आधी-अधूरी आजादी

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-अरविंद जयतिलक-

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15 अगस्त 1947। आजादी की नई सुबह। लालकिले के प्राचीर पर तिरंगा लहराते ही सैकड़ों साल की गुलामियत की पीड़ा का ज्वार शांत हो गया। एक ऐसे सामर्थ्यवान, समतावादी और लोकतंत्रात्मक राष्ट्र का उदय हुआ जिसकी अंतश्चेतना में समाज के अंतिम पांत के अंतिम व्यक्ति के आंसू पोछने का संकल्प था। समाज में आर्थिक बराबरी लाने और भेदभाव मिटाने का जज्बा था। दो राय नहीं कि आजादी के इन 66 सालों में देश ने ढे़र सारी उपलब्ध्यिां अर्जित की हैं।

देश में लोकतंत्र मजबूत हुआ है और संसद में आमजन की नुमाइंदगी बढ़ी है। हाशिए पर खड़े लोग मुख्य धारा में आए हैं और संविधान ने वंचित लोगों को समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों से लैस किया है। शिक्षा और जागरुकता से सामाजिक भेदभाव कम हुए हैं। खाद्यान के मामले में देष आत्मनिर्भर हुआ है और सड़क, बिजली व पानी का विस्तार हुआ है। बड़े उद्योगों की स्थापना और कृषि उत्पादन में वृद्धि से लोगों की प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी है तथा जीवन स्तर में सुधार हुआ है। जीवन-प्रत्याशा बढ़ी है और मृत्यु दर में कमी आयी है। लेकिन सच यह भी है कि देश की बड़ी आबादी आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरुम है। जीने के लिए दो जून की रोटी, पीने को स्वच्छ पानी और सिर छिपाने को मकान उपलब्ध नहीं है। जबकि साढ़े छः दशक से लगातार विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से सुविधाएं उपलब्ध कराने का वादा किया जा रहा है। तमाम आर्थिक सुधारों और लोकोपयोगी जनयोजनाओं के बाद भी गरीबी में कमी नहीं आयी है। विश्व के कुल 42 फीसद गरीबों में सर्वाधिक संख्या भारतीयों की है। जबकि सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा है।

