भारत बनाना रिपब्लिक नहीं, कुप्रबंधन का शिकार है.

अवधेश पाण्डेय

121 करोड़ सक्षम लोगों के देश को बनाना रिपब्लिक का नाम दे दिया है राबर्ट वाड्रा ने. यह हमारे देश के लोगों की प्रशासनिक क्षमता पर करारा प्रहार है. हम केले जैसे एक-दो उत्पाद बेचकर अपनी अर्थव्यवस्था नहीं चला रहे, बल्कि सदियों से विश्व को बहुत से संसाधन उपलब्ध कराते रहे हैं. फिर भी राबर्ट वाड्रा ऐसे अकेले शख्श नहीं है, जिन्होने देश को ऐसा नाम दिया है. देश में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग कर और जनता का खून चूसकर अपनी तिजोरी भरने वाले, पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित अनेक लोगों का यही मत है. यह भी पूर्ण सत्य है कि देश पर सबसे ज्यादा शासन गाँधी परिवार के किसी न किसी प्रतिनिधि ने किया और अपनी खराब प्रशासनिक क्षमता और चाटुकारिता प्रेम के कारण वह देश को अच्छा प्रबंधन न दे सकने के कारण वह लोग अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, किन्तु ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि सिर्फ गाँधी परिवार को देश के कुप्रबंधन के लिये दोष देना समस्या का समाधान नहीं है.

 

इन सबके मूल में चिंतन करने से मुझे लगता है कि देश की असली समस्या, देश को आगे ले जाने की सोच रखने वाले महापुरुषों का अपने अपने अहम के कारण एक संगठित प्रयास न करना है. सभी अपने अपने अहम की तुष्टी के लिये अपने अपने को श्रेष्ठ बताते रहे और देश अपेक्षित गति से तरक्की न कर सका. आज भी कमोवेश वही स्थिति है, जब देश को काँग्रेस के कुशासन के विरुद्ध संगठित प्रयास करने की आवश्यकता है, तब लोग अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग अपनाये हुए अपरोक्ष रूप से काँग्रेस को ही फायदा पहुँचाने वाली बात कर देश की जनता को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं.

 

1857 (ईसवी सन ) का प्रथम स्वतंत्रता समर याद कीजिये, सभी सेनानी देश को स्वतंत्र कराना चाहते थे, किन्तु समय से संगठित प्रयास न करने के कारण उन्हे असफलता हाथ लगी थी. उस समर के परिणाम, ईस्ट इण्डिया कंपनी व ब्रतानिया शासन से हमने कभी सबक नहीं लिया, क्या अंग्रेज़ों में आपस में मतभेद न रहे होंगे, क्या राबर्ट क्लाइव की अपनी महात्वाकांक्षा न रही होगी, वह चाहता तो ब्रतानिया हूकुमत से हज़ारों मील दूर स्वयं की सत्ता कायम करने का प्रयास कर सकता था. किन्तु उन सबने अपनी राजसत्ता ( परम लक्ष्य) के लिये अपने अहम को भुला दिया. इतिहास साक्षी है कि अंग्रेज़ो ने किसी भी आधार पर कभी भी आपस में मतभेद के चलते या जाने-अनजाने कभी भी स्वतंत्रता के लिये लड़ रहे भारतीयों का सहयोग नहीं किया.

 

अभी बीते दिनों राष्ट्रवादियों का दिल्ली में एक बड़ा सम्मेलन हुआ था, संपूर्ण देश से 150 के लगभग प्रतिभाशाली लोग आये थे, ऐसा नहीं था कि आये हुए लोगों में देशभक्ति नहीं थी, किन्तु निश्चय ही उनमें अपने लक्ष्य के प्रति सही साधना व समग्र प्रयास का अभाव था. परिणाम स्वरूप उस बैठक के निष्कर्ष के बारे में किसी ने चिंता नहीं की. आज भी देश में अलग अलग देश को आगे ले जाने वाले कई प्रयास चल रहे हैं, किन्तु जिस समग्र प्रयास की आवश्यकता है वह नहीं हो पा रहा है और यह समस्या अनुभवहीन व्यक्तियों की ही नहीं है, यह समस्या देश के लिये अपना जीवन होम करने वालों में भी दिखती है.

 

आने वाला समय चुनौती पूर्ण है, जो भविष्य के भारत की नींव का निर्माण करेगा. हमारे देश के युवक-युवतियों के सामने व्यक्तिगत लक्ष्य जैसे अच्छी आजीविका, अच्छा जीवन साथी, अच्छा घर आदि तो है किन्तु एक अच्छा व विकसित देश बनाने का राष्ट्रीय लक्ष्य नहीं है. बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हे भारत की वर्तमान व्यवस्था से चिढ़ हुई भी तो उन्हे भारत को अच्छा बनाने लिये आवश्यक परिवर्तन करने के बजाय विदेशों में रहना ज्यादा श्रेयस्कर लगा.

 

कहने का अभिप्राय यह है कि देश में अच्छे लोगों या संसाधनों की कमी कभी नहीं रही, किन्तु जब तक कुछ वर्षों के लिये सभी लोग अपना अहम भुलाकर समग्र प्रयास नहीं करेंगे, वह परिवर्तन नहीं हो सकता जैसा वह खुद करना चाहते हैं.

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