कूड़ाघर बनता भारत

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दिल्ली से उ.प्र. में प्रवेश करते समय गाजीपुर में बना कूड़े का पहाड़ सबको दिखता है। उड़ती हुई चीलें, कौए और कूड़े में से अपने काम की चीजें तलाशते बच्चे वहां हर दिन ही दिखायी देते हैं। ये बच्चे ऐसी चीजें बटोरते हैं, जो कबाड़ी के पास बिक सकें। कचरे के सड़ने से गैस बनती है। उससे बचने को वहां से गुजरने वाले नाक बंद कर लेते हैं। कूड़ा बटोरने वाले बच्चों की बीड़ी-सिगरेट से कूड़े में कई बार आग लग जाती है।

अखबारों में यह कई बार छपा कि इसकी ऊंचाई अपनी निर्धारित सीमा से बहुत आगे निकल गयी है; पर किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। पिछले एक सितम्बर को यह कूड़े का पहाड़ गिर गया। कुछ लोग इसमें दब कर मर गये। कुछ वाहन कूड़े के धक्के से पास की नहर में जा गिरे। सच तो यह है कि कूड़ा आज हर नगर के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। इसका मुख्य कारण हमारी वर्तमान जीवन शैली है।

पहले विवाह के दहेज में सिलाई मशीन अनिवार्य चीज थी। अतः महिलाएं घर पर ही बड़ों के पुराने कपड़ों से बच्चों के छोटे कपड़े बना लेती थीं। कुछ कपड़ों को जोड़-तोड़ कर बच्चों के बस्ते तथा बाजार से सामान लाने के थैले बन जाते थे। दोपहर की गप्प गोष्ठी में पड़ोसी महिलाओं से नये डिजाइन मिल जाते थे; पर अब वह समय टी.वी. और मोबाइल ने छीन लिया है। अतः अब हर चीज रैडिमेड है। पैकिंग में प्लास्टिक का उपयोग बढ़ रहा है। यद्यपि प्लास्टिक ने जीवन को सरल बनाया है। उसके कारण करोड़ों पेड़ कटने से बचे हैं; पर सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि ये नष्ट नहीं होता और इसके कारण किसी चीज के बार-बार उपयोग की आदत समाप्त हो गयी है।

यद्यपि समय की घड़ी उल्टी नहीं घुमायी जा सकती; लेकिन ‘पुरानी नींव नये निर्माण’ की तर्ज पर कहीं न कहीं संतुलन जरूर बनाना पड़ेगा। नहीं तो कूड़े जैसी बेकार चीज ही समस्या बन जाएगी। इन दिनों कूड़े से सड़क और पैट्रोल आदि बनाने की बात प्रायः सुनने और पढ़ने में आती है; पर शायद ये प्रयोग अव्यावहारिक हैं। इसलिए कुछ और ही उपाय सोचना होगा।

घरों से कूड़ा एकत्र करने के लिए प्रायः सभी नगरों में कूड़ा गाड़ियां घूमती हैं। वे यह कूड़ा शहर से कहीं दूर डाल देती हैं; पर जहां भी ये कूड़ा डलता है, वहां के लोग इसका विरोध करते हैं। क्योंकि कुछ ही दिन में वहां कुत्ते, बिल्ली, चूहे, कौए और चील जैसे मांसाहारी जीवों का डेरा लगने लगता है। कूड़े की दुर्गंध और उससे होने वाले रोग भी परेशान करते हैं। यद्यपि जैविक (फल और सब्जी के छिलके, बासी भोजन, घास, पत्ते जैसे गीले) और अजैविक (बोतल, कपड़ा, धातु की चीजें, धूल, मिट्टी जैसे सूखे कूड़े) के लिए अलग कूड़ेदान होते हैं; पर लोगों का स्वभाव उन्हें अलग रखने का नहीं है। वे घर से प्लास्टिक की थैलियों में सारा कूड़ा एक साथ लाकर वहां फेंक देते हैं। भूमिगत कूड़ेदानों के मुंह पर भी कूड़ा बिखरा रहता है।

कुछ देशों में प्रशासन लोगों को कई रंग की बड़ी थैलियां देता है। उसमें लोग कूड़े को अलग-अलग रखकर कूड़ागाड़ी में डालते हैं; पर हम अपनी आदत से मजबूर हैं। वस्तुतः आजादी के बाद हमें अपने अधिकार तो बताये गये; पर कर्तव्यों की चर्चा नहीं हुई। राजनेताओं ने कहा कि तुम हमें वोट दो और पांच साल के लिए सो जाओ। इसीलिए सब ओर अव्यवस्था दिखायी देती है। कूड़े की समस्या भी उनमें से एक है।

इसलिए यदि कूड़े से बचना है, तो यथासंभव मूल स्थान पर ही इसे निबटाना होगा। केन्द्रीकरण हर समस्या का निदान नहीं है। इस नाम पर हम अपनी समस्या आगे खिसका देते हैं। घरेलू कूड़ा गली में, गली का मोहल्ले में और वहां का नगर निगम से होकर गाजीपुर जैसे कूड़ के पहाड़ में। इसलिए सबसे पहली बात तो ये है कि कूड़ा निकले ही कम। अतः बार-बार प्रयोग होने वाली चीजें काम में लाने की आदत डालनी होगी। कपड़े का थैला इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। यदि घर पर न भी बने, तो बाजार में कपड़े या जूट के थैले मिलते हैं, जो कई महीने तक चल जाते हैं।

फल, सब्जी, बासी भोजन, किचन गार्डन या क्यारी की बेकार घास, पत्ते, फूल, गाय या भैंस जैसे दुधारु पशु के मल और मूत्र आदि से घर में ही जैविक खाद बना सकते हैं। कोलतार जैसे ड्रम के आकार वाले इसके यंत्र अब बनने लगे हैं। इससे रसोई के लिए उपयोगी गैस भी मिलती है। जहां बिजली नहीं है, वहां इससे प्रकाश भी कर सकते हैं। इस संयंत्र के प्रयोग के लिए जन जागरण के साथ ही कुछ सख्ती भी होनी चाहिए। इसके कारोबार में भी काफी गुंजाइश है। यदि कोई व्यापारी इस ओर ध्यान दे, तो कुछ साल में ही हर नगर में केबल की तार और डिश टी.वी. जैसा इसका भी संजाल फैल सकता है। इससे बिजली और रसोई गैस का खर्च बचेगा और कूड़े से भी मुक्ति मिलेगी। यानि एक पंथ कई काज।

आजकल बड़ी संख्या में बहुमंजिला कालोनी और अपार्टमेंट बन रहे हैं। इसकी अनुमति देते समय शासन यह देखे कि वहां के कूड़े का वहीं निस्तारण हो। जब वहां बिजली, पानी, पार्क, तरणताल, क्लब, सुरक्षा आदि की व्यवस्था होती है, तो कूड़े की भी हो सकती है। सभी फैक्ट्रियों, विद्यालयों, धार्मिक स्थलों आदि पर भी ये नियम लागू हों। अर्थात विकेन्द्रीकरण से इस समस्या के समाधान में सहयोग होगा।

नरेन्द्र मोदी द्वारा चलाये गये ‘स्वच्छता अभियान’का असर अभी बहुत कम है। ये तभी सफल होगा, जब हमारे दिमाग साफ होंगे। अतः कूड़े के प्रति हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। तभी गाजीपुर जैसी दुर्घटनाएं बंद हो सकेंगी।

– विजय कुमार,

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