बलूचिस्तान की जंगे आज़ादी

बलूचिस्तान
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बलूचिस्तान वर्तमान में पाकिस्तान का पश्चिमी प्रान्त है। पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा प्रान्त है। यहां तेल और प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार है। यह सोना समेत अनेक खनिज संपदा भी अपने गर्भ में छिपाए हुए है। ईसा पूर्व बलूचिस्तान का कुछ हिस्सा ईरान (सिस्तान व बलूचिस्तान प्रान्त) तथा अफ़गानिस्तान में भी पड़ता था। सबसे बड़ा क्षेत्र पाकिस्तान में पड़ता है, लेकिन इसकी आज़ादी की मांग से ईरान भी भयभीत रहता है। इसकी राजधानी क्वेटा है तथा भाषा बलूच है।
१९४७ के पहले इसे कलात के रियासत के रूप में जाना जाता था। इसका दर्ज़ा हिन्दुस्तान के अन्य रियासतों की ही तरह था। १९४४ में अंग्रेज इसे पूर्ण स्वतंत्रता देना चाहते थे लेकिन जिन्ना और मुस्लिम लीग के विरोध के कारण यह १४ अगस्त १९४७ को एक स्वतंत्र रियासत के रूप में आज़ाद हुआ। पाकिस्तान के आज़ाद होने के एक दिन बाद ही कलात रियासत (वर्तमान बलूचिस्तान) ने अपने शासक ज़नाब खान साहब के नेतृत्व में एक मुल्क के रूप में अपनी आज़ादी की घोषणा कर दी। कलात के स्वतंत्र अस्तित्व की पुष्टि मुस्लिम लीग ने की और कलात की नेशनल एसेम्बली ने भी की। लेकिन १ एप्रिल १९४८ में पाकिस्तानी सेना ने कलात में मार्च किया और कलात के शासक ज़नाब खान साहब को गिरफ़्तार कर लिया। उनसे जबर्दस्ती विलय के समझौते पर दस्तखत करा लिया गया। लेकिन खान के भाई अब्दुल करीम ने तत्काल विद्रोह की घोषणा कर दी और कलात को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करते हुए बलोच नेशनल एसेम्बली के लिए एक घोषणा पत्र भी जारी किया जिसमें पाकिस्तान के साथ विलय को अस्वीकृत किया गया था। प्रिन्स को अफ़गानिस्तान से समर्थन की अपेक्षा थी क्योंकि अफ़गानिस्तान बलूच और पख्तून क्षेत्रों के पाकिस्तान में विलय का विरोधी था। अफ़गानिस्तान का भी इरादा नेक नहीं था। वह इस क्षेत्र का अफ़गानिस्तान में विलय चाहता था।
बलूचिस्तान में आज़ादी के लिए संघर्ष कोई आज की घटना नहीं है, बल्कि १९४८ में ही इसके पाकिस्तान में जबर्दस्ती विलय के समय से ही शुरुआत हो चुकी थी। पाकिस्तान के खिलाफ़ बलूचियों ने १९४८-५२, १९५८-६०, १९६२-६९ और २००४-०५ में खुली बगावत की जिसका एक ही मकसद था – पाकिस्तान से आज़ादी।
प्रिन्स अब्दुल करीम ने १९५० के मई के अन्त में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ़ झालवान जिले में गुरिल्ला युद्ध आरंभ करके खुली बगावत का एलान किया। इसपर पाकिस्तान की सेना के अधिकारियों ने यह चेतावनी दी कि अगर बगावत जारी रही तो गिरफ़्तार शासक खान साहब की दुर्गति कर देंगे। पाकिस्तान की सेना के अधिकारियों और अब्दुल करीम खां के प्रतिनिधियों के बीच कुरान की शपथ लेते हुए एक समझौता हुआ जिसमें सभी बागियों को माफ़ी देने तथा उनकी सुरक्षा के साथ-साथ अच्छे व्यवहार की गारंटी दी गई थी। लेकिन सेना ने छल किया और प्रिन्स तथा उनके १०२ सथियों को कलात जाने के रास्ते में ही गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन इस विद्रोह से दुनिया के सामने दो चीजें स्पष्ट हो गईं —
