अपनी अलग राह बनाता भारत

दुलीचन्द रमन

पिछले दिनों अमेरिका ने अपनी 68 पृष्ठों का राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति-2017 दस्तावेज़ प्रकाशित किया हैं जिसमें भारत का आंकलन उभरती हुई वैश्विक शक्ति के रूप में किया गया है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह उत्साहवर्धक लग सकता है। लेकिन अगर इसका गहराई से विवेचन करे तो यह अमेरिका की शीत युद्व कालीन मानसिकता का ही परिचायक है। जिसमें वह अपने हितों को ध्यान में रखकर विश्व के अन्य देशों को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करता था ताकि वह अपने तात्कालिक प्रतिद्वद्वि सोवियंत संघ पर भारी पड़े। कुछ-कुछ उसी मानसिकता के साथ आज वह रूस और चीन दोनों से एक साथ निपटने की रणनीति बना रहा है।

अमरीकी रणनीतिकारों को भी पता है कि रूस की अपनी आर्थिक मजबूरियाँ हो सकती है लेकिन तकनीक और सैन्य शक्ति के रूप में उसे आज भी कम नहीं आंका जा सकता। दूसरी तरफ चीन भी उभरती हुई सैन्य व आर्थिक शक्ति बनकर अमेरिका के सामने सीना ताने खड़ा है। जिसे संभालना अमेरिका के लिए भी भारी पड़ रहा है। चीन के साथ उसकी सैन्य प्रतिद्वदिता ही नहीं अपितु व्यापारिक प्रतिद्वदिता भी चल रही है। अमेरिका का व्यापार घाटा चीन के कारण बढ़ रहा है। चीन ने अफ्रीकी देश जिबूती में अपना सैन्य अड्डा बना लिया है जिससे वह अफ्रीका महाद्वीप के साथ लैटिन अमेरिकी देशों तक अपना दखल रख सकेगा। चीन वन बेल्ट वन रोड (ओ.बी.ओ.आर) के माध्यम से दुनिया के देशों को एक वैकल्पिक आर्थिक और रणनीतिक व्यवस्था के माध्यम से विकास का नायक बनने की कोशिश कर रहा है। दक्षिणी चीन सागर के मुद्दे पर भी वह विश्व जनमत की अनदेखी कर रहा है क्योंकि अतंराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा चीन के खिलाफ निर्णय के बावजूद भी वह उस क्षेत्र में अपनी सामरिक ताकत बढ़ाना जारी रखे हुए है। जिससे हिन्द-प्रंशात क्षेत्र में एक डर का माहौल पैदा हो गया है। चीन द्वारा भारत की गोलबंदी करते हुए ‘मोतियों की माला’ के माध्यम भारत के सभी पड़ोसी देशों के साथ चीन के बढ़ते रणनीतिक-आर्थिक संबंध भारत के चीन के प्रति अविश्वास को बढ़ा रहे है। यह अविश्वास 1962 से ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के बाद से लगातार बढ़ा ही है। इसी अविश्वास को वर्तमान में अमेरिका चीन के खिलाफ शंतरज़ के मोहरे की तरह भारत को हिन्द-प्रंशात क्षेत्र में व्यापक सहभागिता के नाम पर इस्तेमाल करना चाह रहा है। अमेरिका अफगानिस्तान में भी फंस चुका है। क्योंकि उसके चिर-परिचित दक्षिण एशियाई सहयोगी पाकिस्तान ने भी चीनी पाले में दस्तक दे दी है। दिसबंर 2017 के आखिरी सप्ताह में चीन-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की बिजिंग में सम्पन्न बैठक में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को अफगानिस्तान तक ले जाने पर सहमति व्यक्त की गई। इसलिए अब दक्षिण एशिया क्षेत्र में सिर्फ भारत ही उभरती हुई विश्व शक्ति नजर आता है। क्योंकि भारत अफगानिस्तान में भी अपनी मानवीय व संरचनात्मक दखल रखता है।

लेकिन दिसंबर 2017 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में मेरूसलम के मुद्दे पर अमेरिका के विपक्ष में वोट देकर भारत ने यह बताने की कोशिश की है कि महज राजनैतिक लफफाज़ी से भारत को अपना पिछलग्गू नहीं बनाया जा सकता। 1993 सदस्यी महासभा ने तुर्की और यमन के अमेरिका द्वारा येरूसलम को तेलअवीव के स्थान पर इजराईल की नई राजधानी के रूप मेें मान्यता देने वाले निर्णय के विरोध में लाये गये प्रस्ताव के समर्थन में वोट करके अरब देशों को भी साधने की कोशिश की है। भारत के अपने राष्ट्रीय हित भी सर्वोपरि है। हमारा 90 प्रतिशत कच्चा तेल इन्ही अरब देशों से आता है। फलीस्तीन को लेकर भी भारत का एक नजरिया रहा है जिसे अमेरिकी दाव-पेंच के दबाव व इजराईल की दोस्ती की दुहाई देकर पलटी नहीं मारी जा सकती। विश्वस्तर पर 128 देशों ने प्रस्ताव का समर्थन किया, इसलिए भारत को भी विश्व जनमत के खिलाफ जाने का कोई तुक नहीं बनता।

