमारे दलों के मुखियाओं का बुनियादी मकसद विचार, सिद्धांत और नैतिकता को परे रखकर महज चुनाव जीतना रह गया है।

भ्रष्टाचार और घोटालों के दलदल में धंसी कांग्रेस को एक बार फिर हाशिये पर पड़े ब्राहम्ण नेताओं की याद आर्इ है। इस दृष्टि से सोनिया गांधी की 88 साल के वयोवृद्ध नेता नारायण दत्त तिवारी से हुर्इ मुलाकात महत्वपूर्ण है। आंध्रप्रदेश के राज्यपाल रहते हुए तिवारी पर यौन लिप्सा के  आरोप लगे थे। नतीजतन उन्हें पद छोड़ना पड़ा था। दूसरी तरफ उज्जवला शर्मा के पुत्र रोहित शेखर ने उन्हें अपनी पहचान के लिए जैविक पिता होने की न्यायालय में चुनौती दी थी। डीएनए जांच में उसकी पुष्टि भी हुर्इ। इन दो कारणों से उनका चारित्रिक पतन हुआ और उन्हें कांग्रेस ने हाशिये पर डाल दिया। किंतु बदलते राजनीतिक हालात में लगता है, उनके दिन फिरने वाले हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के दिग्गज और पूरे प्रदेश के प्रभावशाली नेता रहे विधाचरण शुक्ल को भी राजनीति के केंद्र में लाया जा रहा है। शुक्ल मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही प्रदेशो में अपना प्रभाव दिखा सकते हैं। स्थानीय ब्राहम्ण नेताओं पर उनकी आज भी मजबूत पकड़ है। शुक्ल को लुभाने की कवायद हाल ही में दिगिवजय सिंह ने उनके बड़े भार्इ श्यामाचरण शुक्ल की जयंती में शिरकत करके की है। जबकि एक समय इन्हीं ब्राहम्ण नेताओं के वर्चस्व को तोड़कर दिगिवजय सिंह अविभाजित मध्यप्रदेश की सत्ता पर काबिज हुए थे। कांग्रेसी ब्राहम्णों के धु्रवीकरण के लिए राहुल गांधी के कथन, ‘मैं ब्राहम्ण हुं से भी प्रोत्साहित हुए हैं। जाहिर है, तिवारी की सोनिया से लंबी मुलाकात, दिगिवजय सिंह की श्यामाचरण शुक्ल की जयंती में भागीदारी और राहुल का ‘मैं ब्राहम्ण हूं कहना अनायास नहीं है, यह एक सुनियोजित रणनीति है।

ब्राहम्णों को लुभाने की उत्तरप्रदेश में सबसे ज्यादा होड़ मची है। यहां परशुराम जयंति और प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलनों के बहाने ब्राहम्णों को आकर्षित किया जा रहा है। लखनउ के सपा मुख्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खुद ‘फरसा हाथ में लिए मंच पर थे। ‘फरसा या ‘परशु भगवान परशुराम का वहीं हथियार है, जिससे लड़ते हुए उन्होंने 21 बार पृथ्वी से आततायियों को नष्ट किया था। जिन ब्राहम्णों को रुढि़वादी कर्मकाण्डों के लिए कोसा जाता था, उन ब्राहम्णों को अब देश को दिशा देने वाला प्रबुद्ध समाज बताया जा रहा है। परशुराम को अन्याय के खिलाफ निरंतर संघर्श करने वाला नायक सिद्ध किया जा रहा है। परशुराम जयंती की सरकारी छुटटी भी कर दी गर्इ। इस मौके पर जातीय गणित को भुनाने की दृष्टि से कहा गया कि वे मुलायम सिंह ही थे, जिन्होंने ‘पदोन्नति में आरक्षण विधेयक को पारित होने से रुकवाया। ब्राहम्णों को भरोसा दिया कि उन पर जितने भी झूठे मुकदमे लादे गए हैं, वे समाप्त किए जाएंगे। यहां सवाल उठता है कि उस व्यवस्था को ही क्यों नहीं खत्म किया जाता जो झूठे व फर्जी मुकदमे दर्ज करने की सुविधा देती है ? फिर झूठे मामले क्या केवल ब्राहम्णों पर ही लादे गए हैं ? जातीय या राजनीतिक दुर्भावना के चलते ये सभी जाति और संप्रदाय के लोगों पर ही लादे गए होंगे, इन सभी को खत्म करने की बात अखिलेश क्यों नहीं करते ? इस सभा में विधानसभा अध्यक्ष माताप्रसाद पाण्डेय भी मौजूद थे।

