प्रतिकूल परिस्थितियों में रोशनी बनता भारत

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-ललित गर्ग –

कोरोना महामारी एवं महासंकट से एक बार फिर साबित हुआ कि जो इन खराब हालात में धैर्य, संयम और खुदी को बुलंद रखेगा, उसके रास्ते से बाधाएं हटती जाएंगी, बेशक देर लग जाए। अगर पत्थर पर लगातार रस्सी की रगड़ से निशान उभर आते हैं, तो अकूत संभावनाओं से भरी इस दुनिया में क्या नहीं हो सकता? जहां सभी के लिए पर्याप्त अवसर और पर्याप्त रास्ते हैं, अक्सर हम बाधाओं से तब टकराते रहते हैं, जब सही रास्ते की तलाश कर रहे होते हैं और सही रास्ता मिलने पर सफलता की ओर हमारे पैर खुद ही बढ़ने लग जाते हैं, लेकिन अक्सर इस तलाश में ही बहुत सारे लोग निराश हो जाते हैं, धैर्य खो देते हैं, असंतुलित हो जाते हैं और किस्मत को कोसने लगते हैं। ऐसा लोगों को बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सकारात्मक दिशाओं की ओर अग्रसर किया है।
कोरोना महामारी, सुविधावादी जीवनशैली और ग्लोबल वार्मिग से उपजे संकट के कहर से यदि दुनिया को बचाना है तो भारत के योग, आयुर्वेद, आध्यात्मिक जीवनशैली एवं संयममय जीवन के विकल्प के अलावा शायद कोई दूसरा रास्ता नहीं है। जिस तरह से जंगल खत्म हो रहे हैं उसे देखते हुए समझ में नहीं आ रहा है कि मनुष्य को सांस लेने के लिए ऑक्सीजन कहां से मिलेगी? प्रकृति बड़ा उदार है। उसने मानव को विशाल पृथ्वी दी, अनंत आकाश दिया, चतुर्दिक व्याप्त वायु दी और जल दिया। उसने मनुष्य की श्रेष्ठता की कल्पना करके सोचा होगा कि वह सबके हित में इन तथा उसकी दी हुई सब सम्पदाओं का उपयोग करेगा। धरती को एक विशाल परिवार मानकर प्रेम की फसल उगायेगा, जलवायु से सबके प्राणों की रक्षा करेगा और आकाश से सबके ऊपर सुख की वर्षा करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मनुष्य जीवन बार-बार संकट में आता रहा है। मनुष्य के स्वास्थ्य, सामाजिक जीवन, संवेदना एवं आर्थिक चुनौतियों की ही तरह आधुनिक विश्व के सामने पर्यावरणीय चुनौतियां भी हैं जो विभिन्न प्रकार के विनाशों, खाद्य तथा ऊर्जा संकट और सामाजिक तनावों तथा संघर्षो की ओर ले जा रही है। जलवायु परिवर्तन इस चुनौती का सबसे प्रत्यक्ष तथा सिर पर आ खड़ा हुआ अवतार है। मौजूदा विकास क्षेत्र में कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए अपनाया जा रहा मशीनी रवैया नई समस्याओं को जन्म देगा।
कोरोना महामारी और जलवायु परिवर्तन से निपटना तब कहीं ज्यादा आसान हो जाएगा, अगर हम गैर-जरूरी आर्थिक गतिविधियों को कम कर देंगे, अपनी सुविधावादी जीवनशैली पर नियंत्रण करेंगे। पर्यावरण संकट को कम करने के लिये जरूरी है कि उत्पादन कम हो तो कम ऊर्जा का इस्तेमाल होगा और इस तरह से कम ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होगा। खानपान में शाकाहार को अपनायेंगे तो भी पर्यावरण पर मंडरा रहे खतरों को कम कर सकेंगे। महात्मा गांधी ने प्राकृतिक संसाधनों का विवेक और संयम के साथ उपयोग करने की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना प्रस्तुत की थी, कोरोना महासंकट ने हमें ग्राम्य जीवन में ही अधिक सुरक्षित एवं स्वस्थ जीवन के दर्शन कराये हैं।

मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना जाता है। यहां तक कहा गया है कि मनुष्य से ऊपर कुछ नहीं है। संभवतः जिन्होंने यह कहा, उनके समक्ष भारतीय संस्कृति का यह मूल मंत्र ही था-‘वसुधैव कुटुम्बकम्’। पर यह कथन किसी सुदूर युग के लिए सही रहा होगा, आज तो वह कुछ बेमानी-सा हो गया है और कोरोना महासंकट के समय हमने इसे अधिक बेमानी बना दिया है। कहते हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलकर सफलता तक जाने वाली हर यात्रा अनोखी और अद्वितीय होती है। सवाल इस बात का नहीं होता कि आप आज क्या हैं, क्या कर रहे हैं, क्या सोच, संवेदना और समय रखते हंै- बस एक संयमप्रधान जीवनशैली एवं आध्यात्मिक परिवेश चाहिए। जीवन की लहरों में तरंग तभी पैदा होगी, जब आप वैसा कुछ करेंगे। ऐसा करके ही हम कोरोना मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। आज इंसान को इंसान से जोड़ने वाले तत्व कम हैं, तोड़ने वाले अधिक हैं। इसी से आदमी आदमी से दूर हट गया है। उन्हें जोड़ने के लिए प्रेम चाहिए, करुणा चाहिए और चाहिए एक-दूसरे को समझने की वृत्ति। ये सब मानवीय गुण आज तिरोहित हो गये हैं और इसी से आदमी आदमी के बीच चैड़ी खाई पैदा हो गयी है। एक का सुख दूसरे को सुहाता नहीं है, एक की उन्नति दूसरे को हुलसाती नहीं है। सब अपने-अपने स्वार्थ में लिप्त हैं। कोरोना कहर के बावजूद वह सौमनस्य दिखाई नहीं देता, जो दिखाई देना चाहिए।
पश्चिमी देशों की भौतिक सुख-सुविधा की निरंतर खोज और उनकी तथाकथित बुद्धिवादी सोच एवं विकास की अवधारणा में घुसी हुई एक बुराई है जिसने उनको जता दिया कि वे गलत रास्तों पर बढ़ रहे हैं और उनका तथाकथित विकास कोरोना महासंकट से लड़ने में अक्षम है। पश्चिमी लोग जिन सुविधावादी सोच एवं सुख सुविधाओं के गुलाम बनते जा रहे हैं, उनके बोझ के नीचे दबकर यदि उन्हें नष्ट नहीं होना है तो उन्हें अपने मौजूदा दृष्टिकोण में सुधार करना होगा। कोरोना महासंकट ने उनकी सोच को बदला है, यही कारण है कि वे भारत की ओर आशाभरी दृष्टि से देख रहे हैं। लेकिन भारत के लोग क्यों विरासत में प्राप्त इस धरोहर से मुंह मोड़ रहे हैं?
दुर्भाग्य से मनुष्य के भीतर देवत्व है तो पशुत्व भी तो है। देव है तो दानव भी तो है। दानव को वह नहीं सुहाया होगा और उसने अपना करतब दिखाया होगा, कोरोना वायरस ऐसा ही करतब है, जिससे पूरी दुनिया प्रभावित एवं मानवता झुलस रही है। आज हम दानव का वही करतब चारों ओर देख रहे हैं। इस सनातन सत्य को भूल गये हैं कि जहां प्रेम है, वहां ईश्वर का वास है। जहां घृणा है, वहां शैतान का निवास है। इसी शैतान ने आज दुनिया को ओछा बना दिया है और आदमी के अंतर में अमृत से भरे घट का मुंह बंद कर दिया है। भगवान महावीर ने ‘जीओ और जीने दो’ का मंत्र देकर मानव-मानव के बीच की दीवार को तोड़ने की प्रेरणा दी थी। उसी मंत्र को ‘सर्वोदय’ की बुनियाद बनाकर गांधीजी ने सबके उदय अर्थात सबके सुख का रास्ता चैड़ा किया था। लेकिन आसुरी शक्तियां यानी सत्ता एवं स्वार्थ की शासन व्यवस्थाएं हर घड़ी अपना दांव देखती रहती हैं। उन्हें अशांति, अराजकता, विग्रह में आनंद आता है और आपसी द्वेष-विद्वेष से उनका मन तृप्त होता है। जिस प्रकार अहिंसा का स्वर मंद पड़ जाने पर हिंसा उभरती है, घृणा के बलवती होने पर प्रेम निस्तेज होता है, उसी प्रकार मानव के भीतर असुर के तेजस्वी होने पर देव का अस्तित्व धुंधला पड़ जाता है और कोरोना का कहर प्रभावी बन जाता है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि आपसी प्रेम घटने पर दुःख बढ़ता है, आपसी मेल-मिलाप कम होने पर द्वेष-विद्वेष में वृद्धि होती है और स्वार्थ उभरता है तो परमार्थ की भावना लुप्त हो जाती है। आज इंसान भटक रहा है, कारण कि प्रेम-मोहब्बत के रिश्ते टूट गये हैं। जब तक ये टूटे रिश्ते जुड़ेंगे नहीं, आदमी की भटकन दूर नहीं होगी, कोरोना अपना कहर बरसाती रहेगी। अब भले ही विशाल परिवार की रचना संभव न हो, लेकिन मानव का विवेक यदि आपसी सौहार्द की ओर बढ़ेगा तो उसका शुभ परिणाम कोरोना मुक्ति के रूप में अवश्य निकलेगा। 

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