समाज में नकारात्मकता की बढ़ती स्वीकार्यता

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निर्मल रानी

  

पौराणिक कथाओं के अनुसार जहां भारत को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की पावन धरती के नाम से जाना व पहचाना जाता है वहीं आधुनिक इतिहास में भारत की पहचान गांधी के देश के रूप में होती है। भगवान राम हों या महात्मा गांधी दोनों ही त्याग-तपस्या,सत्य व अहिंसा के रूप में याद किए जाते हैं। भगवान राम ने जहां अपने जीवनकाल में माता-पिता के आदेश की पालना,भ्राता प्रेम,राजपाट के त्याग,प्राणियों में सद्भाव,घोर तपस्या तथा अहंकार के अंत के रूप में अपनी पहचान बनाई वहीं महात्मा गांधी ने भी सच्चाई के साथ बड़ी से बड़ी ताकत का अहिंसा के साथ मुकाबला करने,भगवान राम के आदर्शों पर चलते हुए त्याग व तपस्या का अनुसरण करने,समाजिक प्रेम व सद्भाव के लिए स्वयं को कुर्बान कर देने जैसा आदर्श प्रस्तुत किया। यही वजह है कि भगवान राम को भारतीय समाज भगवान के रूप में स्वीकार करता है जबकि आधुनिक इतिहास के महानायक के रूप में महात्मा गांधी को भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व स मान की नज़रों से देखता है। निश्चित रूप से उपरोक्त महापुरुष विश्व के अनेक विशिष्ट लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत व आदर्श पुरुष की हैसियत भी रखते हैं। भारतवर्ष में प्रत्येक वर्ष पूरे हर्षोल्लास के साथ रामनवमी का मनाया जाना तथा विजयदशमी के अवसर पर रावण वध का चित्रण करते हुए रामलीला का मंचन करना तथा भगवान राम की 14 वर्षों के वनवास से वापसी के जश्र स्वरूप दीपावली का मनाया जाना जहां हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के व्यक्तित्व तथा उनके आदर्शों की याद दिलाता है वहीं प्रत्येक वर्ष 2 अक्तूबर को गांधी जयंती के अवसर पर पूरा राष्ट्र महात्मा गांधी को याद कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। पूरे देश में इस्तेमाल किया जाने वाला खादी का वस्त्र भी हमें महात्मा गांधी की स्वदेशी पर निर्भरता की नीति का संस्मरण कराता है।
परंतु इसे इस देश का दुर्भाग्य कहें या धर्म-जाति,संप्रदाय तथा वर्गों में बंटते जा रहे समाज की त्रासदी कि आज इसी देश में भगवान राम के अनुयाईयों के साथ-साथ उस राक्षस रावण के अनुयाई भी नज़र आने लगे हैं जिसका भगवान राम ने अपने हाथों से वध करते हुए पूरी मानवता को बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश दिया था। गत् एक दशक से देश में चारों ओर ऐसी शक्तियां सिर उठा रही हैं जो कहीं खुलकर तो कहीं दबी ज़ुबान में रावण का समर्थन तथा उसकी पैरवी करती दिखाई देती हैं। देश में अनेक रामलीला कमेटियों के पास इस प्रकार के धमकी भरे पत्र भेजे जाते हैं जिसमें रावण दहन न करने तथा करने पर किसी भी अनहोनी घटना का सामना करने के लिए तैयार रहने की धमकी दी जाती है। अब तो कुछ ऐसी खबरें भी आने लगी हैं कि रावण दहन के लिए तैयार किए गए रावण के पुतले को कुछ ‘रावण समर्थक लोग रामलीला मैदान से बलपूर्वक उठाकर ले गए और उसका किसी नदी में विसर्जन कर दिया। इतना ही नहीं बल्कि इन लोगों ने आयोजकों को भविष्य में रावण दहन के लिए रावण का पुतला न बनाए जाने की चेतावनी भी दी। यह ‘रावण समर्थक कौन हैं, किस जाति या वर्ग के हैं तथा रावण के प्रति इतनी हमदर्दी क्यों रखते हैं, इस बहस में पडऩे के बजाए हमें पौराणिक कथाओं की इस घटना से केवल यही सीख लेनी चाहिए कि राक्षस रूपी रावण एक अहंकारी,दुराचारी व्यक्ति था जो अपने बल व अहंकार के आगे किसी की कुछ नहीं सुनता था। उसने छल व अहंकार के रास्ते पर चलते हुए सीता हरण का दु:साहस किया। जिसके परिणामस्वरूप भगवान श्री राम ने उसके भाई विभीषण की सहायता से उसका वध कर डाला। स्हस्त्राब्दियों से भारतीय समाज भगवान राम द्वारा रावण का वध किए जाने का उत्सव मनाता आ रहा है तथा रावण को बुराई के प्रतीक के रूप में देखता आ रहा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि रावण के समर्थकों को रावण में आज ऐसी कौन सी विशेषता दिखाई दे रही है जिसके चलते उन्हें रावण दहन का मंचन सहन नहीं हो रहा है? कहीं यह समाज में बुराईयों की स्वीकार्यता के लक्षण तो नहीं जो हमें रावण के समर्थन के रूप में दिखाई दे रहे हैं?
