भारतीय क्षात्र धर्म और अहिंसा — अध्याय 3


( है बलिदानी इतिहास हमारा )

भारतीय राजधर्म और अहिंसा

देश की वर्तमान परिस्थितियों पर यदि चिन्तन किया जाए तो पता चलता है कि देश का नेतृत्व और विशेष रूप से अभी तक की कांग्रेस की सरकारें इस दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हैं । किसी कवि ने ठीक ही तो कहा है :–
न बिजली की अनाइतों से
न बादे फसले खिजाँ के हाथों ।
चमनपरस्तो चमन लुटा है
बहार के बागबाँ के हाथों ।।

ऐसा भी नहीं है कि इस सारी दुर्व्यवस्था के लिए केवल राजनीतिक नेतृत्व ही उत्तरदायी है । जिन लोगों के पास लेखनी थी और जो लेखनी के माध्यम से भारत के अतीत के गौरवपूर्ण सत्य को उद्घाटित कर सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया है , वे लोग भी इस सब के लिए उत्तरदायी हैं । पश्चिमी जगत के उच्छिष्टभोजी ये इतिहासकार , लेखक , पत्रकार और तथाकथित बुद्धिजीवी भारत की वैसी ही तस्वीर जनमानस में बनाते हैं, जैसी पश्चिम में बैठे उनके आका उन्हें बताते हैं । इन लोगों की दृष्टि में भारत के वेद ग्वालों के गीत हैं , जो बिना किसी साहित्यिक दृष्टिकोण के ऐसे ही गढ़ दिए गए हैं। हमारी इस सन्दर्भ में यह मान्यता है कि धन्य हैं हमारे वे महान ग्वाले जो ग्वाले होते हुए भी ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे कीर्तिमान स्थापित कर गए जिन्हें आज का तथाकथित सभ्य समाज लांघ नहीं पाया है । निश्चय ही अपने ऐसे महान पूर्वजों के समक्ष नतमस्तक होने को मन करता है।
हमारे राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा , उस की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण रखने की महान जिम्मेदारी राष्ट्र की प्रजा की समृद्धि और विकास का महान दायित्व , हमारे नीतिकारों ने राजा पर आरोपित किया है । वर्तमान काल में इसको आवश्यक मानकर हमारी संविधान सभा के महान सदस्यों ने इस पुनीत दायित्व का निर्वाह भारतीय सशस्त्र सेनाओं का अध्यक्ष महामहिम राष्ट्रपति को बनाकर तथा राष्ट्र की प्रजा के हित में सभी कानूनों व अध्यादेशों पर उन्हीं के हस्ताक्षर होने की परिपाटी डालकर उनमें ही आरोपित किया है ।

राष्ट्रद्रोही को मिले कठोर दण्ड

प्रजा की समृद्धि और विकास में बाधा पहुंचाने वाले किसी भी प्रकार के समाजद्रोही अथवा उपद्रवकारी के प्रति कठोरता का प्रयोग करना राजा अथवा राष्ट्रपति का धर्म घोषित किया गया । किसी भी उपद्रवकारी व राष्ट्रद्रोही व्यक्ति के प्रति दयाभाव बरतना शेष समाज के साथ अन्याय व अत्याचार करने से कम नहीं है । क्योंकि इससे अन्य समाज विरोधी लोगों को प्रोत्साहन मिलता है । वे लोग समाज में अति उत्साह से निष्कण्टक होकर अपने समाज विरोधी कार्यो को अंजाम देते हैं । अंग – भंग अथवा इससे भी कठोर दण्ड यद्यपि आज के तथाकथित सभ्य विचारकों की दृष्टि में अमानवीय है , पर यह भी सत्य है कि कठोर दण्ड के अभाव में ही आज समाज में अन्याय और अत्याचार का क्रम बढ़ता जा रहा है । जब कठोर दण्ड मिलेगा तो समाज में अन्याय और अत्याचार में कमी आना निश्चित है।
जिन लोगों की दृष्टि में किसी भी प्रकार का कठोर दण्ड अमान्य है वह समाज को आज तक कोई ऐसी सर्वमान्य सामाजिक न्याय व्यवस्था देने में असफल रहे हैं। जिससे समाज में जनसाधारण को आत्मोन्नति के सर्व साधन सहज ही उपलब्ध हो सकें। हर परिपाटी को और व्यवस्था को नकारना और उसमें ‘किन्तु – परन्तु’ लगाना ही आज बुद्धिजीविता की निशानी बन गया है । जो लोग यह तर्क देते हैं कि मध्यकालीन इतिहास में मुस्लिम शासकों ने कठोर दण्ड देकर भी देख लिया , किन्तु इसके उपरान्त भी अपराध में कोई कमी नहीं आयी , उनसे हमारा एक ही निवेदन है कि वे अत्याचारों को दण्ड का नाम देकर गलती कर रहे हैं। आज जबकि हम इतिहास के उन मोड़ों से काफी दूर खड़े हैं तो हमें निष्पक्षता से उन घटनाओं और परिस्थितियों का अवलोकन करना चाहिए । ऐसा करने पर हम देखते हैं कि कितने ही निरीह , असहाय लोगों से बलात जजिया वसूलना , उन्हें बलात इस्लाम स्वीकार करवाना , अपना दास बनाना , उनके घर में स्त्रियों पर अत्याचार करना आदि अमानवीय अत्याचारों से इतिहास भरा पड़ा है।
इन सब का विरोध करने वाला व्यक्ति ही अधिकांशतः शासकों अथवा शासक वर्ग से कठोर दण्ड का पात्र बनता था । अतः इस अत्याचार को दण्ड मानना अनीतिपरक है । यह तो शासकों के अत्याचारों एवं अनाचारों का ऐसा दौर था , जिसमें नैतिकता , न्याय और सामाजिक शांति व्यवस्था को सुदृढ़ करने की कोई विशेष इच्छा शासक वर्ग में नहीं दिखती । यह शासक ऐसे थे जिनका वेद और वैदिक राजधर्म अथवा राज्य व्यवस्था से दूर – दूर तक भी कोई सम्बन्ध नहीं था।

