पूर्वोत्तर में हिन्दी की अलख जगाई थी भगवती प्रसाद ने

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-

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पूर्वोत्तर भारत का ह्रदय स्थल गुवाहाटी है । गुवाहाटी की अपनी पहचान के दो प्रतीक हैं । नीलाचल पर स्थित माँ कामाख्या देवी और उनके चरण पखारता विराट ब्रह्मपुत्र । पूजा के लिये माँ कामाख्या को किसी भाषा की दरकार नहीं है और हर रोज़ अपनी लहरों से संगीत रचना कर रहे ब्रह्मपुत्र तो एक ही भाषा जानता है और वह भाषा है प्रकृति की । परन्तु आम आदमी को तो वह भाषा चाहिये जिसे वह बोल सके और लिख सके । क्योंकि बिना भाषा के उसका काम नहीं चल सकता । असमिया इस क्षेत्र की अपनी भाषा है । जन जन की भाषा । लेकिन एक भाषा ऐसी भी तो होनी चाहिये जिसे देश भर के लोग समझ सकें । महात्मा गान्धी जिन दिनों देश भर में स्वतंत्रता के लिये संघर्ष की अलख जगा रहे थे , उन दिनों वे देश भर का प्रवास करते करते यह भी समझ गये थे कि यह भाषा हिन्दी ही हो सकती है । असम तो पहले ही इस भाषा की प्रयोग स्थली बना हुआ था । माँ कामाख्या देवी के दर्शन करने के लिये देश भर से साधु सन्त आते रहते थे । कई कई दिन गोष्ठियाँ चलती थीं । संवाद रचना के लिये टूटी फूटी हिन्दी का ही सहारा लिया जाता था । लेकिन आज़ादी की लड़ाई में महात्मा गान्धी ने तो हिन्दी के प्रचार प्रसार को भी आज़ादी आन्दोलन का हिस्सा ही बना दिया था । असम में गान्धी जी के इस आन्दोलन के एक अग्रणी सेनानी बने भगवती प्रसाद लड़िया जी ।

महात्मा गान्धी १९३४ में गोलाघाट आये थे । कांग्रेस के काम में तो वे १९३२ से ही , जब उनकी आयु मात्र बारह साल की थी , छोटी मोटी भागदौड़ करने लगे थे । लेकिन उस दिन से लड़िया जी गान्धी जी के ही हो लिये। वैसे भगवती प्रसाद जी की औपचारिक शिक्षा केवल तीसरे दर्जे तक हुई थी । लेकिन सरस्वती के ऐसे साधक बने की अध्ययन का विराग ही पाल लिया । अनौपचारिक रुप से उनके अध्ययन का दायरा अनेक विषयों तक फैला हुआ था । असम में हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिये उन्होंने प्रदेश में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति को मज़बूत किया और स्वयं भी राष्ट्रभाषा प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की । उनकी हज़ार कोशिशों का ही परिणाम था कि १९४० में गोलाघाट जैसे छोटे से स्थान पर भी हिन्दी पुस्तकालय की स्थापना हुई । घर परिवार चलाने के लिये वे गोलाघाट में कपड़े की दुकान करते थे । लेकिन अब उनका मन साहित्य चर्चा में ज़्यादा लगता था । हिन्दी के अतिरिक्त उन्होंने असमिया और अंग्रेज़ी का साहित्य भी पड़ना शुरु कर दिया था । धीरे धीरे उनकी दुकान साहित्यप्रेमियों का अड्डा बनने लगी ।

१९४२ तक आते आते देश असहयोग आन्दोलन के ताप से तपने लगा । महात्मा गान्धी जी ने एक ही नारा दिया – विदेशी शासकों के सत्ता प्रतिष्ठान से अहिंसात्मक असहयोग करने का । गोलाघाट के भगवती प्रसाद भला कैसे चुप बैठ सकते थे ? कोलकाता से आन्दोलनकारियों ने एक पत्रिका निकालनी शुरु की , जिसका नाम था डू आर डाई । भगवती जी इस पत्रिका को नियमित समाचार तो भेजते ही थे साथ ही करो या मरो नाम से हिन्दी और असमिया में अनुवाद करके, इसे चोरी छिपे प्रकाशित करवाते  और दुकान के कपड़ों के गट्ठर में डाल कर गाँव गाँव में पहुंचाते भी थे । परिणाम यह हुआ की गोलाघाट के आसपास आन्दोलन तेज़ होने लगा । कई गाँवों में करो या मरो के अंक पुलिस के हाथ लगे । गुप्तचर विभाग सूंघ रहा था कि इस सबके पीछे है कौन ? आख़िर शक की सुई गोलाघाट में उस कपड़े की दुकान तक पहुँच ही गई जिसके गट्ठरों में करो या मरो के अंक पाये गये थे । भगवती प्रसाद जी की गिरफ़्तारी के वारंट निकल गये । अब हुआ तू डाल डाल मैं पात पात का खेल । पुलिस पीछे पीछे और भगवती जी आगे आगे । वे बचते बचाते राजस्थान तक पहुँच गये लेकिन पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े ।

