देश में कम होता भ्रष्टाचार

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प्रमोद भार्गव

देश में भ्रष्टाचार कम हो रहा है। यह बात विश्वनीय नहीं लगती, लेकिन ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया’ (टीआईआई) ने अपनी ‘इंडिया करप्शन सर्वे-2019’ नाम से जारी रिपोर्ट में यही दावा किया है। यह एक गैरसरकारी संगठन है, जो भ्रष्टाचार रोधी अभियान चलाने के साथ, भ्रष्टाचार की स्थिति पर वार्षिक सर्वेक्षण करके रिपोर्ट भी देता है। इस संगठन ने पहली बार भ्रष्टाचार कम होने की रिपोर्ट दी है। सर्वे के अनुसार 20 राज्यों के 248 जिलों में 1,90,000 लोगों से सवाल-जवाब किए गए। 35 प्रतिशत भारतीयों ने पिछले एक साल में एक बार अपना काम निकलवाने के लिए रिश्वत दी। 24 फीसदी लोगों ने स्वीकार किया कि वे रिश्वत देते रहते हैं। 25 फीसदी लोगों ने एक या दो बार रिश्वत दी। 16 प्रतिशत लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने बिना घूस दिए ही अपने काम कराए। नतीजतन भारत में 2018 की तुलना में दस प्रतिशत भ्रष्टाचार कम हो गया है। भ्रष्टाचार के मामले में 180 देशों की इस सूची में भारत का जो स्थान 78वें पायदान पर था, वह तीन पायदान सुधर गया। इस लिहाज से यह अच्छी खबर है। सर्वे के अनुसार दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा और ओडिशा में लोगों ने कम मामले दर्ज कराए, जबकि राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, झारखंड, मध्यप्रदेश और पंजाब में भ्रष्टाचार की घटनाएं अधिक रहीं।यह सर्वे इसलिए विश्वसनीय लग रहा है, क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार को खत्म करने की मुहिम चलाई हुई है। भ्रष्टाचार कम होने की इस खबर के साथ ही, यह खबर भी आई है कि आयकर विभाग के 21 अधिकारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी गई है। इसके पहले भी 64 अधिकारियों पर ऐसी ही कार्यवाही की गई है। अनेक आईएएस व आईपीएस अधिकारियों के घरों में अनुपातहीन संपत्ति की आशंकाओं के चलते छापे डाले गए। नाजायज दौलत पाए जाने के चलते उन पर कानूनी शिकंजा भी कसा गया। राज्य स्तर पर भी लोकायुक्त पुलिस भ्रष्ट अधिकारी व कर्मचारियों को रंगे हाथ रिश्वत लेते पकड़ने का सिलसिला चलाए हुए है। केंद्र सरकार ने हाल ही में आईएएस अधिकारियों को समय पर अपनी अचल संपत्ति का विवरण देने के सख्त निर्देश दिए हैं। ये ऐसे उपाय हैं, जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल बनाने का काम कर रहे हैं। बावजूद अभी कानून के स्तर पर सुधारों की जरूरत है।प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहिष्णुता की नीति अपनाई हुई है। लोकसभा चुनाव अभियान में उन्होंने जनता से भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्यवाही के लिए जनादेश मांगते हुए कहा था कि ‘जिनके चेहरों पर धूल चढ़ी है, वे आईना साफ करने में लगे हैं।’ यह लोकोक्ति भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों के संदर्भ में कही गई थी। फलतः दोबारा सत्ता में आने के बाद मोदी ने भ्रष्ट आला-अहलकारों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने का सिलसिला बनाए रखा है। देश में भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए इस तरह की कार्यवाहियां सराहनीय हैं। शीर्ष नौकरशाहों का भ्रष्टाचार में लिप्त पाना कोई नई बात नहीं है। देश की पहली महिला आईएएस सुधा यादव से लेकर मध्य-प्रदेश के अरविंद-टीना जोशी दंपति तक सौकड़ों नौकरशाह भ्रष्टाचार के दलदल में घंसे हैं। सीबीआई के प्रमुख रहे रंजीत सिंह व एपी सिंह कठघरे में हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख सचिव बीएल अग्रवाल को सीबीआई ने कदाचरण में दबोचा था। प्रवर्तन निदेशालय के पूर्व निदेशक जेपी सिंह क्रिकेट की सट्टेबाजी और मनी लांड्रिंग में हिरासत में लिए गए थे। मध्य-प्रदेश के आईएफएस बीके सिंह पर अनुपातहीन संपत्ति बनाने का मामला विचाराधीन है।इस भ्रष्ट नौकरशाही के बचाव के लिए वे कानून सुरक्षा कवच बने हुए हैं, जो पराधीनता से लेकर अब तक वर्चस्व में हैं। इस कारण भ्रष्टाचार पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। चपरासी से लेकर मुख्य सचिव तक ये कानून समान रूप से बचाव करते हैं। संविधान के अनुच्छेदों से लेकर उच्च और उच्चतम न्यायालयों की रूलिंग भी इनके लिए सुरक्षा-कवच का काम करते हैं। इसीलिए नौकरशाही इस्पाती ढांचा बनी हुई है। 