विश्वगुरू के रूप में भारत-50

 राकेश कुमार आर्य
आज का अर्थशास्त्र इसे ‘ले और दे’ की व्यवस्था कहता है, पर वेद की व्यवस्था ले और दे (त्रद्ब1द्ग ड्डठ्ठस्र ञ्जड्डद्मद्ग) से आगे सोचती है। वह कहती है कि जिसने आपको जो कुछ दिया है उस देने में उसके भाव का सम्मान करते हुए उसे कृतज्ञतावश उसे लौटा दो। जिससे कि उसके देने की सामथ्र्य बनी रहे और हमारा यह व्यवहार (व्यापार नहीं) चलता रहे। आज का अर्थशास्त्र व्यापार की बात करता है और उसने जीवन को भी व्यापार (लाभ-हानि का चक्र) बनाकर रख दिया है। जबकि वेद का अर्थशास्त्र इसे व्यवहार मानता है। व्यापार से व्यवहार उत्तम है।

अथर्ववेद (यजु. 12/1/45) में ऋषि कहता है कि-”जो पृथ्विी विविध प्रकार की भाषाओं एवं बोलियों के बोलने वाले तथा अनेक धर्मों को पालने वालों को एक गृह के रूप में आश्रय प्रदान करने वाली है। वह अविचलित गौ के समान निश्चल रूप से मेरे लिए धनैश्वर्य, सुख, सम्पत्ति सहस्रों मार्गों से प्राप्त करे।”
आप यदि किसी से कोई वस्तु लेते हैं, जैसे आपने किसी से पैन लिया और आपने लौटाते समय उस पैन देने वाले का ‘धन्यवाद’ बोल दिया तो उस पैन देने वाले को आपके मुंह से ‘धन्यवाद’ का एक शब्द सुनकर आत्मिक प्रसन्नता हुई। इसमें आपका कोई पैसा नहीं लगा, पर आपने बिना पैसा लिये ही अगले को प्रसन्न कर लिया। इसी प्रकार वेद प्रत्येक लेन-देन को देखता है। वह हर क्षण देने वाले के प्रति आपको कृतज्ञ बनाये रखना चाहता है।
जीवन देने वाले के प्रति, जन्म देने वाले माता-पिता के प्रति, ज्ञान देने वाले गुरू के प्रति और अन्य प्रकार की शिक्षा या प्रेरणा देने वालों के प्रति। यह सारा व्यवहार कृतज्ञता पर टिका है। अब तनिक कल्पना करो कि यदि पैन देने वाले के प्रति आप कृतज्ञतावश धन्यवाद बोलकर उसे प्रसन्न कर सकते हैं तो जिन्होंने हमें अपना सब कुछ दिया है-उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके हम उन्हें कितना प्रसन्न कर सकते हैं? वेद का व्यवहार तो ऑटोमेटिक सिस्टम अर्थात स्वचालित व्यवस्था की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है, यह ऐसी व्यवस्था है जो कहीं समाप्त नहीं होती। ईश्वर, माता-पिता, गुरू, समाज के बड़े बुजुर्ग और मित्र सम्बंधी आदि को हम सोचते हैं कि उनको हमने उनका दिया हुआ लौटा दिया, पर वे हंै कि अपनी ओर से शुभ आशीर्वाद के रूप में या शुभकामनाओं के रूप में हमारे दिये को पुन: हमें लौटा देते हैं और हम देखते हैं कि अदृश्य रूप में हमारा समाज संवेदनाओं के जाल में बंधा रहकर गति करता रहता है। ऐसे समाज का अर्थशास्त्र वास्तव में फलता-फूलता है। इस संसार में आधे से अधिक व्यवहार हो तो शुभकामनाओं अथवा दुआओं का यह अदृश्य लेन-देन ही पूर्ण कर देता है। इसमें सब एक दूसरे के प्रति समर्पण करने को तैयार रहते हैं।
इसी उपरोक्त भाव से हमारे देश का सारा समाज परस्पर बंधा रहता था और आज भी हमारे देश के देहात में यही अर्थशास्त्र चलता है। वहां सब एक दूसरे के उद्घार में लगे रहते हैं और उद्घार का ही उधार देते हैं। वास्तव में यह उधार शब्द मूल रूप में उद्घार ही है। भारत का अर्थशास्त्र उधार (प्रचलित अर्थों में) नहीं देता, अपितु वह लोगों का उद्घार करता है। मेरे पास अधिक वस्तु है तो आप ले जायें। कल को जब आपके पास कोई वस्तु ऐसी होगी तो मैं उसे ले आऊंगा। आज आपका मैं उद्घार कर रहा हूं तो कल आप मेरा कर देना। यह है-जीवन व्यवहार। इसी ने भारत को ऊंचाइयां दीं।
