“मामा राज” में कुपोषण का काल

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malnutritionजावेद अनीस

ज्यादा दिन नहीं हुए जब म.प्र. में शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने ‘आनंद मंत्रालय’ खोलने की घोषणा की थी, मंत्रालय खुल भी गया. लेकिन अब इसी मध्यप्रदेश सरकार को “कुपोषण की स्थिति” को लेकर श्वेत पत्र लाने को मजबूर होना पड़ा है. करीब एक दशक बाद जब प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति एक बार फिर सुर्खियाँ बनने लगीं तो “विकास” के तथाकथित मध्यप्रदेश माडल के दावे खोखले साबित होने लगे. जमीनी हालात बता रहे हैं कि तमाम आंकड़ेबाजी और दावों के बावजूद मध्यप्रदेश “बीमारु प्रदेश” के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है.

मध्यप्रदेश में कुपोषण की घटनायें नयी नही हैं. करीब एक दशक पहले भी यह मामला बहुत जोर–शोर से उठा था और मध्य प्रदेश को भारत के सबसे कुपोषित राज्य का कलंक मिला था.  उस समय भी कुपोषण के सर्वयापीकरण का आलम यह था कि 2005 से 2009 के बीच राज्य में 1लाख 30 हजार 2सौ 33 बच्चे मौत के काल में समा गये थे. फरवरी 2010 में मध्यप्रदेश के तात्कालिक लोक स्वास्थ मंत्री ने विधानसभा में स्वीकार किया था कि राज्य में 60 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रस्त है. 2006 में भी श्योपूर जिला कुपोषण के कारण ही चर्चा में आया था. ऐसा लगता है कि इतने सालों में सरकार ने कोई सबक नही सीखा है.2016 में फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है. इस बार भी श्योपूर ही चर्चा के केंद्र में हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस -2015-16) के अनुसार मध्यप्रदेश कुपोषण के मामले में बिहार के बाद दूसरे स्थान पर है. यहाँ अभी भी 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी समुदाय के लोग है. सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में श्योपूर (55प्रतिशत),बड़वानी (55 प्रतिशत), (52.7प्रतिशत), मुरैना (52.2प्रतिशत) और गुना में (51.2प्रतिशत) शामिल हैं. कुपोषण के कारण इन बच्चों का ठीक से विकास नही हो पाता है और उनकी ऊॅचाई व वजन सामान्य से कम रह जाती है. रिर्पोट के अनुसार सूबे में 5 साल से कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक से नही हो पाता है. इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के लगभग 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण हो पाता है.

हाल में जारी एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है.प्रदेश के ग्रामिण क्षेत्रों में स्थिति ओर चिंताजनक है जहाँ शिशु मृत्यु दर 57 है. मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत लड़कों और 43 प्रतिशत लड़कियों की लम्बाई औसत से कम है, इसी तरह से 49.2 फीसदी लड़कों और 30 प्रतिशत लड़कियों का वजन भी औसत से कम है. प्रदेश में केवल 16.2 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव पूर्ण देखरेख मिल पाती है. उपरोक्त स्थितियों का मुख्य कारण बड़ी संख्या में डाक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर होना है. जैसे म.प्र. में कुल 334 बाल रोग विशेषज्ञ होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 85 ही हैं और 249 पद रिक्त हैं.

तमाम योजनाओं,कार्यक्रमों और पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद दस साल पहले और आज की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है.. मध्यप्रदेश में पिछले 12 सालों में 7800 करोड़ का पोषण आहार बंटा है. फिर भी मध्यप्रदेश शिशु  मृत्यु दर के मामले में लगातार 11 साल से  पूरे देश पहले नंबर पर बना हुआ है और . आज भी मध्यप्रदेश शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में पहले नंबर पर और कुपोषण में दूसरे स्थान पर है है. ऐसे में सवाल उठाना लाजिमी है. सबसे ज्यादा सवाल पोषण आहार सिस्टम पर खड़े हो रहे हैं. आंगनवाड़ियों के जरिए कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली पोषणाहार व्यवस्था को लेकर लम्बे समय से सवाल उठते रहे हैं.

“कैग” द्वारा  भी मध्यप्रदेश में पोषण आहार में हो रही गड़बड़ियों को लेकर कई बार आपत्ति दर्ज की है. पिछले 12 सालों में कैग द्वारा कम से कम 3 बार पोषण आहार आपूर्ति में व्यापक भ्रष्टाचार होने की बात सामने रखी है लेकिन सरकार द्वारा उसे हर बार नकार दिया गया है . कैग ने अपनी रिपोर्टों में 32 फीसदी बच्चों तक पोषण आहार ना पहुचने, आगंनबाड़ी केन्द्रों में बड़ी संख्या में दर्ज बच्चों के फर्जी होने और पोषण आहार की गुणवत्ता खराब होने जैसे गंभीर कमियों को उजागर किया गया है .

इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार बेनकाब होने के बाद पिछले 6 सितंबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान द्वारा पोषण आहार का काम कम्पनियों के बजाय स्वंय सहायता समूहों को दिये जाने की घोषणा की गई जिसके बाद महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस ने 15 दिन में नई व्यवस्था तैयार करने के निर्देश दिए थे लेकिन प्रदेश की अफसरशाही नयी व्यवस्था जानने और समझने के नाम पर उच्च स्तरीय कमेटी बना कर इस मामले को एक महीने एक उलझाये रखा गया. 8 अक्टूबर को हुई कमेटी की तीसरी बैठक में 12 साल से चली आ रही पोषण आहार के ठेकेदारी वाली सेंट्रलाइज्ड व्यवस्था को बंद करने का फैसला कर लिया गया है. वर्तमान व्यवस्था 31 दिसंबर तक लागू चलती रहेगी. इसके बाद 1 जनवरी 2017 से 3 महीने के लिए अंतरिम व्यवस्था लागू की जायेगी. अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 1 अप्रैल 2017 से पोषण आहार की नई विकेंद्रीकृत व्यवस्था लागू हो जायेगी.

 

मध्यप्रदेश सरकार ने पोषण आहार व्यवस्था में गलती मान कर इसे बदलने का ऐलान तो कर दिया है लेकिन इसके लिए दोषी अफसरों और कम्पनियों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई और ना ही भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की गई. जानकार इसे एक तरह से पूरानी गड़बड़ियों पर परदा डालने की कवायद मान रहे हैं.

दरअसल कुपोषण अपने आप में कोई बीमारी नहीं हैं. यह एक लक्षण है. दरअसल बीमारी तो उस व्यवस्था में है जिसके तहत रहने वाले नागरिकों को कुपोषण का शिकार होना पड़ता है. कुपोषण की जड़ें गरीबी, बीमारी, भूखमरी और जीवन के बुनियादी जरूरतों की अभाव में है. अभाव और भूखमरी की मार सबसे ज्यादा बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है. आवश्यक भोजन नही मिलने की वजह से बड़ों का शरीर तो फिर भी कम प्रभावित होता है लेकिन बच्चों पर इसका असर तुरंत पड़ता है, जिसका असर लम्बे समय तक रहता है, गर्भवती महिलाओं को जरुरी पोषण नही मिल पाने के कारण उनके बच्चे तय मानक से कम वजन के होते ही है, जन्म के बाद अभाव और गरीबी उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नही होने देती है,नतीजा कुपोषण होता है,जिसकी मार या तो दुखद रुप से जान ही ले लेती है या इसका असर ताजिंदगी दिखता है.

 

इतनी बुनियादी और व्यवस्थागत समस्या के लिए हमारी सरकारें बहुत ही सीमित उपाय कर रही हैं और उसमें भी भ्रष्टाचार,धांधली और अव्यवस्था हावी है? समेकित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) एक कार्यक्रम है जिसके सहारे कुपोषण जैसी गहरी समस्या से लड़ने का दावा किया जा रहा है. यह 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के शुरूआती देखभाल और विकास को लेकर देश का एक प्रमुख कार्यक्रम है जिसके द्वारा बच्चों को पूरक पोषाहार, स्वास्थ्य सुविधा और स्कूल पूर्व शिक्षा जैसी सुविधायें एकीकृत रूप से पहुंचायी जाती हैं. इस योजना के तहत आंगनवाड़ी केन्द्रों द्वारा दिए जाने वाले पोषण आहार पर प्रतिदिन एक बच्चे के लिए 6 रु खर्च किया जाता है जिसमें 2 रु.नाश्ता और 4 रु भोजन का खर्च शामिल है.

 

जाहिर है कुपोषण दूर करने की हमारी पूरी बहस आंगनवाड़ी सेवाओं तक ही सीमित है जबकि इसके मूल में  गरीबी आजीविका के साधन,वर्ग और जाति के आधार पर विभाजन आदि प्रमुख कारण हैं. यही वजह है कि हमारी सरकारें पिछले दस सालों में कुपोषण दूर करने का कोई टिकाऊ माडल खड़ा नहीं कर पायी है. शायद कुपोषण के मूल कारणों के समाधान में किसी की  रुचि नहीं है.

 

कुपोषण के मामले पर एक बार फिर घिरने के बाद अब मध्यप्रदेश सरकार कुपोषण पर श्वेतपत्र लाने जा रही है.विपक्ष का कहना है कि ‘यह काले कारनामों पर पर्दा डालने का प्रयास हैं’. उम्मीद है मध्यप्रदेश सरकार कुपोषण को लेकर इतनी भीषण त्रासदी के लिए जिम्मेदारी एवं हुई चूकों को स्वीकार करेगी और आईसीडीएस सेवाओं की पहुँच सभी बच्चों को सुनिश्चित करते हुए अपने श्वेतपत्र में कुपोषण के मुख्य कारणों को ध्यान रखते हुए आजीविका, खाद्य सुरक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसे उपायों पर भी ध्यान देगी.

 

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