१. बलूच और पख्तून बलूचिस्तान के पाकिस्तान में विलय को स्वीकार नहीं करते।
२. बलूचियों में यह विश्वास घर कर गया कि पाकिस्तान ने उनके साथ धोखा किया है और समझौता तोड़कर विश्वासघात किया है।
करीम और उनके साथियों को लंबी अवधि की जेल की सज़ा हुई, परन्तु वे बलूचिस्तान की आज़ादी के प्रतीक बन गए।
अब्दुल करीम १९५५ में जेल से छूटकर आए और फिर आज़ादी के दीवानों को संगठित करना शुरु कर दिया। उन्होंने पाकिस्तान की सेना के मुकाबले के लिए एक समानान्तर सेना का गठन किया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने ६ अक्टूबर, १९५८ को इस विद्रोह को दबाने के लिए सेना को कलात में कूच करने का आदेश दिया और एक दिन बाद मार्शल ला भी लगा दिया। सेना ने खान बन्धुओं को फिर से गिरफ़्तार कर लिया और देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया। खान बन्धुओं की गिरफ़्तारी का भयंकर प्रतिरोध हुआ और पूरे बलूचिस्तान में हिंसा भड़क उठी। सेना ने गुरिल्लाओं के संभावित ठिकानों के सन्देह में कई गाँवों पर बमबारी भी की। झालवान के जेहरी जनजातीय प्रमुख नौरोज खान ने मीरघाट की पहाड़ियों में पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ा दिए। लेकिन अन्त में सेना ने कुरान की कसम दिलाते हुए एक समझौता करने में सफलता पा ली। नौरोज ने अच्छे व्यवहार की आशा में हथियार डाल दिए, लेकिन सेना ने फिर विश्वासघात किया तथा उन्हें और उनके पुत्रों को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। जुलाई १९६० में नौरोज के बेटों को हैदराबाद और सुकुर में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गम से टूटे नौरोज भी १९६२ में कोहलू के जेल में स्वर्गवासी हो गए।
१९५८ में सेना ने बलूचिस्तान के अन्दर के इलाकों में बेस कैंप बनाना शुरु किया तो एक बार फिर विद्रोह भड़क उठा। इस विद्रोह का नेतृत्व शेर मुहम्मद मर्री ने किया। वे एक दूरदर्शी नेता थे। उन्होंने एक व्यापक गुरिल्ला युद्ध की तैयारी की। इसके लिए उन्होंने झालवान के आदिवासी क्षेत्रों, मर्री और उत्तर के बुग्ती क्षेत्रों में अपना प्रभावी नेटवर्क स्थापित किया। आज़ादी के दीवाने गुरिल्लाओं को सैन्य प्रशिक्षण और बम बनाने तथा चलाने की ट्रेनिंग दी गई। सेना ने इसका जबर्दस्त विरोध किया और शेर मुहम्मद मर्री तथा उनके रिश्तेदारों के १३,००० एकड़ में फैले बादाम के बगीचों को बुलडोज़र चला कर ध्वस्त कर दिया। लड़ाई १९६९ तक जारी रही। अन्त में याह्या खान ने सीमित स्वायत्तता प्रदान करते हुए अपनी सेना की एक यूनिट को वापस बुला लिया। क्षेत्र में एक अस्थाई शान्ति कायम हुई।