वेद की भाषा में अर्थ का तीसरा आधार भी मनुष्य का यही जीवन व्यवहार है। वेद कहता है कि ऐश्वर्य के लिए आलस्य, निद्रा आदि को त्यागकर जाग्रत चैतन्य हो, सोच समझकर पुरूषार्थ कर। यह पृथिवी का विशाल वैभव तुझे प्राप्त होगा और यदि तू अकर्मण्य, आलसी बनकर सोता रहा तो तुझको दारिद्रय, निर्धनता, ऋणादि प्राप्त होंगे।
इस प्रकार वेद मनुष्य को दारिद्रय और निर्धनता या ऋणादि से मुक्ति पाने के लिए कर्मशील और पुरूषार्थी बने रहने की प्रेरणा दे रहा है। किया गया पुरूषार्थ कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है। इसी प्रकार आलस्य और निद्रा जनित अकर्मण्यता भी लोगों के बने बनाये महलों को नष्ट करा देती है।
वेद में राशि शब्द धन के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसमें ‘ईश’ जोड़ देने से ‘रयीश’ बनता है। जिसका बिगडक़र रईस या रहीस हो गया है। वेद हमें जिस ‘रयि’ का स्वामी=धनेश होने की प्रेरणा दे रहा है-वह हमारा धन स्वार्जित होना चाहिए। इसका अभिप्राय है कि जो लोग किसी भी आधार पर दूसरों को लूटते हैं, या उनके धन का अपहरण करते हैं-वेद की दृष्टि में वे ‘रयीश’ नहीं हैं। ऐसा धन भी हमारा नहीं माना जाता है जो हमने दूसरों से ऋण के रूप में लिया है अथवा जो दूसरों ने किसी भी कारण से हमारे पास रख दिया है। हमारा स्वामित्व केवल उसी धन पर होता है-जो हमने अपने पुरूषार्थ से अर्जित किया है।
वैदिक अर्थव्यवस्था में अर्थ के विभिन्न नाम हैं। जैसे-(1) अर्थ-इसके लिए विद्वानों का मानना है कि धनैश्वर्यों संबंधी जिन-जिन पदार्थों की हम कामना अपनी कामनाओं की पूत्र्ति के लिए करते हैं या किसी प्रकार के उपाय श्रम, या वस्तुओं के आदान-प्रदान द्वारा हम जिस प्रतिफल की आशा या याचना करके प्राप्त करते हैं वह अर्थ है।
(2) धन=इसके अंतर्गत सुवर्ण आदि धातुएं भूसंपत्ति पशु अन्नादि चल अचल संपत्ति की परिगणना की जाती है जो कि पृथ्वी पर सर्वत्र विद्यमान है।
(3) द्रव्य-द्रव्य में स्वर्ण-चांदी आदि धातुएं आती हैं।
(4) व्यवहार्य धन-प्रचलित मुद्रा में इस कोटि में रखा जाता है।
(5) धेनु=धन, द्रव्य, व्यवहार्य धन से हम कोई और वस्तु खरीदते हैं, और उससे द्रव्योपार्जन करते हैं। मूलभूत पंूजी से अर्जन होता है, इसलिए उसे धेनु कहा जाता है।
(6) इष्टका-व्यापार की मूल पूंजी का नाम इष्टका है। इसे आजकल ‘रियल एस्टेट’ कहा जाता है।
(7) ब्रह्म-मूल पूंजी से प्राप्त लाभ और उससे हुई वृद्घि को ‘ब्रह्म’ कहते हैं।
(8) वेद-लाभांश ही वेद है।
(9) वृद्घि-वेद की राशि ही वृद्घि या बढ़त है। इसे आजकल बचत बोला जाता है।
(10) वित्त-ब्रह्म राशि में से जो लाभांश चुकाने के लिए है-उसे वित्त कहते हैं। अर्थात जो भाग छोड़ा जाता है अर्थात दिया जाता है वह वित्त है। (वित्तमंत्री वित्तमंत्री इसीलिए है कि वह अपने पास कुछ भी नहीं रखता सारे धन को छोड़ता है-समाज व राष्ट्र के लिए देता जाता है।)
(11) बन्धु-‘रियल एस्टेट’ से जो कमाई हुई और वह कमाई पुन: ‘रियल एस्टेट’ के रूप में लगा दी वह पहली वाली इष्टका की बंधु बन गयी, इसलिए ऐसे लाभांश या धन को ‘बंधु’ कहा जाता है।
(12) मीढु-अकस्मात जो राशि मिल जाती है उसे ‘मीढु’ कहते हैं। आजकल इसे ‘मुरब्बा’ भी कहा जाता है।
(13) मेधा-बिना पूंजी के अपने बुद्घि कौशल से अर्जित राशि को मेधा कहा जाता है। इसे आजकल हम ‘दिमागी मेहनत’ के रूप में हम जान सकते हैं।
(14) श्वात्र-अनेक व्यापारों में लगा धन या ऐसा धन जो अल्प समय के लिए दिया जाए-वह श्वात्र कहलाता है।
(15) वैध या लब्धव्य-जो धनराशि किसी से लेनी शेष है उसे वैध या लब्धव्य कहा जाता है। क्रमश:

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here