अमेरिका को आत्मावलोकन करने की आवश्यकता है। भारतीयों को जारी एच-1बी वीजा पर बढ़ता संकट भारतीय अर्थव्यवस्था और रोजगार पर विपरित प्रभाव डाल रहा है। इसके अतिरिक्त भारत विश्व की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। उसे अमेरिकी दबाव में किसी क्षेत्रिय या वैशविक संघर्ष में पड़ने से बचाना होगा। क्योंकि भारत की प्राथमिकता अपनी 130 करोड़ आबादी को स्तरीय जीवन प्रदान करना है।

भारत ने विगत में भी अपनी विदेश नीति में कई बार स्वतंत्र राह अपनाई है। जब दुनिया दो धड़ों में बंटी थी तब गुट-निरपेक्ष की राह, परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर के लिए पूर्ण परमाणु निस्त्रीकरण की शर्त, विश्व व्यापार संगठन की मंत्री स्तरीय वार्ताओं में विकासशील देशों के धड़े की अगुवाई, अतंराष्ट्रीय न्यायालय में इग्लैंड जैसे विकसित देश के विरोध में खड़े होकर भी भारी बहुमत से जीत हासिल करना।

लेकिन जिस प्रकार संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी प्रतिनिधि निक्की हेली ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के सदस्य देशों के लिए धमकी भरे व्यक्तव्य दिये तथा संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी हितों की रक्षा को सदस्य देशों को दी जाने वाली अमेरिकी आर्थिक सहायता से जोड़ना निदंनीय है।

भारत ने हमेशा से ही यह कोशिश की है कि वैश्विक संस्थायें बहुपक्षीय नेतृत्व आधारित होनी चाहिए। वे महज कुछ देशों की बपौती होकर अपनी विश्वसनियता खो देती है। भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता का मुद्दा भी इससे ही जुड़ा है। क्योंकि 1945 से 2017 के बीच विश्व काफी बदल चुका है। चीन जैसे स्थायी सदस्य देश अपने स्वार्थ के लिए पाकिस्तानी आंतकी मौलाना मसूद अजहर को अतंराष्ट्रीय आंतकवादी घोषित करने से रोकने के लिए वीटो पावर का सहारा लेता है तब इस विश्व संस्था की नाकामी साफ दिखाई देती है।

हमें अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर डोकलाम जैसे मुद्दों पर अपने सभी विकल्प खुले रखने होंगे। लेकिन किसी बाहरी दबाव में अपने निकतम पड़ोसी को उकसाना हमारे राष्ट्रीय हित में नही है। इस सच्चाई से भी हम मुँह नहीं मोड़ सकते कि वर्तमान में पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार, बांगलादेश, मालद्वीव पर चीनी प्रभाव साफ दिखाई देता है। लेकिन हमें विश्व को अमेरिकी नजरिये से नहीं अपितु अपनी प्राथमिकताओं के हिसाब से देखना होगा। अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति-2017 का एक पहलु यह भी है कि वह अपने सिवाय किसी अन्य देश को वैशविक शक्ति के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहता। वह भारत को भी किसी वैश्विक संघर्ष में इसलिए घसीटना चाहता है क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो इससे भारत की सैन्य जरूरतों के लिए अरबों डालर के सैन्य उपकरणों और हथियारों की आपूर्ति के आर्डर अमेरिकी कपंनियों को मिलेंगे जिससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था में नई जान आ सकती है तथा इससे रोजगार सृजन भी अमेरिका में होगा जिसका वायदा करके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चुनाव जीता था।

संयुक्त राष्ट्र महासभा में पश्चिमी देशों द्वारा रूस के खिलाफ युक्रेन में मानवाधिकार के संबंध में लाये गये प्रस्ताव के विरोध में रूस का साथ देकर अपने चित-परिचित मित्र देश को साथ लाने की कोशिश की है जो पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान के नजदीक जाने की कोशिश में था।

भारत की कई अन्य क्षेत्रीय संधियों भी है जिनमें वह अनेक देशों के साथ मिलकर कार्य कर रहा है। ब्रिक, आसियान जैसे महत्वपूर्ण संगठनों के माध्यम से अपनी पहचान और राष्ट्रीय हित सुरक्षित रखने होंगे। केवल अमेरिकी चश्में से विश्व को देखना हमारे हित में नहीं है।

 

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