सियासी सूझबूझ और शुचिता कूट कूट कर भरी दिख रही वरूण गांधी में . . .

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लिमटी खरे

नेहरू गांधी परिवार में जवाहर लाल नेहरू के बाद की चौथी पीढ़ी में राहुल गांधी, प्रियंका वढ़ेरा और वरूण गांधी तीन सदस्य हैं। इनमें राहुल व प्रियंका कांग्रेस में तो वरूण भाजपा का अंग हैं। वरूण गांधी अभी 42 साल के हैं, पर राजनैतिक कौशल और सूझबूझ के मामले में वरूण गांधी का शायद ही कोई सानी हो। भाजपा में उन्हें ज्यादा वजनदारी वाले पद नहीं मिले हैं, फिर भी उनके द्वारा जिस तरह की बातें कहीं जाती हैं, उन्हें देखकर लगता है कि वरूण गांधी को अगर मौका मिलेगा तो वे अपने आप को बेहतर तरीके से साबित भी कर सकते हैं।
हाल ही में वरूण गांधी के द्वारा लिखा गया एक लेख कुछ अखबारों की सुर्खियां बना हुआ है। वरूण गांधी वैसे तो लाईम लाईट से दूर रहने के आदि दिखते हैं, पर उनके द्वारा समय समय पर जिस तरह के विचार प्रकट किए जाते हैं, वे उनकी राजनैतिक सूझबूझ और शुचिता को दर्शाने के लिए पर्याप्त माने जा सकते हैं। वरूण गांधी में राजनैतिक सूझबूझ मानो कूट कूट कर भरी हुई है, जरूरत है तो जिम्मेदारी देकर उसे निखारने की।
वरूण गांधी लिखते हैं कि संसद में लगभग 15 लाख लोगों का जनादेश पाकर एक सांसद जब संसद पहुंचता है तो उस पर जिम्मेदारियों का बोझ होता है। उन्होने कहा कि लंबे समय से देखा जा रहा है कि लोकसभा से लेकर हर सूबे के विधानसभा परिसर सत्ताधारी पार्टी के मुख्यालय में बदल जाते हैं। वे लिखते हैं कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का वचन लेकर कुर्सी ग्रहण करने के बाद सांसद और विधायक व्हिप-वचन को निभाने के लिए ऐसे मजबूर होते हैं कि पार्टी के थोपे विचार को बदलने से डरते हैं। व्हिप के विरोध में पार्टी छोड़ कर किसी दूसरी जगह जाएंगे तो दल-बदल कानून का डर सामने आता है।
वरूण गांधी ने बहुत साफगोई के साथ लिखा है कि सदन में बहस के बजाए कमोबेश गणेश परिक्रमा को ही तवज्जो दी जाती है। पार्टी व्हिप के खिलाफ जाने पर पर जनप्रतिनिधि अपनी सीट खो भी सकता है। सांसदों के द्वारा केवल व्हिप द्वारा रेखांकित किए गए बटन को दबाया जाता है, वे कहते हैं कि पार्टी प्रणाली एक सांसद के रूप में उनके रूख को तय करने का काम करती है। सांसद वरूण गांधी ने यहां तक कहा कि देश में 543 सांसदों में से 250 से ज्यादा सांसद ऐसे हैं जो किसान होने का दावा करते तो हैं पर कृषि कानून के पेश होने के दौरान वे मौन रहे, क्यों!
वरूण गांधी के द्वारा अंग्रेजी के एक अखबार में लेख लिखा है जो मास यानी आम जनता तक भले ही न पहुंच पा रहा हो पर इसकी पहुंच उस आम जनता को दिशा देने वाले क्लास अर्थात विशिष्ट जनों की पहुंच तक तो आसानी से जा चुका है। भाजपा के नेता वरूण गांधी इसके पहले भी समय समय पर देश की व्यवस्थाओं पर सटीक टीका टिप्पणी की है। यह अलहदा बात है कि कांग्रेस के शासनकाल में उनकी आवाज को मीडिया ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी, और अब चूंकि वे धारा के विपरीत तैरने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए भी उनकी आवाज को बहुत ज्यादा गुंजायमान शायद नहीं किया जा रहा है।
देखा जाए तो वरूण गांधी ने व्हिप के बारे में जो कहा वह सही माना जा सकता है। होना यह चाहिए कि किसी मामले में कानून बनाए जाने पर उसे सदन में पेश किए जाने के पहले उसे पार्टी के सांसदों या विधायकों के समक्ष रखा जाना चाहिए। फिर चुने हुए प्रतिनिधियों की उस मामले में सकारात्मक व नकारात्मक राय के हिसाब से उसमें संशोधन कर उसका मसौदा बनाया जाना चाहिए। इस तरह अगर अफसरों के द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर चुने हुए प्रतिनिधियों को व्हिप से बांधकर जबरन उसे पारित कराए जाने की कवायद की जाती है तो यह उचित नहीं माना जा सकता है।
वरूण गांधी के लेख को अगर आप बारीकी से पढ़ें तो पता चलता है कि उनके द्वारा दल बदल विरोधी कानून को किस तरह से हथियार बनाया जा रहा है, को रेखांकित करने का प्रयास किया है। चुने हुए जन प्रतिनिधि को यह डर लगातार ही सताता रहता है कि अगर वह पार्टी व्हिप के खिलाफ जाता है तो उसकी सदस्यता पर भी खतरा मण्डरा सकता है। इसलिए मन मारकर वह पार्टी लाईन पर चलने को तैयार हो जाता है।
हम सालों से एक बात कहते आ रहे हैं कि कोर्ठ भी सियासी पार्टी का कार्यकर्ता जब पैदा होता है तो वह भारत का नागरिक होता है, इस लिहाज से उसकी पहली निष्ठा राष्ट्र के पति होना चाहिए। उसके बाद जिस प्रदेश में, जिस जिले में वह जन्म लेता है या कर्मभूमि बनाता है उस जिले के प्रति उसकी निष्ठा होना चाहिए। अमूमन जिला स्तर पर भी यही देखा जाता है कि गलत कामों या नीतियों का विरोध आम कार्यकर्ता यह कहकर नहीं कर पाता है वह पार्टी लाईन से बंधा है। वह भूल जाता है कि उसके द्वारा किसी भी सियासी दल की सदस्यता लगभग 18 साल की आयु पूरी करने के बाद ही ली होगी, पर जिस जिले का निवासी है उस जिले के प्रति उसकी प्रतिबद्धताएं पहले हैं।सही है कि चुनावों में किए गए वायदों के कागज किसी भी छोटे से कस्बे की धूल के गुबार वाली सड़क से सदन तक पहुंचने वाली चमचमाती सड़क पर इस तरह उड़ते नजर आते हैं मानो किसी परचून की दुकान से खरीदी गई सामग्री में लिपटा कागज हो। हर बार जनता से लुभावने वायदे, फिर उन वायदों को भूल जाना . . ., कभी विपक्ष में रहने की दुहाई देना तो कभी पक्ष में रहने के बाद अपनी दीगर मजबूरियां गिनाना . . ., हमारा कहना तो यह है कि अगर इतनी ही मजबूरी है कि आप अपने क्षेत्र का विकास करने में अपने आप को सक्षम नहीं पा रहे हैं तो वरूण गांधी की तरह साफगोई से अपनी बात कहने का साहस तो करें, बताएं अपने मतदाताओं को कि उनके क्षेत्र के विकास में बाधक कौन बन रहा है!

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