भारतीय अर्थव्यवस्था में गाय

-प्रमोद भार्गव-

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गाय का मांस आहार के रूप में इस्तेमाल किए जाने को लेकर एक बार फिर विवाद सतह पर है। इस बार भाजपा के दो मंत्री आमने-सामने हैं। विडंबना यह है कि गृहराज्य मंत्री किरण रिजिजू गो-मांस खाने पर रोक के पक्ष में हैं, वहीं अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकबी गो-मांस खाने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे रहे हैं। मेरा मकसद इस बहस को तूल देना कतई नहीं है,लेकिन गाय समेत अन्य दूध देने वाले पशुधन का सरंक्शण इसलिए जरूरी है, क्योंकि पशुधन देश की कृशि व्यवस्था का मूल आधार होने के साथ करोड़ों देशवासियों की आजीविका का साधन भी है। गोयाकि पशुधन रोजगार का बड़ा उपाय होने के साथ,देश की अर्थव्यस्था में भागीदारी कर रहा है। पशुधन का सरंक्शण तब और जरूरी है,जब संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट दावा कर रही है कि भारत में 19 करोड़ 40 लाख लोग भूख की गिरफ्त में हैं। भूख के मामले में भारत ने शीर्श शिखर छूने के साथ चीन को पीछे छोड़ दिया है। लिहाजा जब भोजन के दूसरे विकल्प मौजूद हैं, तब गाय व अन्य पशुधन को भोजन के लिए मारना देश हित कतई नहीं हो सकता ? यह वैसा ही,जैसा कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान गाय को चमड़े के लिए मारा जाता था।

भोजन और आजीविका के संसाधनों के लिए गाय को मारना कोई नई बात नहीं है, अंग्रेजी हुकूमत के दौरान चमड़े के लिए गाय को मारा जाता था और अब बीफ के लिए मारा जा रहा है। जबकि पशुधन का सरंक्शण दूध उत्पादन और खेती-किसानी के लिए जरूरी है। बढ़ते बूचड़खाने और घटते पशुधन की चिताएं सीधे रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दे हैं। कृशि एवं खाध प्रसस्ंकरण उत्पादन निर्यात विकास प्राधिकरण द्वारा जारी आंकड़े के मुताबिक 2003-04 में भारत से 3.4 लाख टन गाय-भैंस के मांस का निर्यात किया गया था, जो 2012-13 में बढ़कर 18.9 लाख टन हो गया। निर्यात के इस आंकड़े ने भारत को मांस निर्यातक देशों में अग्रणी देश बना दिया है। भारत से यह मांस मिश्र,कुवैत,सउदी,अरब,वियतनाम,मलेशिया और फिलीपिंस देशों में किया जाता है। मांस का यह निर्यात सरकारी सरंक्शण और राहत के उपायों से पनपा है। सरकार ने बूचड़खानों और प्रसंस्करण संयंत्रों के आधुनिकीरण के लिए आर्थिक मदद के साथ सब्सिडी भी दीं। सरकार ने इसके निर्यात में उदार रूख दिखाते हुए अफ्रिका और राष्ट्रमंडल देशों में नए बजारों की तलाश की। जब नए उपभोक्ता मिल गए तो निर्यात को आसान बनाने के नजरिए से इसे परिवहन सुविधाओं में शामिल कर लिया गया।

गाय-भैंस के मांस की मांग दुनिया के बाजारों में इसलिए भी बढ़ रही है,क्योंकि खाद्य और कृषि संगठन इस मांस को पौश्टिक एवं स्वादिश्ट बताकर इसका प्रचार करने में लगा है। इसे चर्बीरहित तथा सुअर की तुलना में इसमें कम फैट होने का प्रचार किया जा रहा है। जाहिर है,इसकी मांग और बिक्री बढ़ रही है। नतीजतन पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केरल में इस मांस के निर्यात का करोबार खूब फल-फूल रहा है। इन प्रदेशों में वैघ और अवैघ दोनों ही दोनों तरह के बूचड़खानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। ढाई सौ से तीन सौ रूपए के किलो के भाव पर गाय-भैंसें तौल कर थोक में बेची जा रही हैं। इस बजह से पशुधन के चोरी के मामले भी पूरे देश में तेजी से बढ़ रहे हैं। यही नहीं एक समय 30 रूपए किलो बिकने वाला यह मांस अब 300 रूपए किलो तक बेचा जा रहा है। नतीजतन मांस खाने के शौकीन गरीब की हैसियत इसे खरीदकर खाने की रह ही नहीं गई है।

इस मांस के बढ़ते कारोबार के चलते पशुधन के घटने का सिलसिला तेज हुआ है। गोया, दुग्ध उत्पादन में कमी अनुभव की जाने लगी है। जिसकी भरपाई नकली दूध से की जा रही है। जो नई-नई बीमारियां परोसने का काम कर रहा है। दूध की दुनिया में सबसे ज्यादा खपत भारत में है। देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 गा्रम दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से कुल खपत प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की हो रही है। जबकि शुद्ध दूध का उत्पादन करीब 15 करोड़ लीटर ही है। मसलन दूध की कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जा रही है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रहा है। दूध की लगातार बढ़ रही मांग के करण मिलावटी इस दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। बहरहाल मिलावटी दूध के दुश्परिणाम जो भी हों, इस असली-नकली दूध का देश की अर्थव्यवस्था में योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रूपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह उत्पादों की मांग व खपत भी लगातार बढ़ी है।

दूध की इस खपत के चलते दुनिया के देशों की निगाहें भी इस व्यापार को हड़पने में लगी है। दुनिया की सबसे बड़ी दूध का कारोबार करने वाली फ्रांस की कंपनी लैक्टेल है। इसने भारत की सबसे बड़ी हैदराबाद की दूध डेयरी ‘तिरूमाला डेयरी‘को 1750 करोड़ रूपए में खरीद लिया है। इसे चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ऑइल इंडिया भी इसमें प्रवेश कर रही है। क्योंकि दूध का यह कारोबार 16 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है।
बिना किसी सरकारी मदद के बूते देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में कामयाब हैं,बल्कि इसके सह उत्पाद दही,घी,मख्खन,पनीर,मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा,मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दूध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृशि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी है, किंतु वह दूध ही है,जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही,घी,मक्खन,पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे सात करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आजीविका जुड़ी है। लिहाजा मांस के कारोबार और भोजन को प्रोत्साहित करके दुधारू पशुओं को बूचड़खाने में काटने का सिलसिला यथावत बना रहता है तो यह वाकई चिंतनीय पहलू है ? इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है। बूचड़खानों में काटने के लिए केवल वही मवेशी ले जाए जाएं जो बूढ़े हो चुके हैं। जिनने दूध देना बंद कर दिया है।

ग्रामीण और कृषि अर्थव्यस्था की धुरी गाय और भैंस को मारकर मांसाहार को बढ़ावा देना करोड़ों देशवासियों की आजीविका को संकट में डालने का खतरनाक उपाय है। जहां तक निरीह गाय का सवाल है,तो वह तो एक सरल स्वभाव का बहुउपयोगी प्राणी मात्र है। जिसकी उपयोगिता धर्म और संप्रादयों में बंटी न होकर सभी समुदायों के लिए वांछनीय है। लिहाजा जरूरी है कि गोवंश की सुरक्शा के व्यापक इंतजाम किए जाकर उसके उत्पादकों को बड़े पैमाने पर आजीविका का आधार बनाया जाए।

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