यही स्थिति गांधी के देश में गांधी के साथ भी होती देखी जा रही है। जिस देश में सत्य व अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के नाम से 2 अक्तूबर को गांधी जयंती सरकारी व $गैर सरकारी स्तर पर मनाई जाती हो अब उसी देश में महात्मा गांधी के हत्यारे नाथू राम गोडसे की जयंती मनाने तथा उसकी मूर्ति स्थापित करने व उसके समर्थकों द्वारा गोडसे की शान में $कसीदे पढऩे का चलन भी शुरु हो चुका है। गत् 19 मई को गुजरात के सूरत जि़ले के लिंबायत क्षेत्र में स्थित सूर्यमुखी हनुमान मंदिर में नाथू राम गोडसे का जन्मदिन मनाया गया। हिंदू महासभा द्वारा किए गए इस आयोजन में नाथू राम गोडसे के चित्र पर माल्यार्पण किया गया। उसके समक्ष दीप प्रजव्वलित किए गए, मिष्ठान वितरण भी किया गया तथा गोडसे की स्मृति में भजन गायन किया गया। हालांकि $खबरों के अनुसार गोडसे के जन्मदिन मनाने की $खबर मिलते ही सूरत का पुलिस प्रशासन सक्रिय हो उठा तथा तत्काल कार्रवई करते हुए हिंदू महासभा के 6 कार्यकर्ताओं को पुलिस ने गिर$ तार भी कर लिया। गत् पांच वर्षों में पूरे भारतवर्ष में अनेक ऐसे आयोजन हो चुके हैं जहां गोडसेवादियों द्वारा गोडसे को ‘महात्मा गोडसे के रूप में प्रस्तुत किया गया तथा महात्मा गांधी को राष्ट्रविरोधी तथा हिंदू विरोधी प्रमाणित करने की कोशिश की गई। इंतेहा तो यह है कि गोडसे को अपना आदर्श तथा राष्ट्रवादी बताने वालों में देश के अनेक मंत्री,सांसद तथा विधायक भी शामिल हैं। रावण के पक्षधरों की ही तरह गोडसे के पक्ष में भी तरह-तरह की दलीलें पेश की जा रही हैं। यह बताने की कोशिश की जाती है कि आखिर क्या वजह थी कि नाथू राम गोडसे व उसके साथियों को महात्मा गांधी की हत्या जैसा अंतिम $कदम उठाना पड़ा। पिछले दिनों तो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर नामक भारतीय जनता पार्टी की एक लोकसभा उ मीदवार ने मीडिया के समक्ष सा$फतौर पर यह कहा कि नाथू राम गोडसे देश भक्त थे,देशभक्त हैं और देशभक्त रहेंगे। हालांकि प्रज्ञा ठाकुर ने भाजपा आलाकमान के दबाव में आकर माफी मांगने की औपचारिकता तो पूरी कर दी परंतु प्रज्ञा ठाकुर के इस बयान के बाद एक बार फिर देश में इस बहस ने ज़ोर पकड़ लिया कि जब राष्ट्रपिता के हत्यारे को एक विशेष विचारधारा से जुड़ लोग देशभक्त बता रहे हैं ऐसे में आ$िखर देशभक्ति की परिभाषा है क्या? क्या देश व दुनिया महात्मा गांधी जैसे महापुरुष के हत्यारे को देशभक्त स्वीकार कर सकती है?
बहरहाल इन बहसों के बीच एक सबसे अहम सवाल यह उठता है कि क्या उस भारतीय समाज में जो राम-रहीम,नानक,तुलसी व कबीर जैसे साधू-संतों की छत्रछाया में पलने व बढऩे वाला समाज माना जाता रहा है यहां रावण व गोडसे के अनुयाईयों की सं या आ$िखर क्यों बढ़ती जा रही है? निश्चित रूप से यदि हम अपने समाज का चरित्र-चित्रण करें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि नैतिकता के क्षेत्र में हमारा तेज़ी से सामाजिक पतन होता जा रहा है। $गरीब,कमज़ोर,महिलाओं तथा दबे-कुचले लोगों पर ज़ुल्म बढ़ता जा रहा है। बलशाली लोगों द्वारा $गरीबों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक असमानता तेज़ी से फैल रही है। साधू-संतों के वेश में राक्षसी प्रवृति के लोग नज़र आ रहे हैं। राजनेता समाज को जोडऩे के बजाए विभाजित करने में अपना ज़्यादा समय व्यतीत कर रहे हैं। कई जगहों पर ‘बुराई पर अच्छाई की जीत के बजाए ‘अच्छाई पर बुराई की जीत होती देखी जा रही है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि समाज में नकारात्मकता की स्वीकार्यता तेज़ी से बढ़ रही है।
निर्मल रानी

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