भारत को भी राष्ट्रहित सर्वोपरि करना होगा

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-रमेश पाण्डेय-
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इस वक्त अमेरिका में भारत के पक्षधर इस लॉबिंग में जुटे हैं कि मोदी न केवल ओबामा से मिलें, वरन वहां की संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को भी संबोधित करें। इस मांग में अड़ंगा डाल सकने वाले पाकिस्तान समर्थक तत्व इस समय पस्त हिम्मत हैं, क्योंकि इस्लामी दहशतगर्दी के मध्यपूर्व में विस्फोट तथा अफगानिस्तान में करजई के बाद अराजकता की आशंकाओं से उनका ध्यान बंटा हुआ है। रही बात वीजा की, तो भारत की यात्रा कर रहे अमेरिकी उपविदेश मंत्री ने स्पष्ट कह दिया है, मोदी सरकार के साथ हम घनिष्ठ साझेदारी की आशा करते हैं। जो लोग यह सोच रहे थे कि गुजरात में गोधराकांड के बाद मानवाधिकारों की रक्षा में असमर्थता के आरोपित मोदी को अमेरिका कटघरे में ही खड़ा रखेगा, निश्चय ही इससे निराश हुए होंगे। जैसे अमेरिका अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि समझ कर भारत के साथ अपने रिश्तों को निर्धारित कर रहा है, वैसे ही भारत को भी करना चाहिए। यूपीए सरकार की एक कमजोरी यह थी कि चौतरफा घिरे लाचार मनमोहन अमेरिकी राष्ट्रपति को देखते ही गदगद् हो जाते थे। जॉर्ज बुश हों या ओबामा, दोनों को अपना खास दोस्त समझने वाले मनमोहन इस नाते का कोई राजनयिक लाभ नहीं उठा सके। अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के करार ने उनकी सरकार को डगमगा दिया। विडंबना यह है कि आज तक इस विषय में मनोवांछित प्रगति नहीं हो सकी है। अब आशा की जा रही है कि मोदी सरकार आगे कदम बढ़ाएगी। इसी तरह भारत की यह आशा भी निर्मूल साबित हुई कि अमेरिका पाकिस्तान पर इस बात के लिए दबाव डालेगा कि वह भारत के शत्रु के रूप में आचरण नहीं करेगा और अपनी जमीन का इस्तेमाल करने के खुली छूट हाफिज सईद या दाऊद इब्राहिम सरीखे लोगों को नहीं देगा।

मनमोहन की तोता रटंत जारी रही कि अमेरिका हमारा सामरिक साझीदार है, परंतु हमारी संवेदनशील सामरिक जरूरतों-चुनौतियों की अनदेखी अमेरिकी प्रशासन करता रहा। मौका मिलते ही भारत को उसकी औकात बताने का कोई भी मौका अमेरिका चूका नहीं। मिसाल के तौर पर राजनयिक देवयानी प्रकरण हो अथवा भारतीय मूल के उद्यमी रजत गुप्ता का मान-मर्दन। मानवाधिकारों से लेकर वीजा तक अमेरिका के दोहरे मानदंड किसी से छिपे नहीं हैं। सिर्फ यूपीए सरकार ही दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने में बुरी तरह असमर्थ रही। श्रीलंका से लेकर ईरान तक के मामले में अमेरिकी इच्छानुसार अपनी विदेश नीति को मोड़ने की नादानी का खामियाजा उठाने को हम तैयार रहे। फिर इसमें आश्चर्य क्या है कि ओबामा प्रशासन की नजर में भारत की साख निरंतर घटती गई? अब जरा इस आचरण की तुलना नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण करने के बाद से आज तक के आचरण से कीजिए। मोदी ने पहले दिन से ही यह जगजाहिर कर दिया कि उनकी प्राथमिकता पड़ोस के साथ भारत के नाते मजबूत कर अपने आसपास के देशों को सुस्थिर-शांत रखने के लिए सहकार-सहयोग की है। उन्होंने यह संकेत देने में देर नहीं लगाई कि वह पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंध तो चाहते हैं, पर पाकिस्तान के बोझ को कमरतोड़ तरीके से लादने को तैयार नहीं हैं। मोदी ने ऐसा कोई उतावलापन नहीं दर्शाया कि वह जल्दी अमेरिका जाकर उससे अपनी ताजपोशी का अनुमोदन चाहते हैं। उनके दौरों के जिस कार्यक्रम का ऐलान किया गया है, उनमें ब्रिक्स की ब्राजील में बैठक और फिर नेपाल का जिक्र होता रहा है। जाहिर है कि अमेरिका जैसी महाशक्ति की उपेक्षा भारत नहीं कर सकता, परंतु इसका यह मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि हम पिछलग्गू बनकर उसके सामने बिछ जाएं।

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