निराशा के गर्त में

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डॉ. सतीश कुमार

निराशा के गर्त में ,
डूबे हुए को ,
आशा की संजीवनी से सींच
नवजीवन देना।

नाउम्मीदी में डूबी, उनींदी,
पथराई आंखों में,
आशा की ,
गिद्ध की आंखों की-सी,
चमक पैदा कर देना।

हताश, अवाक्,
अंधकारपूर्ण भविष्य से,
आंखों में आई ढी़ढ़,
वाले इंसान को,
सुबह की नयी किरण से, उत्साहपूर्ण पांखेंफड़फड़ाते,
आसमान में उड़ते,
अपनी पांखों को तोलते,
अपने पर पूर्ण विश्वासकरते,
व्यक्तित्व वाला बना देना।

किसी के बहते,
आंसुओं को पोंछना।
उदास चेहरे पर,
थोड़ी-सी मुस्कराहट,
ले आना।
रोते हुए को हंसा देना।

ना को,
हाँ में परिवर्तित कर देना।
नहीं करूँगा,
नहीं कर सकता,
को मैं ही करूँगा,
मैं ही कर सकता हूँ
तक ले आना।

‘आप’ को ‘तुम’,
‘तुम ‘को ‘तू ‘तक लाकर,
परस्पर संबंधों को सहज,
सामान्य बनाना।

संबंधों में आई,
दरारों, दूरियों को,
नजदीकियों में,
बदल देना।

आसान नहीं होता,
कुछ भी,
आसान बनाना पड़ता है।
खुद रोकर,
जग को हंसाना होता है।
खुद को खोकर,
जग को पाना होता है।

फिर भी जरूरी नहीं,
जो मन में है,
वह मिल ही जाए।
तब भी अपने हिस्से का कर्म
ना थके, ना रूके,
निरन्तर करते जाना
तेरी, मेरी, इसकी, उसकी
जिंदगी का ,
यही तो फसाना है,
है बहुत कठिन,
फिर भी करते जाना है।

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