विश्वगुरू के रूप में भारत-24

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राकेश कुमार आर्य

अपनी बात को मनवाने के लिए महर्षि दयानंद ने अंग्रेज सरकार को सितंबर 1874 में एक ज्ञापन दिया था। जिसमें उन्होंने आर्ष संस्कृत शिक्षा को भारत में पुन: लागू कराने का आग्रह सरकार से किया था। ज्ञापन में लिखा था-”इससे मेरा विज्ञापन है-आर्यावर्त देश का राजा अंग्रेज बहादुर से कि संस्कृत विद्या की ऋषि-मुनियों की रीति से प्रवृत्ति करावें। इससे राजा और प्रजा को अनंत सुखलाभ होगा और जितने आर्यावर्तवासी सज्जन लोग हैं उनसे भी मेरा यह कहना है कि इस सनातन संस्कृति विद्या का उद्घार अवश्य करें। ऋषि मुनियों की रीति से अत्यंत आनंद होगा और संस्कृत विद्या (लुप्त) जाएगी तो सब मनुष्यों की बहुत हानि होगी इसमें कुछ संदेह नहीं।”

इस ज्ञापन में महर्षि ने आगे चलकर सनातन ऋषि ग्रंथों का पठन-पाठन अनिवार्य कराने की प्रार्थना अंग्रेज सरकार से की थी। इससे पता चलता है कि महर्षि दयानन्द भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली के प्रति कितने गंभीर थे? और वह उसे भारत में लागू करवाकर भारतीयों का कल्याण करने के प्रति पूर्णत: सजग व सावधान थे।

महर्षि ने आर्ष ग्रंथों के आधार पर शिक्षा प्रणाली को पुन: लागू करके भारत को ‘विश्वगुरू’ बनाने के उद्देश्य से अपने जीवनकाल में काशी, कासगंज (एटा) फर्रूखाबाद, दानापुर आदि में वेद पाठशालाएं स्थापित कीं। यह वह काल था जब कोई व्यक्ति अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली के विरोध की बात सोच भी नहीं सकता था। परंतु महर्षि ने शरीर प्राणों की चिंता किये बिना-यह उद्घोष किया था कि वे आर्य वेद-धर्म के विरूद्घ नहीं जा सकते। यही कारण था कि स्वामीजी महाराज ने भारत में वैदिकशिक्षा प्रणाली को पुन: लागू कराने पर बल दिया। उन्होंने वेदशालाओं में वेदाध्ययन आरंभ कराया।

हमारी प्राचीन वैदिक शिक्षा पद्घति में सबको शिक्षा का समान रूप से अधिकार प्राप्त था। शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं था। सभी शिक्षार्थियों को ईश्वर की अनमोल कृति मानकर उसे शिक्षा का समान अधिकार दिया जाता था। बालक और बालिका में भी कोई भेदभाव नहीं किया जाता था। शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य घोषित किया गया था। ऐसा इसलिए था कि हर मनुष्य आहार, निद्रा, भय और मैथुन का नैसर्गिक ज्ञान व शिक्षा लेकर आता है, परंतु अन्य नैमित्तिक ज्ञान उसे संसार से ही प्राप्त होता है। जब ईश्वर ने किसी मनुष्य को नैसर्गिक ज्ञान देने में कोई पक्षपात नहीं किया तो नैमित्तिक ज्ञान प्रदान करने में संसार के लोग ही किसी के साथ अन्याय क्यों करें?- ऐसी हमारी मान्यता थी।

हमारी शिक्षा का तीसरा उद्देश्य अभ्युदय की प्राप्ति और मोक्ष की सिद्घि था। इसके लिए हमारी शिक्षा मनुर्भव अर्थात मनुष्य बनो, देवो भव अर्थात देव बनो और ऋषि भव अर्थात ऋषि बनो-के आदर्श पर चलकर मनुष्य का उत्तरोत्तर विकास करने वाली होती थी। इन तीन सीढिय़ों पर चढक़र मनुष्य अपनी मंजिल अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेता था। पश्चिमी देशों का चिंतन हमारे ऋषि या शिक्षा-शास्त्रियों के चिंतन के समक्ष कितना बौना है?-इसका पता तो हमें इसी बात से चल जाता है कि पश्चिम का चिंतन आज तक मनुर्भव की पहली सीढ़ी पर भी नहीं चढ़ पाया है। वह आज भी मनुष्य को मनुष्य बनाने के उपाय और युक्तियां खोज नहीं पाया है।

ऋषि प्रणीत शिक्षा प्रणाली में धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य माना गया। इसमें वेद की शिक्षा को अनिवार्य रूप से दिया जाता था। इसका उद्देश्य था कि देश के सभी नागरिक सुसभ्य, सुसंस्कृत, सुशिक्षित एवं धार्मिक हों और ऐसी व्यवस्था, मर्यादा और नियमों का स्वभावत: पालन करने वाले हों-जिनसे लोकशान्ति बनी रहे और सामाजिक भ्रातृत्व की भावना बलवती हो। इस शिक्षा में इस बात का ध्यान विशेष रूप से रखा जाता था कि लोगों के मध्य स्वार्थभाव न पनपे। क्योंकि स्वार्थभाव के पनपने से सामाजिक मर्यादाएं नष्ट होने लगती हैं।