दुर्भाग्य कि साढ़े छः दशक से गरीबी हटाओ का नारा के बाद भी देश में गरीबों की संख्या में कमी नहीं आयी है। देश की 40 फीसद आबादी भूखमरी की शिकार है और इतनी ही आबादी कुपोशण की शिकार है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट भारत को भुखमरी से लड़ने वाले देशों में फिसड्डी मानती है। भारत उन 29 देशों में शामिल है, जहां भुखमरी का स्तर सबसे ज्यादा है। वही दूसरी ओर देश के 10 फीसद लोगों के पास 90 फीसद पूंजी है और 90 फीसद आबादी 10 फीसद पूंजी में जीवनयापन कर रही है। मल्टीडाइमेंशनल पावर्टी इंडेक्स की रिपोर्ट बताती है कि देष के आठ राज्यों बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, यूपी और प. बंगाल में गरीबों की संख्या 42 करोड़ है जो अफ्रीका के 26 निर्धनतम देशों की 41 करोड़ गरीबों की संख्या से भी ज्यादा है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि देश की बड़ी आबादी आज भी 20 रुपए रोजना पर गुजर-बसर कर रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य का हाल भी कम बुरा नहीं है। विश्व के श्रेष्ठ सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। सूचना कानून अधिकार के बाद भी निजी विद्यालय गरीब बच्चों को शिक्षा देने को तैयार नहीं है। विगत दशक में देश में हजारों मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेज खुले हैं। लेकिन स्तरीय शिक्षा न मिलने के कारण बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। देश की वर्तमान बेरोजगारी दर 10‐7 फीसदी के आसपास है। अनुमान यह है कि अगर रोजगार का सृजन नहीं हुआ तो 2020 तक यह बेरोजगारी दर 30 फीसदी का आंकड़ा पार कर जाएगा। उचित इलाज के अभाव में हर साल ढाई करोड़ बच्चे जन्म के कुछ माह के अंदर दम तोड़ रहे हैं। पांच साल की उम्र के बच्चों में 43 फीसद अंडरवेट हैं। इलाज के अभाव में 20 वर्ष से कम उम्र की 50 फीसद महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ती हैं। क्या यह आर्थिक असमानता और गैर-बराबरी आजादी को आईना दिखाने वाला नहीं है? समझना होगा कि महान राष्ट्र का सपना तब पूरा होगा जब देश में शांति, सुरक्षा, सुशासन, गैर-बराबरी और सामाजिक-आर्थिक न्याय को मजबूती मिलेगी। जब आधी आबादी और बच्चों पर होने वाले अत्याचार बंद होंगे। जब न्याय व्यवस्था से पीड़ित लोगों को तत्काल मदद मिलेगी। जब सरकार की योजनाओं का शत-प्रतिशत लाभ गरीबों और वंचितों तक पहुंचेगा। लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हो रहा है। समाज में जागरुकता के बाद भी लैंगिक असमानता बरकरार है। भ्रूण हत्या चरम पर है। बेटियां दहेज की बलि बेदी पर स्वाहा हो रही हैं। उनके लिए क्या घर, सड़क अथवा कार्यालय सभी असुरक्षित हैं। बलात्कार की घटनाओं से राष्ट्र शर्मिंदा है। आजादी के दीवानों की मंशा थी कि समाज में जाति और मजहब की दीवार टूटे। लोगों में भाईचारा बढ़े। लेकिन सच्चाई है कि जाति और मजहब की दीवारें पहले से और मजबूत हुई हैं। सत्ता के लिए सियासतदानों ने देश को जातियों, बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में विभाजित कर दिया है। लिहाजा समाज में नफरत की भावना बढ़ी है। इन साढ़े छः दशक में राजनेताओं ने अपनी स्वार्थ की पूर्ति के लिए देश को बर्बाद करने का कोई कसर छोड़ा नहीं है। इसी का नतीजा है कि आज देश नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद और क्षेत्रीयता जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है। आज की तारीख में नक्सलवाद से डेढ़ दर्जन से अधिक राज्य पीडि़त हैं। हर रोज आतंकवाद से देष झुलस रहा है। भाषा और क्षेत्र के आधार पर राज्यों की मांग बढ़ रही है। दूसरी ओर आर्थिक उदारवाद के नाम पर पूंजीपतियों की झोली भरा जा रहा है। गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। क्या यह स्थिति आजादी के समाजवादी सपनों के अनुकूल है? सच्चाई है कि साढ़े छः दशक के कालखंड में किसी भी सरकार ने सामाजिक-आर्थिक नीति पर गंभीरता से विचार नहीं किया। सभी ने उदारीकरण की आड़ में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। नतीजा सामने हैं। आज देश भ्रष्टाचार के मामले में एशिया प्रशांत क्षेत्र के 16 देशों में चौथे स्थान पर है। सालाना लाखों करोड़ रुपए की ब्लैक मनी तैयार होती है और उसका बड़ा हिस्सा विदेशी बैंकों में जमा होता है। सरकार इसकी वापसी को लेकर गंभीर नहीं है। उल्टे कालेधन की मांग करने वाले लोगों के खिलाफ दमनचक्र चला रही है। पिछले दिनों भ्रष्टाचार और कालाधन के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले अन्ना और रामदेव के आंदोलन को सरकार ने किस तरह अलोकतांत्रिक तरीके से कुचला दुनिया ने देखा। सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी कुचल रही हैं। सुरक्षा के मोर्चे पर भी देश खतरनाक स्थिति में है। देश को वाह्य और आंतरिक दोनों ओर से कड़ी चुनौती मिल रही है। जहां चीन पूर्वोत्तर में भारतीय भू-भाग को झपटने में जुटा है वही सीमा पार पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से देश लहूलुहान है। दूसरी ओर नक्सली आए दिन जवानों की खून से होली खेल रहे हैं। यह राष्ट्र की आत्मा से खिलवाड़ है। आजादी का असली सपना तब पूरा होगा जब सत्ता-सल्तनतें नैतिक होंगी और सार्वजनिक पद पर आसीन लोग ईमानदार होंगे।

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