किसके हाथ में है राम जन्मभूमि का फैसला?

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देवांशु मित्तल

 

कुछ युवा राम भक्तों की भावनाएं उफान पर पहुंची, सारा परिसर “जय श्री राम” के नारों से गूँज गया और देखते ही देखते दुनिया की सबसे विवादास्पद इमारतों में से एक बाबरी का ढांचा गिर गया. लेकिन ऐसा नहीं है कि 6 दिसम्बर 1992 की इस अप्रिय घटना ने ही राम के लिए इस लड़ाई को मुख्य रूप से जन्म दिया हो. इस मामले ने 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ही अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे. वर्तमान में ये मामला देश के सबसे संवेदनशील मुद्दों में से एक है. इसकी आंच पर अनेकों बार सियासी दल अपनी रोटी सेंक चुके है और देश के सामने स्पष्ट हो चुका है कि इसका निर्णय केवल और केवल सर्वोच्च न्यायलय ही कर सकता है. लेकिन हाल ही में जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को जनवरी तक टाल दिया है, लोगों का न्याय व्यवस्था से भी विश्वास उठने लगा है. अब इस बात को नज़रंदाज़ करते हुए देश के सभी नागरिकों को जानना चाहिए कि आखिर इस मामले की सुनवाई की बागडोर किसे दी गई है.

 

राम जन्मभूमि विवाद की सुनवाई करने वाली वर्तमान न्यायपीठ में सर्वोच्च न्यायालय के 3 वरिष्ठ न्यायधीश नियुक्त किए गए है. इनमे भारत के वर्तमान मुख्य न्यायधीश जस्टिस रंजन गोगोई, वरिष्ठ न्यायधीश जस्टिस संजय किशन कॉल और जस्टिस के.एम. जोसफ शामिल है. सुप्रीम कोर्ट में लंबित किसी भी हाई प्रोफाइल मामले की सुनवाई भारत के मुख्य न्यायधीश के निर्णय से बनी न्यायिक पीठ करती है. अयोध्या मामले के लिए भी न्यायिक पीठ इसी प्रक्रिया से स्थापित हुई है.

क्रमशः रंजन गोगोई इस न्यायपीठ में सबसे वरिष्ठ न्यायधीश होने के साथ-साथ भारत के मुख्य न्यायधीश का कार्यभार भी संभाल रहे है. साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायधीश द्वारा की गई प्रेस कांफ्रेंस में जस्टिस (सेवानिवृत्त) जे. चेलमेश्वर के बाद रंजन गोगोई सबसे वरिष्ठ न्यायधीश थे. कुछ समय बाद ही जे. चेलमेश्वर के सेवा निवृत्त होने के कारण रंजन गोगोई सबसे वरिष्ठ न्यायधीश माने गए और अक्टूबर में मुख्य न्यायधीश के रूप में नियुक्त किए गए. जहाँ श्री गोगोई पूर्वोत्तर से आने वाले पहले मुख्य न्यायधीश बने वही उनके पिता केशब चन्द्र गोगोई असम के पूर्व मुख्यमंत्री और एक कद्दावर कांग्रेसी नेता रह चुके है. रंजन गोगोई ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज और फैकल्टी ऑफ़ लॉ से पढाई पूरी की. 2012 में सुप्रीम कोर्ट के जज नियुक्त किए जाने से पहले वे पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस भी रह चुके है. अपने न्यायिक करियर के दौरान रंजन गोगोई अमिताभ बच्चन की संपत्ति मामले और असम के मूल निवासी मामले समेत कई सुर्खियाँ प्राप्त मामलो की सुनवाई भी कर चुके है.

 

इसके बाद जस्टिस संजय किशन कॉल का नाम आता है. जस्टिस एस.के. कॉल को 3 साल मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश के रूप में सेवा देने के बाद 2017 में सर्वोच्च न्यायालय में जज के रूप में नियुक्त किया गया था. ये कहना गलत नहीं होगा कि जस्टिस कॉल को राज्य व्यवस्था में सेवा देने का अवसर विरासत में ही मिला है. जस्टिस कॉल के पर-पर दादा राजा सूरज किशन कॉल स्वतंत्रता-पूर्व जम्मू एवं कश्मीर रियासत में राजस्व मंत्री थे. उनके पर-दादा सर दया किशन कॉल जम्मू-कश्मीर रियासत में ही वित्त मंत्री थे. संजय किशन जी के दादा भी एक उत्कृष्ट लोक सेवक के रूप में जाने जाते है और उनके भाई नीरज किशन कॉल खुद दिल्ली उच्च न्यायालय में जज रह चुके है. एक समृद्ध परिवार व लोक-सेवक पृष्ठभूमि से आने वाले जस्टिस कॉल निजता को मौलिक अधिकार के मामले की सुनवाई कर चुके है. 2008 में एम.एफ. हुसैन के विवादास्पद भारत माता के चित्र जैसे चर्चित मामले की सुनवाई के लिए भी न्यायधीश एस.के. कॉल जाने जाते है.