वैदिक शिक्षा में बालक व बालिकाओं को सहशिक्षा को पूर्णत: वर्जित घोषित किया गया था। ऐसी शिक्षा बाल सुलभ मन में शरीर की जीवनी शक्ति को नष्ट कर अपना जीवन नष्ट करने की प्रेरणा देने वाली होती है। विपरीत लिंगियों को साथ-साथ बैठाने का अभिप्राय है कि पर्याप्त सावधानी बरतने के उपरांत भी उनको गलत कार्य के लिए अवसर उपलब्ध करा देना। यही कारण था कि वैदिक राष्ट्र में उच्च चरित्र वाले महिला पुरूषों की भरमार रहती थी। कन्या विद्यालय में महिला अध्यापिका तथा लडक़ों के विद्यालय में पुरूष अध्यापक व कर्मचारी रखने चाहिएं।

शिक्षा के केन्द्रों को भारतीय ऋषि लोग प्रकृति की गोद में शांत और एकांत स्थान पर नदी, तालाब आदि के किनारे बनाया करते थे। इसका कारण यही था कि शहरों के कोलाहल से विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण में बाधा पहुंचती है। भोजन, भजन और विद्या ये तीनों एकांत में ही उचित माने गये हैं। इसलिए प्रकृति की गोद में एकांत स्थान पर विद्या प्राप्ति में विद्यार्थियों को सुविधा प्राप्त होती थी। साथ ही नदी, तालाब आदि के किनारे बैठकर प्राणायाम आदि क्रियाएं बड़े मनोयोग से पूर्ण होती हैं। नदी का कल-कल करता जल ध्यान लगाने की क्रिया में बड़ा सहायक सिद्घ होता है, इसके अतिरिक्त प्राचीनकाल में नदी, तालाब में स्नानादि की भी सुविधा उपलब्ध हो जाती थी। ऐसी व्यवस्था की जाती थी कि विद्यार्थियों को उस शिक्षा केन्द्र पर ही रोका जाए और वहां रखकर ही आचार्यादि लोग उसे ‘द्विज’ बनायें। आचार्य के गर्भ से अर्थात गुरूकुल से बाहर आने पर विद्यार्थी ‘द्विज’ कहलाता था। माना जाता था कि अब उसका दूसरा जन्म हो गया है।

आज के विद्यालय भीड़ भाड़ भरे स्थानों पर बनाये जाते हैं जिनमें सारी शिक्षा व्यावसायिक दी जा रही है। हर क्षेत्र में बच्चों को यह समझाया जाता है कि हर स्थान पर आप एक प्रतियोगी हैं। कक्षा में प्रतियोगिता, घर में प्रतियोगिता और संसार में प्रतियोगिता-सर्वत्र प्रतियोगिता हो रही है। इससे विद्यार्थी का संसार के प्रति दृष्टिकोण बदल जाता है, वह अपने लिए सर्वत्र सभी लोगों को इस भाव से देखता है कि ये सब तेरे सहयोगी ना होकर तेरे प्रतिद्वन्द्वी हैं और यदि इनके प्रति सावधान ना रहा गया तो ये तुझे खा जाएंगे। इससे सारे समाज में इस प्रतियोगिता के भाव ने आग लगा दी है। सर्वत्र अशांति है, बेचैनी है। जबकि भारत की शिक्षा प्रणाली विद्यार्थी को एकांत और शांत स्थान में रखकर उसे संसार के लिए उपयोगी बनाकर भेजती थी, उसे संसार की व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग बनाकर तैयार किया जाता था और यह समझाया जाता था कि जिस संसार में आप जा रहे हैं-उसके साथ आपको समन्वय करके चलना है, क्योंकि संसार के आप पर अमुक-अमुक उपकार हैं।

इस प्रकार भारत की शिक्षा प्रणाली साधना प्रधान थी और पश्चिमी शिक्षा प्रणाली साधन प्रधान हैं। साधना में समन्वय होता है और सहनशीलता होती है, जबकि साधन में स्वार्थ होता है, विखण्डन होता है, असहिष्णुता होती है और अधीरता होती है। आज का विद्यार्थी इन सभी दोषों से युक्त है।

हमारे प्राचीन शिक्षक लोग आचार्यादि अपने विद्यार्थियों के प्रति असीम लगाव रखते थे। उनका परस्पर आत्मीय संबंध होता था। दोनों ही एक दूसरे के सुख-दु:ख का पूरा ध्यान रखते थे। गुरू व शिष्य परस्पर पिता-पुत्र की भांति रहते थे। यही कारण था कि शिष्य अपने गुरू के प्रति आस्था और श्रद्घा की अटूट डोर से बंध जाता था, उसे अपने गुरू के साथ रहकर पिता की कमी नहीं अखरती थी । वैसे भी जो शिक्षा वात्सल्य पूर्ण परिवेश में दी जाती है, वास्तव में खेल-खेल में दी जाने वाली शिक्षा वही होती है। क्रमश:

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