संजीवनी की तलाश में दिख रही भारतीय रेल!

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लिमटी खरे

सरकारी व्यवस्थाओं का निजिकरण करना हुक्मरानों के लिए बहुत ही आसान काम है। इससे अपने किसी चहेते को लाभ पहुंचाने के मार्ग आसानी से प्रशस्त किए जा सकते हैं। यक्ष प्रश्न यही है कि सरकारों के द्वारा जिन विभागों में निजिकरण की बयार बहाई जा रही है वहां के जिम्मेदार अफसरान की गलत कार्यप्रणाली के चलते विभागों की माली हालात इतनी दयनीय हुई है इस बात पर विचार नहीं किया जाता है। जरूरत इस बात की है कि सरकारी नुमाईंदों की जवाबदेही जो पहले से तय है की निगरानी ईमानदारी से कराई जाए, उसके बाद निजिकरण जैसे कदम उठाए जाएं। आज बीएसएनएल जैसी नवरत्न कंपनी की जड़ें हिली हुई हैं। निजि क्षेत्र की सेवा  प्रदाता कंपनियां उसी इंफ्रास्ट्रचर में लाभ कैसे कमा रहीं हैं! जाहिर है कहीं न कहीं गफलत अवश्य है। अधिकारियों कर्मचारियों को सेवाओं के प्रति जवाबदेह जब तक नहीं बनाया जाता तब तक सरकारी सेवाओं में सुधार की उम्मीद बेमानी ही कही जा सकती है।

देश की नवरत्न कंपनियों की माली हालत बहुत खराब हो चुकी है। देश के हृदय प्रदेश का ही उदहारण अगर लिया जाए तो नब्बे के दशक के बाद जैसे ही मध्य प्रदेश सड़क परिवहन निगम (सपनि) के अधिकारियों और कर्मचारियों ने सपनि को घुन की तरह खाना आरंभ किया वैसे ही यह भी घाटे में जाने लगी। इक्कीसवीं सदी में अंततः सपनि में तालाबंदी करना पड़ा। आज मध्य प्रदेश में निजि बस आपरेटर्स की मनमानी जारी है।

वर्तमान में भारतीय रेल्वे को संचालित करने वाले रेल्वे बोर्ड के पुनर्गठन की कवायद की जा रही है। रेल्वे बोर्ड के पांच सदस्य हुआ करते थे, किन्तु बड़े अधिकारियों के पदोन्नति के मार्ग बहुत ही आसानी से प्रशस्त हो जाते हैं इसलिए शीर्ष अधिकारियों एवं अन्य राजनैतिक पहुंच संपन्न लोगों को उपकृत करने की गरज से रेल्वे बोर्ड के सदस्यों की संख्या पांच से बढ़ाकर नौ कर दी गई थी। जब पांच सदस्य मिलकर भी रेल्वे को घाटे से उबारने में सफल नहीं थे तो उनकी तादाद में चार सदस्यों का इजाफा करके सरकार के द्वारा इन सदस्यों के वेतन भत्ते और अन्य सुविधाओं को बढ़ाकर रेल्वे पर वित्तीय भार ही लादने का उपक्रम किया गया था।

दरअसल, देश की आजादी के सात दशकों बाद भी हमारा सिस्टम ब्रिटिशकालीन हुक्मरानों की मानसिकता से बाहर नहीं आ सका है। भारत देश में रेल की पातों को ब्रितानी अंग्रेजों ने अपनी सहूलियत के हिसाब से बिछाया था। जब देश आजाद हुआ तब आम लोगों के लिए देश की परिवहन व्यवस्थाओं के बारे में अघोषित तौर पर यह बात स्थापित हुई थी कि परिवहन के साधनों (चूंकि उस दौर में निजि क्षेत्र की परिवहन व्यवस्थाएं न के बराबार ही हुआ करती थीं) में जनता की सहूलियत पहले देखी जाए बाद में इससे लाभ कमाने की बात पर विचार किया जाए।

लगभग तीन दशकों का रेल्वे का इतिहास अगर देखा जाए तो भारतीय रेल को सरकारों के द्वारा वोट बैंक की तरह के अस्त्र के रूप में ही इसका प्रयोग किया है। देश में रेल का बजट प्रथक से पेश हुआ करता था। रेल्वे के किराए में बढ़ोत्तरी के मामले में कुछ सालों से सरकारों का नरम रूख ही माना जा सकता है, पर मालभाड़े के मामले में ऐसा नहीं है। हर रेलगाड़ी के साथ चलने वाले लगेज कैरियर को भी रेल्वे के द्वारा नीलाम कर दिया गया है। ज्यादातर रेलगाड़ियों में अब लगेज बुक करने के लिए अलग अलग कंपनियों के द्वारा इस काम को अंजाम दिया जा रहा है। जाहिर है रेल्वे को इससे एक बंधी आय नियमित तौर पर प्राप्त हो रही होगी।