1030 केंद्रीय और 6227 राज्य अधिनियमों का उपयोग व दुरुपयोग कर नौकरशाही को तो नागरिकों पर नियंत्रण का अधिकार है, लेकिन जब नागरिक या नागरिक समूह इनकी कार्य-कुशलता या कदाचरण पर थोड़ा ही आक्रामक होते दिखाई देते हैं तो उन्हें सरकारी कार्य में बाधा डालने के आरोप में सींखचों के भीतर कर देने की ताकत ये रखते हैं। शायद इसीलिए संविधान विशेषज्ञ निर्वाचित मंत्रिमंडल को अस्थाई और प्रशासन तंत्र को स्थाई सरकार की संज्ञा देते हैं। कुछ समय पहले सीबीआई ने केंद्रीय विधि और कार्मिक मंत्रालय को सिफारिश की थी कि यदि सरकार भ्रष्टाचार मुक्त शासन-प्रशासन चाहती है तो सरकारी अधिकारी व कर्मचारियों द्वारा भ्रष्ट आचरण से अर्जित संपत्ति को जब्त करने की कवायद तेज हो। इस लक्ष्यपूर्ति के लिए संविधान के अनुच्छेद 310 और 311 में भी बदलाव की जरूरत जताई गई थी। क्योंकि, यही दो अनुच्छेद ऐसे सुरक्षा कवच हैं, जो देश के लोकसेवकों के कदाचरण से अर्जित संपत्ति को संरक्षित करते हैं। अभी तक भ्रष्टाचार निवारक कानून में इस संपत्ति को जब्त करने का प्रावधान नहीं है। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में न्यायालयों में फैले भ्रष्टाचार पर चिंता जताई है। संपत्ति बनाने के लालच से अब न्यायालय भी मुक्त नहीं रह गए हैं। लेकिन मानहानि के भय से अदालतों में फैला भ्रष्टाचार सार्वजनिक नहीं हो पाता। लिहाजा इस कालिख का खुलासा खुद देश की शीर्ष न्यायालय ने किया है। सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अब न्यायालयों को सूचना अधिकार के दायरे में इसलिए लाए हैं, जिससे न्यायालयीन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे।केंद्रीय कर्मचारियों को सीआरपीसी की धारा 197 और भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा-19 में सुरक्षा प्रदान की गई है। भ्रष्टाचार के मामले में वरिष्ठ नौकरशाहों की जांच शुरू करने से पहले अनुमति की अनिवार्यता एक बड़ी बाधा है। इससे समानता के संवैधानिक अधिकार का उल्लघंन होता है। सीबीआई जांच की अनेक विभागों पर निर्भरता, इसकी निष्पक्षता में रोड़ा है। इसका अपना कोई स्वतंत्र अधिनियम नहीं होना भी इसे दुविधा में ला खड़ा करता है। दरअसल 1941 में अंग्रेजों ने दिल्ली पुलिस विधेयक के तहत ‘दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट एक्ट’ नाम की संस्था बनाई थी। इसका दायित्व केवल भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच और उन्हें परिणाम तक पहुंचाना था। आजादी के बाद 1963 में एक सरकारी आदेश के जरिये इसका नाम बदलकर ‘केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ कर दिया गया था। यह बदलाव भी संसद से नहीं हुआ। इसलिए इसकी संविधान-सम्मत मान्यता नहीं है। इसे एक परंपरा के रूप में ढोया जा रहा है। इसे संवैधानिक रूप देने का विधेयक 35 साल से विचाराधीन है। इसकी धारा-6-ए भ्रष्टाचार निरोधक कानून-1988 के उद्देश्यों और कारणों में अवरोधक का काम करती है। इसकी वैधता पर जनहित याचिकाओं के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में सवाल खड़े किए गए हैं। बावजूद यह धारा चीन की दीवार की तरह अडिग है।इन लौह-कवचों से मिली सुरक्षा का ही परिणाम है कि नौकरशाह भ्रष्ट तो हैं ही, संसद और विधानसभाओं के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं। विडंबना देखिए, भ्रष्टाचार नौकरशाह करें, लेकिन विपक्ष निंदा सरकार की करता है। यह निंदा नौकरशाहों की छवि समाज में ठीक-ठाक बनाए रखने का काम करती है। भ्रष्टाचारियों को यह सुविधा भी मिली हुई है कि जब उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है, तो उसी विभाग के शीर्षस्थ अधिकारी जांच करते हैं। चूंकि देश में विभागीय भ्रष्टाचार श्रृंखलाबद्ध है। इसलिए छोटे अधिकारी को बचाने का दायित्व बड़े अधिकारी का नैतिक कर्तव्य बन जाता है। राजनेताओं पर लगे भ्रष्टाचार की जांच भी यही अधिकारी करते हैं। इनके द्वारा तैयार जांच-रिपोर्ट, साक्ष्य और आरोप पत्र के आधार पर ही अदालत की कार्यवाही निर्भर रहती है। गोया, अब वक्त आ गया है कि भ्रष्टाचार की जांच बाहर की ऐसी समितियां करें, जिनमें सांसद, विधायक, वकील, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सदस्य बनाए जाएं। इससे शासन-प्रशासन की कार्यवाही में अपेक्षाकृत पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा।

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