भारतीय लोकतंत्र और चुनावी व्यय

राकेश कुमार आर्य

भारत में चुनावी व्यय दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। भारत जैसे गरीब देश के लिए यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि यहां आज भी देश की आधी जनसंख्या के लिए जहां तन ढकने के लिए वस्त्र और पेट की भूख मिटाने के लिए रोटी भी उपलब्ध ना हो वहां कुछ लोग चुनावों में अपनी सीट जीतने के लिए 35-40 करोड़ रूपये से

100 करोड़ रूपये तक व्यय कर रहे हैं। मतदाताओं को खरीदना और उनकी निर्धनता व अशिक्षा का लाभ अपने लिए उठाना भारत में अब कोई पाप नहीं रहा है, अपितु यह एक प्रचलन बन गया है। धनाढ्य लोगों के लिए देश की संसद या राज्य विधानमंडल में जाने के लिए निर्धन वर्ग की निर्धनता और अशिक्षा एक प्रकार से

वरदान बन रही है। ऐसे में यह लोग कैसे चाहेंगे कि देश से निर्धनता समाप्त हो, या भुखमरी और अशिक्षा का विनाश हो? नेताओं की इस प्रकार की सोच ने भारत के लोकतांत्रिक स्वरूप को विकृत किया है।

देश के मुख्य चुनाव आयुक्त एच.एस. ब्रह्मा ने 2014 में कहा था कि जब उन्होंने चुनाव खर्च की सीमा 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख की थी तो उनके पास एक सज्जन आए जिन्होंने कहा कि- आपने यह चुनावी खर्च की सीमा अब भी कम बढ़ाई है। इसे और बढ़ाना चाहिए था। मैंने पूछा कि कितना कर देना चाहिए, तो उसने कहा

कि ‘कम से कम 3 करोड़ कर देना चाहिए था।’ मैंने पूछा कि ‘आप स्वयं चुनाव में कितना व्यय करेंगे?’ तब उन्होंने कहा कि ’35-40 करोड़ रुपए व्यय करूंगा।’ चुनाव आयुक्त ने तब यह भी कहा था कि उनके पास एक अन्य सज्जन आए तो उन्होंने अपने चुनाव पर 100 करोड़ व्यय करने की बात कही। अब

प्रश्न है कि हमारे चुनाव में प्रत्याशी इतना धन व्यय करने को अन्तत: तैयार क्यों हो जाते हैं? इसका उत्तर है कि उन्हें सांसद पद मिलने का अर्थ है जैसे उन्होंने एक रियासत का राजा पद प्राप्त कर लिया हो। आपको स्मरण होगा कि आजादी से पूर्व देश में 563 रियासतें थी। अत: आज का एम. पी. उस समय की एक रियासत के

बराबर के राज्य का ही स्वामी होता है। देश में जिन लोगों के पास अकूत संपत्ति है, वह लोककल्याण की भावना से राजनीति में नहीं आते, अपितु अपने लिए एक ‘राजकीय चिन्ह’ खरीदने के लिए राजनीति में आते हैं। इसे वह हर स्थिति परिस्थिति में प्राप्त कर लेने को आतुर रहते हैं।

25 मार्च 2014 को चुनाव आयुक्त एच. एस. ब्रह्मा ने कहा था कि 2014 के आम चुनावों के लिए 5000 करोड़ रुपया व्यय होगा। उसी समय आंध्र प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम, और अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी हो रहे थे। जिनके लिए चुनाव आयुक्त ने 1000 करोड़ का अतिरिक्त खर्चा बताया था। तब चुनाव आयोग ने

देश के बड़े राज्य में संसदीय क्षेत्रों के लिए चुनावी व्यय 40 लाख से बढ़ाकर 70 कर दिया था। जबकि छोटे राज्यों के लिए यह धनराशि 54 लाख तक रखी गई थी। उस समय अनुमान लगाया था कि एक संसदीय सीट पर औसतन 10 करोड़ का व्यय देश के राजकोष से होने वाला था। चुनाव उपरान्त बी.बी.सी.ने चुनावी व्यय के

लिए कहा था कि भारत के राजकोष पर इन चुनावों से 34 अरब का अतिरिक्त बोझ पड़ा है। यह चुनावी वर्ष 2009 के आम चुनावों की अपेक्षा 131 प्रतिशत अधिक था। इसका अभिप्राय है कि 2009 के आम चुनाव पर मात्र 14.75 अरब रुपया ही व्यय हुआ था। बी.बी.सी. ने उस समय रिपोर्ट दी थी कि यदि सभी राजनीतिक दलों