वैसे सपा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए जातीय समीकरण के गुणाभाग का यह खेल बदलता रहा है। सपा के वोट बैंक का बड़ा आधार पिछड़े और मुसिलम रहे हैं। मायावती ने जब क्षत्रिय क्षत्रप राजा भैया पर पोटा का शिकंजा कसा था, मुलायम ने क्षत्रिय नेता अमरसिंह के साथ मिलकर क्षत्रिय मतदाताओं को रिझाने के लिए राजा भैया को खूब महिमामंडित किया था। किंतु अब अमर सिंह ने सपा से पल्ला झाड़ लिया है और उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्षत्रियों को अब क्षत्रिय राजनाथ सिंह ज्यादा लुभा रहे हैं, क्योंकि वे भाजपा के राश्टीय अध्यक्ष हैं और भाजपा में फिलहाल उनकी तूती सिर चढ़कर बोल रही है। इसलिए सपा ब्राहम्णों को रिझा रही है।

मनुवाद के वंशज और तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार जैसे जातीय घृणा फैलाने वाले नारों से बसपा ने किनारा कर लिया है। कांसीराम जब बसपा को विस्तार देने की मुहिम चला रहे थे, तब उन्होंने देश भर की दलित जातियों को एकजुट करने के नजरिये से आक्रामक तरीकों और प्रतीकों का सहारा लिया था। यही वह समय था, जब आरक्षण विरोधी आंदोलन चरम  पर था। इसी समय अयोध्या मंदिर का सवाल भी शुलग रहा था। इसमें सवर्ण जातियों के साथ पिछड़ी जातियां भी बढ़ चढ़कर भागीदारी कर रही थीं। लेकिन इसी कालखण्ड में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशे लागू करके इन दोनों गुब्बारों की हवा निकाल दी। नतीजतन पिछड़े, दलित और मुसिलमों की गोलबंदी ने उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिशा ही बदल दी। इस सामाजिक गठजोड़ के चलते सत्ता के शीर्ष से सवर्ण जातियां बेदखल हो गर्इं। इसके बाद से कोर्इ सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बना। किंतु सपा और बसपा में पिछड़े और दलितों का ध्रुवीकरण हो जाने के कारण यही ताकतें ब्राहम्णों को ललचाने में लगी हैं। और सपा व बसपा ही ब्राहम्णों के प्रतीक परशु को अपने कंधों पर धारण करके गौरवानिवत हो रहे हैं।

इसीलिए मनु बनाम ब्राहम्णवाद को तिलांजलि देकर, देश को 80 सांसद देने वाले उत्तर प्रदेश में दो विधानसभा चुनाव ब्राहम्णों को केंद्र में रखकर लड़े गए। बसपा सुप्रीमो मायावती ने सतीश मिश्र के मार्गदर्षक में 2007 में नर्इ सामाजिक इंजीनियरिंग रची और 86 ब्राहम्ण उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें 43 जीते। इस परिणाम के चलते बसपा पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हुर्इ। राजनीतिक फेरबदल में इस सोशल इंजीनियरिंग को एक चमत्कार माना गया। पर 2012 के चुनाव में यह जादू नहीं चला, क्योंकि ब्राहम्ण बसपा से छिटककर सपा की ओर मुड़ गए। बसपा अपने शासनकाल में जो दलित अधिनियम लार्इ थी, उसके उत्पीड़न का दंश ब्राहम्णों ने भी झेला था। हालांकि बसपा के अभी भी लोकसभा और राज्यसभा में मिलकर 10 ब्राहम्ण सांसद हैं। उसकी मंशा है यदि 16 फीसदी ब्राहम्ण और 24 प्रतिषत दलित मतदाताओं का गठजोड़ बन जाए तो उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से केंद्र में दखल के लायक सीटें जीत सकती है।इस लिहाज से बसपा ने अभी से लोकसभा के 36 प्रत्याशी घोशित कर दिए हैं, इनमें से 19 ब्राहम्ण है।

वोट की लालसा के चलते जातीय हित साधना गलत है। यह संकीर्ण राजनीतिक सोच को दर्षाता है। ब्राहम्णों के नायक परशुराम को एकाएक महत्व देने के लिए जिस तरह राजनीतिक दल सामने आए हैं, वह समावेशी नजरिया न होकर वोट कबाड़ने की राजनीतिक कुटिल चतुरार्इ है। जातीय महत्व क्या चुनावी नतीजे देंगे यह परिणाम तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इन फौरी उपायों से इतना जरुर साफ है, कि दलों का अपने कामकाज से भरोसा उठ गया है, इसलिए वे जातीय खेल खेलकर महज सत्ता को अपने कब्जे में बनाए रखना चाहते हैं। लोकतंत्र को मजबूत बनाए रखना है तो मतदाता को अपने विवेक से निर्णय लेने के लिए खुला छोड़ने की जरुरत है, जिससे लोकतंत्र की पवित्रता कायम रहे।

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here