हाल ही में संसद में पेश की गई भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट पर शायद ही किसी को बहस करने की फुर्सत हो। इस रिपोर्ट में विभिन्न विभागों के द्वारा दिए जाने वाले अग्रिम भुगतान को जोड़कर अपरेशन रेश्यो 98.4 फीसदी दर्शाया गया था। वास्तव में देखा जाए तो यह अनुपात 104 फीसदी के आसपास ही बैठता है। इसका तातपर्य यह हुआ कि रेल्वे को एक सौ रूपए कमाने के लिए 104 रूपए खर्च करना पड़ रहा है। अगर वाकई ऐसा है तो रेल्वे को घाटे की दीमक धीरे धीरे चाट रही है।

आज मंहगाई के इस दौर में कौन नहीं चाहता कि उसका बेटा या बेटी सरकारी नौकरी में जाए। इसका कारण साफ है कि सरकारी नौकरी में वेतन बहुत अच्छा है, साथ ही साल में आधे दिनों के लगभग अवकाश, कोई जवाबदेही या उत्तरदायित्व को पूछने वाला नहीं है। मन में आया तो काम किया जाए नहीं तो आराम से शाम के पांच बजने का इंतजार किया जाए। निजि क्षेत्रों में काम न करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है पर सरकारी तंत्र में इस तरह के व्यक्ति को बाहर करने के लिए सौ तरह की आधार बनाने पड़ते हैं।

भारतीय रेल की कुल आवक का लगभग सत्तर फीसदी हिस्सा तो कर्मचारियों के वेतन, भत्तों, पेंशन आदि में ही खर्च हो जाता है। रेल्वे की मूल कमाई का जरिया माल ढुलाई ही है। यात्रियों को लाने ले जाने में रेल्वे को फायदे के बजाए नुकसान उठाना पड़ता है। रेल्वे के परिचालन का खर्च बहुत ज्यादा है। पुरानी तकनीक के भरोसे कब तक रेल्वे से लाभ की उम्मीद की जा सकती है! ज्यादा समय नहीं बीता है जब रेल्वे में माल ढुलाई देश की कुल माल ढुलाई का सत्तर से नब्बे फीसदी हिस्सा हुआ करती थी। अब यह आंकड़ा उतरकर पच्चीस से तीस फीसदी तक आ गया है! सरकार को सोचना होगा कि इसका क्या कारण है! अगर रेल्वे से माल भेजने में किसी कंपनी को ढेर सारी कठिनाईयों का सामना करना पड़े तो वह सड़क मार्ग से माल ढुलाई करने में ही भलाई समझेगा।

कमोबेश यही आलम यात्रियों का है। एक समय था जबकि देश के सत्तर से अस्सी फीसदी यात्री रेल के जरिए यात्रा करना पसंद करते थे, किन्तु रेल की सेवाओं में लगातार महसूस की जाने वाली गिरावट के चलते अब रेल यात्रियों की तादाद में कमी आई है। कहने को रेलों में पांव रखने की जगह नहीं रह गई है, पर आबादी के हिसाब से रेलगाड़ियों की संख्या में इजाफा नहीं किए जाने से इस तरह की स्थितियां निर्मित हो रही हैं। आज रेलगाड़ी से द्रुत गति से वाल्वो और नई आरामदेह यात्री बस गंतव्य तक यात्रियों को भेज रहीं है। कल तक बैठकर उबाऊ यात्रा के बजाए बेहतर सस्पेंशन के साथ आरामदेह बस यात्रा लोगों को रास आ रही है।

रेल्वे को अपने ढांचागत सुधार की ओर ध्यान देने की जरूरत है। इसके अलावा अब तक जितनी भी कमेटियों ने जो जो सुझाव दिए हैं उन सुझावों पर अमल करने के पहले एक बार उन पर गहन मनन की जरूरत है। एक समय था जब भारतीय रेल को देश का गौरव माना जाता था। आज जरूरत रेल्वे को सही दिशा देने वाले मुखिया की है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो एयर इंडिया की तरह भारतीय रेल का भविष्य भी स्याह नजर आए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

सरकार के द्वारा रेल्वे में बंपर नौकरियों की बात कहकर अपनी पींठ अवश्य ठोंकी जाती रही हो पर क्या सरकार का काम नौकरी देना है! दरअसल सरकार का काम नौकरियों के लिए माहौल पैदा करना है। सरकार अगर खुद नौकरियां दे रही है तो यह ठीक है पर नौकरियों के लिए माहौल कहां हैं! निजि क्षेत्रों में भी छोटी छोटी नौकरियों के लिए मारामारी किसी से छिपी नहीं है।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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