राजा के गुण और मुस्लिम शासक

‘मनुस्मृति’ में राजा के निम्नलिखित गुण बताए गए हैं :-
” वह न्यायाधीश राजा इंद्र अर्थात विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता , वायु के समान सबको प्राणवत प्रिय और हृदय की बात को जानने हारा , यम के समान पक्षपात रहित , न्यायाधीश के समान वर्त्तने वाला , सूर्य के समान न्याय धर्म विद्या का प्रकाशक , अन्धकार अर्थात अविद्या अन्याय का निरोधक , अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला , वरुण अर्थात बांधने वाले के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनंददाता , धनाध्यक्ष के समान कोषों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे।”
मनु कहते हैं :-
इन्द्रात्प्रभुत्वं तपनात्प्रतापंक्रोधयमाद् वैश्रवणाच्चविप्तम्आह्लादकत्वं च निशाधिनाथाद्आदाय राज्ञो क्रियते शरीरः।(मनुस्मृति)

अर्थात् इन्द्र से प्रभुत्व, सूर्य से प्रताप, यम से क्रोध, कुबेर से धन और चन्द्रमा से आनन्द प्रदान करने का गुण लेकर राजा के शरीर का निर्माण हुआ है।”
इन गुणों को मध्यकालीन इतिहास में मुस्लिम शासकों में से किसी भी शासक ने अपनाया हो ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । उनके चरित्र का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि ये लोग दुष्ट , नीच , अधर्मी, पापी , मानवता के हत्यारे और घोर पाशविक प्रकृति वाले ही दृष्टिगोचर होते हैं ।अपने अमानवीय अत्याचारों की विनाशकारी कार्यशैली के बल पर यह लोग लुटेरे और हत्यारे से शासक बन बैठे । जिनमें शासक का एक भी गुण नहीं था । यह लोग राजपद की गरिमा को नहीं जानते थे । वास्तविकता तो यह है कि उनके दौर में राजपद की गरिमा को पददलित किया गया। अतः यह लोग किसी भी रूप में वैदिक राज व्यवस्था में राजा पद के योग्य ही दिखाई नहीं देते। फिर इनके द्वारा अपनाई गई नीतियों को इतिहास की कसौटी पर अपने लिए स्वीकार करना स्वयं अपने साथ अन्याय करने के समान है। क्योंकि ये शासक लोग स्वेच्छाचारी , निरंकुश ,तानाशाह थे । जो इतिहास में अत्याचारों की कहानी गढ़कर ही अपने लिए स्थान सुरक्षित कराने में अपने राजकीय कर्तव्य की इतिश्री मानते थे ।
इन शासकों की नीति के अन्तर्गत हिन्दू प्रजा पर जजिया कर लगाए गए और उन्हें अति दरिद्र बना डाला गया तो दूसरी ओर मुस्लिम जनता को इन सब बातों से मुक्ति प्राप्त थी। ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू जनता स्वयं में हीन भाव से ग्रस्त रहती थी । परिणामस्वरूप समाज शासक और शोषित अथवा आततायी और पीड़ित के वर्ग में विभक्त हो गया।