के द्वारा अपने अपने प्रत्याशियों के लिए किए गए चुनावी व्यय को भी इसमें जोड़ा जाए तो 3.14 अरब रुपया व्यय हुआ। जो कि 2012 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति के चुनावी व्यय 4.14 से थोड़ा ही कम था। इसी विषय पर ‘आजतक’ की रिपोर्ट तो और भी चौंकाने वाली रही है। उसका कहना है कि 2019 में आने वाले

चुनावों में भारत में पैसा पानी की भांति बहाया जाएगा। ‘सेण्टर फॉर मीडिया स्टडीज’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान पर लगभग 5 अरब डॉलर अर्थात 33हजार करोड़ व्यय हुआ जो कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव से भी अधिक है। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में 4 अरब डॉलर अर्थात

27000 करोड व्यय होने का अनुमान उक्त संस्था का था। 2014 के चुनाव के बारे में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में 714 करोड़, कांग्रेस ने 516 करोड़,एन.सी.पी. ने 51 करोड़, बी.एस.पी.ने 30 करोड़ व सी.पी.एम. ने 19 करोड व्यय किया था।

भारत में कुल गांव की संख्या लगभग 6 लाख है। यदि एक आम चुनाव में 33 हजार करोड़ का व्यय हुआ है, और आप इस धनराशि को प्रत्येक 1 गांव के विकास के लिए 1 करोड के हिसाब से दे दो तो 33 हजार गांव का विकास एक साथ हो सकता है। देश में कुल 18 चुनाव यदि हो जाएं तो सारे गांवो को मिलने वाली यह एक

करोड़ की धनराशि इन चुनावों पर ही व्यय हो जाएगी। भारत में अब तक 16 आम चुनाव हो चुके हैं। राज्य विधानसभा के चुनाव इनमें और जोड़ दो, साथ ही नगरपालिका और ग्रामपंचायत, जिलापंचायत के चुनावो के व्यय को भी जोड़ दें, तो पता चलता है कि एक गांव के हिस्से के दो करोड़ रुपया हमने अब तक चुनावों पर ही

व्यय कर दिए हैं। कुल मिलाकर यदि देश में यह महंगी चुनावी प्रक्रिया ना होती तो आज देश के हर गांव का समग्र विकास भी हो गया होता। जिस देश के महंगे चुनाव मात्र 70 वर्ष में ही उसके गांव के समग्र विकास के पैसे को डकार गए हैं, उस देश में लोकमर्यादा के अनुकूल चलने वाला लोकतंत्र होगा भी या नहीं- यह सहज

ही अनुमान लगाया जा सकता है। हम लोकतंत्र के नाम पर एक मृगमरीचिका में जीवन यापन कर रहे हैं। संविधान के किसी भी प्राविधान में आप यह नहीं ढूंढ सकोगे कि भारत के संविधान निर्माताओं ने ऐसी महंगी चुनावी प्रक्रिया का समर्थन करते हुए कहीं एक भी शब्द लिखा हो।

गरीबों, दलितों, शोषितों और उपेक्षितों की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल भी कोई उपाय नहीं सुझा रहे हैं कि इस उपाय को अपनाकर इस महंगी चुनावी प्रक्रिया से अमुक ढंग से मुक्ति मिल सकती है। इस महंगी चुनाव प्रणाली ने सरस्वती पुत्रों को और चरित्रवान देशभक्त लोगों को राजनीति की ओर जाने से ही रोक दिया

है। जब सांसद या विधायक बनना अपने ‘रुतबे’ के साथ जुड़ जाता है और वह रुतबा धन से खरीदा जाने लगता है- तब रुतबे को पाने वाले व्यक्ति के साथ दो बीमारियां अपने आप आ जुड़ती हैं- एक तो वह जनसेवी नहीं होता, दूसरे वह चरित्रवान नही होता। यदि जनसेवी और चरित्रवान जनप्रतिनिधियों की खोज करनी है, तो

हमें अपनी सनातन संस्कृति में उन राजनीतिक मूल्य को अपनाना ही पड़ेगा जिनके अनुसार देश पर शासन करने का अधिकार केवल और केवल सरस्वती पुत्रों को, चरित्रवान लोगों को मिलने लगेगा। जिस दिन यह लोकतंत्र इन दोनों प्रकार के लोगों को आगे लाना आरंभ कर देगा, उस दिन माना जाएगा कि देश में वास्तव में

लोकतंत्र है। वर्तमान शासन प्रणाली लोकतांत्रिक नहीं कही जा सकती क्योंकि यह महंगी चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से सरस्वती पुत्रों और चरित्रवान लोगों का हनन कर रही है। ‘राम राज्य’ के समर्थकों को चाहिए कि वह लोकतंत्र के रक्षकों को आगे लाएं, भक्षकों को नहीं। लोकतंत्र के भक्षक तो राक्षस होते हैं, जिनका ‘राम

राज्य’ में संहार किया गया था।

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