१९४२ के इस आन्दोलन ने देश की राजनीति की दिशा ही बदल दी थी । परिणामस्वरूप अंग्रेज़ अपना बोरियाँ विस्तार समेट कर यहाँ से चले गये । केन्द्र में और राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं । असम में गोपीनाथ बारदोलाई मुख्यमंत्री बने । भगवती प्रसाद पर भी उनके शुभचिन्तकों ने बहुत दबाव बनाया की वे भी सत्ता की राजनीति में चले जायें । लेकिन भगवती प्रसाद तो किसी और ही मिट्टी के बने थे । स्वतंत्रता से पूर्व जो हिन्दी भाषा अंग्रेज़ विरोध का एक सशक्त माध्यम बन गई थी , उसी हिन्दी का कुछ लोगों ने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिये विरोध करना शुरु कर दिया था । भगवती प्रसाद ने अब हिन्दी प्रचार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया । वे इस आन्दोलन में इतना रम गये कि १९५० में उन्होंने गोलाघाट में अपनी अच्छी खासी कपड़े की चल रही दुकान बन्द कर नवीन पुस्तक भंडार के नाम से किताबों की दुकान खोल दी । उनके परिवार के लोग और दूर निकट के सम्बंधी हैरान थे । वैश्य कुल का हीरा होकर लक्ष्मी को ठोककर मार कर सरस्वती साधना करने चला है । वह भी असम में बैठ कर हिन्दी की साधना । लेकिन भगवती प्रसाद किसी और ही मिट्टी के बने हुये थे । महात्मा गान्धी के कार्य का सैनिक बनने का जो संकल्प ले लिया था , घर परिवार का विरोध होने के बावजूद उन्होंने फिर कभी जीवन भर पीछे मुड़ कर नहीं देखा ।

अब किताबें ही उनकी जीवन साथी थीं । कहीं से भी किसी चर्चित किताब के बारे में ख़बर मिलती तो तब तक चैन से न बैठते जब तक उसे मँगवा न लेते । उनका घर भी किताबों से भरने लगा । अनेक महत्वपूर्ण किताबें उन्होंने स्वयं प्रकाशित करवाईं । किताब अब उनका व्यवसाय नहीं रह गया था बल्कि उनका पैशन बन गया था और हिन्दी उनकी प्राण वायु । हिन्दी के प्रति उनकी इसी लगन को देखते हुये भारत सरकार ने उन्हें रेलवे बोर्ड की हिन्दी सलाहकार समिति का सदस्य बनाया था । पत्नी की मृत्यु हुई तो भगवती प्रसाद अत्यन्त व्यथित रहने लगे । भगवती देवी ने भगवती प्रसाद का पग पग पर साथ दिया था । लेकिन अब वही नहीं रही थी । फिर भी इस आघात को भगवती प्रसाद किसी तरह झेल गये । लेकिन जब एक बार बाढ़ का पानी घर में घुस आया और उनकी किताबों को नष्ट कर गया , तो उस प्रहार को वे झेल नहीं पाये और बीमार पड़ गये । किताबों को वे अपनी संतान ही मानते थे । लोग उन्हें असम का चलता फिरता एनसाईक्लोपीडिया ही कहते थे । असम का शायद ही कोई हिन्दी और असमिया भाषा का अख़बार होगा जिसमें समसामयिक विषयों पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित न होती हों । राष्ट्रभाव को लेकर वे सदा सचेत रहते थे । राष्ट्रभाव क्या होता है , इसके बारे में उनके मित्र राजकुमार झाँझी के ही शब्दों में ही, “भगवती प्रसाद लडिया अपनी बीमार पत्नी को  गंभीर बीमारी की हालत में इलाज हेतु सुदूर राजस्थान ले जा रहे थे। ट्रेन में काफी भीड़ थी। उनकी  पत्नी के  लिए बैठकर यात्रा करना कष्टप्रद था, अत: वे अपनी बर्थ पर सोयी हुई थीं। तभी ट्रेन में नाइजीरिया के  दो पर्यटक सवार हुए। उनके  पास रिजर्वेशन न होने की वजह से उन्हें सीट नहीं मिल पाई थी। लडिया जी नेे जब दोनों पर्यटकों को खड़े देखा तो उन्होंने उन्हें पास बुलाया और पत्नी को सोते से उठाकर बैठा दिया और विदेशी पर्यटक  दम्पति को  बैठने की  जगह दे दी। उनकी इस हरकत को देख पास बैठी एक शिक्षिका ने इस दरियादिली का कारण पूछा, तो वे बोल पड़े – ये बेचारे विदेश से आये हैं, अगर इन्हें हम उचित आतिथ्य नहीं देंगे तो इनके दिलों मे हमारे देश की गलत तस्वीर बनेगी। हम अपने देश को  बदनाम क्यों होने दें ।”

भगवती प्रसाद ने मारवाड़ी समाज में प्रचलित अनेक आडम्बरों का विरोध किया , विशेषकर धन सम्पदा के प्रदर्शन के वे बहुत विरोधी थे । मारवाड़ी समाज में विवाह शादी के अवसर पर प्रदर्शन उसका एक अंतरंग हिस्सा ही था । लेकिन लाडिया जी के प्रयासों से अनेक मारवाड़ी परिवारों ने विवाह अवसर पर अनार शाप पैसा न ख़र्च कर बचा हुआ पैसा निर्धनों के उत्थान के लिये ख़र्च किया । उदाहरण के लिये इसकी शुरुआत उन्होंने अपने घर से ही की। लेकिन धीरे धीरे शरीर शिथिल होने लगा । परन्तु मन से सदा सर्वदा की तरह सचेत थे । २३ अगस्त २००६ को ८६ साल की आयु में वे अपनी इहलीला समाप्त कर परलोकगामी हुये । असम में हिन्दी का एक स्तम्भ ढह गया । मारवाड़ी समाज ने अपने इस महापुरुष को वरपेटिका पंजिका पंचांग में स्थान देकर श्रद्धांजलि अर्पित की । ज्योति प्रसाद अग्रवाल के बाद इस पंजिका में स्थान पाने वाले भगवती प्रसाद दूसरे महापुरुष हैं ।

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  1. असम के हिन्दी भक्त श्री भगवती प्रसाद लड़िया जी पर यह लेख बड़ा सूचना प्रद और पठनीय है । लेखक को बधाई ।

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