सन १९७० में राष्ट्रवादी बलूचियों ने उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेश (NWFP) के पख्तूनों से संपर्क किया और नेशनल अवामी पार्टी के नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई। १९७१ के आम चुनाव में इस पार्टी ने बलूचिस्तान और NWFP में जीत भी हासिल की। इस बीच क्वेटा और मस्तुंग में पंजाबियों के खिलाफ़ बलूचियों के आक्रामक रवैये तथा ईरानी दूतावास में भारी मात्रा में संहारक हथियारों की बरामदगी से पाकिस्तानी शासकों को यह विश्वास हो गया कि बलूचिस्तान में विद्रोही फिर से सक्रिय हो गए हैं। पाकिस्तान के प्रधान मन्त्री भुट्टो ने राज्य सरकार को तुरन्त बर्खास्त कर दिया। बर्खास्तगी से नाराज बलूच गुरिल्ले फिर से सक्रिय हो गए। बांग्ला देश की घटना से विक्षिप्त भुट्टो ने बलूचिस्तान को फिर सेना के हवाले कर दिया तथा बलूचिस्तान के तीन बुजुर्ग सम्मानित नेता – गौस बक्स बिजेन्जो, अयातुल्ला खान मेंगल और कबीर मर्री को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया। लेकिन बलूचिस्तान में आन्दोलन थमा नहीं और अगले चार साल तक जारी रहा। यह युद्ध जब चरम पर था, तो पाकिस्तान को अपने ८०,००० फौजियों को वहाँ तैनात करना पड़ा। यह अबतक का सबसे बड़ा विद्रोह था। रेल और रोड लिंक ध्वस्त हो गए थे। बलूचिस्तान लंबे समय तक पाकिस्तान से कटा रहा। ईरान के शाह को यह डर सताने लगा कि उसके नियंत्रण वाले बलूचिस्तान के क्षेत्र में भी कहीं बगावत न हो जाय, उसने ३० अमेरिकी कोबरा हेलिकाप्टर अपने पायलट के साथ पाकिस्तान की मदद के लिए भेजा। १९७४ की सर्दियों में पाकिस्तानी सेना ने हवाई और जमीनी आक्रमण से हजारों बलूच आदिवासियों की हत्या की। बलूच गुरिल्ले, जिन्हें किसी बाहरी शक्ति का समर्थन प्राप्त नहीं था, लंबे समय तक पाकिस्तानी सेना का सामना नहीं कर सके और बलूच स्वतंत्रता के अधिकांश नेता पाकिस्तान के बाहर ब्रिटेन और अफ़गानिस्तान जैसे देशों में चले गए। इसके बाद भी बलूच स्टूडेन्ट‘स यूनियन और अन्य स्वतंत्रता प्रेमी बलूच समूहों ने फिर लड़ाई की शुरुआत की जो आजतक जारी है।
बलूचों के संघर्ष की दास्तान से सारी दुनिया लगभग अनजान थी। वहाँ आज़ादी की मांग बहुत पुरानी है। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इसे स्वर प्रदान किया है। आज़ादी के लिए हथियारबंद अलगाववादी समूह आज भी सक्रिय हैं। इनमें प्रमुख हैं – बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और लश्कर-ए-बलूचिस्तान। पाकिस्तानी सरकार लगातार बलूच आन्दोलन को योजनाबद्ध से कुचलने और बलूचियों की मांग को दरकिनार करने का प्रयास करती रही है। पाकिस्तान ने हजारों बलूचों को नज़रबंद किया, हजारों युवकों का अपहरण कर उन्हें गायब कर दिया, सेना और सरकारी नौकरियों में बलूचियों के प्रवेश पर रोक लगाई, लोकतांत्रिक बलूच नेताओं की हत्या कराई। पुरुषों का कत्ल और महिलाओं से रेप पाकिस्तानी सेना के लिए आम बात है।बलूचिस्तान के इतिहास में पहली बार किसी अन्तर्राष्ट्रीय नेता ने बलूचिस्तान की आज़ादी का समर्थन करने का संकेत दिया है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को थोड़ा आगे बढ़कर बलूचिस्तान को सैन्य सहायता प्रदान करने पर भी विचार करना चाहिए। कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्राय़ोजित आतंकवाद का यह सबसे सटीक उत्तर होगा। अगर बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग हो जाता है तो पाकिस्तान की कमर टूट जाएगी और वह कंगाल हो जाएगा।

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