 

अंत में जस्टिस कुटीयल मैथ्यु जोसफ भले ही इसी साल सुप्रीम कोर्ट जज नियुक्त हुए हो लेकिन अनुभव और पृष्ठभूमि के आधार पर वे भी अन्य किसी वरिष्ठ न्यायधीश से कम नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति से पहले जस्टिस जोसफ उत्तराखंड के मुख्य न्यायधीश का कार्यभार भी संभाल चुके है. 2005 में केरल हाई कोर्ट के न्यायधीश नियुक्त हुए जस्टिस जोसफ के पिता जस्टिस के.के. मैथ्यु भी उच्चतम न्यायालय के जज रह चुके है और 10वे कानून आयोग के अध्यक्ष के रूप में भी सेवाएँ दे चुके है. जस्टिस जोसफ पर सभी का ध्यान तब गया जब उन्होंने 2016 में उत्तराखंड राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगने दियाऔर केंद्र सरकार को एक बड़ा झटका दिया. 2017 में एक बार फिर सबका ध्यान जोसफ पर गया जब रिटायर्ड जज चेलमेश्वर ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट जज के रूप में नियुक्त न किए जाने पर सवाल उठाए.

 

इन तीन न्यायाधीशों की पीठ सरकारें पलट देने वाले श्री रामजन्मभूमि मामले की सुनवाई कर रही है. लेकिन एक सवाल करोड़ों श्रद्धालुओं के मन को कौंधता है. वो ये कि क्या एक विचारधारा विशेष के अनुयायिओं की बहुसंख्यता के कारण न्याय परिषद की निष्पक्षता डांवाडोल तो नहीं हो रही.अब इस मुद्दे की सुनवाई कर रही इस न्यायिक पीठ की पृष्ठभूमि दोबारा देखते है.

2016 में एक बलात्कार के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने अपराधी को फांसी की सजा सुनाई थी. इस फैसले के खिलाफ दाखिल की गई याचिका की सुनवाई करते हुए जस्टिस रंजन गोगोई की एपेक्स न्याय पीठ ने अपराधी को दी गई फांसी की सजा को निरस्त कर आजीवन कारावास की सजा सुनाई. जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने इस नारी-विरोधी फैसले को न्याय व्यवस्था में एक अनुभवी जज की “सबसे गंभीर त्रुटी” कहा. साथ ही केरल के मुख्यमंत्री पिनारायी विजयन समेत कई कम्युनिस्टों ने भी इस फैसले का विरोध किया. इसके अलावा जैसा कि पहले बताया गया कि रंजन गोगोई के पिता केशब चन्द्र एक कद्दावर कांग्रेसी नेतारहे है, श्री राम जन्मभूमि में आस्था रखने वाले असंख्य लोगो में अविश्वास का माहौल है.

 

जस्टिस संजय किशन कॉल पर भी जनमानस में ऐसा ही अविश्वास दिखाई देता है. एम.एफ. हुसैन द्वारा बनाई गई विवादास्पद “भारत माता” चित्र में देश को एक निर्वस्त्र नारी के रूप में प्रदर्शित किया गया जिसके बाद जन भावनाओं को गहरा आघात पहुंचा था. लेकिन जन भावनाओं को नज़रंदाज़ करते हुए जस्टिस कॉल ने एम.एफ. हुसैन के पक्ष में फैसला दिया. उन्होंने कहा कि बहुलवाद गणतंत्र का मूल होता है और उसकी गुणवत्ता का मापदंड उस देश में प्रदान की गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. इस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने जन भावनाओं की धज्जियाँ उड़ाना ही अगर न्याय व्यवस्था का प्रचलन बन चुका है तो जलती हुई अयोध्या को न्याय मिलना मुश्किल ही प्रतीत होता है.

 

ये कहना गलत नहीं होगा कि इस न्यायपीठ के तीसरे जज के.एम. जोसफ का न्यायधीश पद ही एकतंत्र शासन का उदाहरण है. ये बात पानी की तरह साफ थी कि जस्टिस जोसफ आल इंडिया सेनिओरिटी रैंकिंग में 42वें स्थान पर थे और उनसे पहले 11 अन्य मुख्य न्यायधीश सर्वोच्च न्यायालय के जज बनने के हकदार थे. इसके साथ ही केंद्र सरकार ने पूरी स्पष्टता से समझाया कि उच्चतम न्यायालय में जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, राजस्थान, गुजरात, इत्यादि जैसे कई राज्यों के प्रतिनिधित्व की कमी है. जबकि केरल से पहले ही एक न्यायधीश नियुक्त किए जा चुके है. लेकिन न्याय पालिका में क्षेत्रवाद और विचारधाराविशेष को प्रबल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम श्री जोसफ के नाम पर अड़ गया और सरकार को दबाव में आ कर उनके नाम पर हरी झंडी दिखानी ही पड़ी.

 

इन तथ्यों के आधार पर लोगों में डर है कि कही ये न्यायिक पीठ पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो कर एक पक्ष की और झुकी हुई तो नही. ऐसे में संविधान अनुसार और राष्ट्र की संस्कृति के उपयुक्त निर्णय का होना मुश्किल ही लगता है. कई समाज वैज्ञानिक को भी यह आशंका है कि इस स्थिति में देश के हालात बेहतर होने की जगह गर्त में ही है. अतः सभी नागरिक एक ऐसे निर्णय की ही कामना कर रहे है जो शांति स्थापित करने वाला और “धर्म” की सही व्याख्या करने वाला हो.

 

 

 

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