भारत की वास्तविक राज्य – व्यवस्था

यह अवस्था भारतीय राज्य – व्यवस्था के नीतिकारों के आदर्शों और सिद्धांतों के विपरीत थी। उनकी मान्यताओं , धारणा और दर्शन के सर्वथा प्रतिकूल थी । यहाँ अन्याय न्याय पर , अनीति नीति पर ,अशांति शांति पर , अव्यवस्था व्यवस्था पर हावी और प्रभावी थी । यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जहाँ न्याय के नाम पर कठोर दण्ड देकर अन्याय किया जाता है वहाँ नीचे ही नीचे आक्रोश का लावा धधकता रहता है। जो अनुकूल अवसर आते ही क्रान्ति के रूप में फूट पड़ता है। विश्व इतिहास में ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं ,जब शासक वर्ग ने राजपद के प्रतिकूल पीड़ादायक अथवा प्रमाद पूर्ण कार्य किए तो जनता ने उन्हें देर-सबेर उचित और अनुकूल अवसर पर उखाड़ फेंका । शोषणपूर्ण दण्डात्मक कार्यवाही को भारतीय राज धर्म की उस आदर्श व्यवस्था में सम्मिलित नहीं किया जा सकता , जिसके अन्तर्गत प्रजा का हितचिन्तन और उससे पुत्रवत स्नेह करते हुए उसके चहुमुखी विकास के साधन सुलभ कराना राजा का सर्वोच्च सर्वोपरि कर्तव्य होता है ।
भारत के इस राज धर्म की वैदिक व्यवस्था में शासक वर्ग और शासित वर्ग अपनी – अपनी मर्यादाओं की सीमा में रहकर सभ्य आचरण करते हैं ।
जिससे समाज में शांति से समाज में शांति व्यवस्था बनी रहती है । मर्यादाओं को तोड़ना विधि के विधान में हस्तक्षेप माना जाता है । यही कारण है कि मर्यादित और संयमित आचरण पर बल दिया जाता है। राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा हेतु राष्ट्र का सैनिक बल सदैव सावधान रहता है । जिससे कि कोई भी शत्रु हमारी राष्ट्रीय सीमाओं में बलात् प्रविष्ट न हो सके।
जबकि मध्यकालीन इस्लामी शासकों के समय में हमें कुछ अलग ही देखने को मिलता है । वहाँ मर्यादा नित्य प्रति टूटती रही । जिसके चलते मुस्लिम शासकों और मुस्लिम जनता से मर्यादित और संयमित आचरण की अपेक्षा नहीं की गई । इस समय मुस्लिम जनता और शासक वर्ग जो कि अपने निन्दित और अत्याचारपूर्ण कार्यो के कारण वास्तव में दण्ड का पात्र था , उसे घोर अपराध करने पर भी छोड़ देना अत्याचारियों को अत्याचार करने को प्रोत्साहित करना था । जिस कारण समाज में आततायी और अत्याचारियों का बोलबाला हो गया । यहीं से भारत की हिन्दू जनता को अत्याचारों को चुपचाप सहन न करके उनके विरुद्ध उठ खड़े होने की प्रेरणा मिली, क्योंकि उन्होंने देखा कि सारी व्यवस्था ही दोषी हो चुकी है । जो रक्षक हैं , वही भक्षक बन चुके हैं। ऐसे में उनसे न्याय की अपेक्षा नहीं की जा सकती। फलस्वरूप हमारे पूर्वजों ने ऐसी निर्दयी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया । हमारे पूर्वजों ने अत्याचारों के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल फूंकने में समय आने पर देर नहीं की।
जिस समय हमारे कुछ लोग मुस्लिम आक्रमणकारियों का विरोध कर रहे थे या उनके शासन को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेकर संघर्ष कर रहे थे ,उसी समय कुछ लोग ऐसे भी रहे जो महात्मा बुद्ध की छद्म अहिंसा से कहीं अधिक प्रभावित दिखते थे, इसलिए वे या तो विरोध करने में सम्मिलित नहीं रहे या हिंसक विरोध करना उन्होंने उचित नहीं माना। परिस्थितिवश चुप रहने की विवशता की इस नीति को कुछ लोगों ने अहिंसा की उस बौद्ध कालीन परंपरा से जोड़ दिया , जिसके अन्तर्गत अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करना हमारे लिए उचित और अपेक्षित नहीं था । जबकि हमारी मान्यता यह है कि इन परिस्थितियों का निर्माण ही बौद्ध धर्म की अहिंसा का परिणाम था ।

आज के परिप्रेक्ष्य में अपराध और दण्ड की व्यवस्था

आज भी हमारे समाज में भाई भतीजावाद है। जिससे कई स्थानों पर कई लोगों को न्याय के स्थान पर अन्याय का शिकार होना पड़ रहा है । इस अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए हमारा अमर्यादित आचरण ही सर्वाधिक उत्तरदायी है । कुछ लोगों ने जेलों को सुधार गृह के रुप में देखना चाहा है। यह लोग दण्ड के स्थान पर मुक्ति को अधिमान देते हैं। फांसी अथवा अंग -भंग को अमानवीय दण्ड मानते हैं। यह माना जा सकता है कि कई अपराधी इस प्रकार के होते हैं कि जिनसे कोई अपराध परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण हो जाता है अथवा अज्ञानतावश ऐसा कर बैठते हैं ,जबकि वास्तव में यह लोग दिल से बहुत ही साफ और अति भद्र होते हैं । ऐसे लोगों के प्रति न्याय यही होगा कि उनकी आपराधिक पृष्ठभूमि एवं परिस्थितियों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार कर लिया जाए । ऐसे लोगों के प्रति भारतीय राज धर्म के मनीषी कठोरता न बरतने की बात करते हैं । इनके प्रति तो जेलों को एक सुधार ग्रह के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है । क्योंकि समाज अथवा राष्ट्र को इनसे कोई किसी प्रकार का खतरा नहीं होता । खतरा तो पेशेवर अपराधियों से होता है । जिनके कारण जनता की रात की नींद और दिन का चैन समाप्त हो जाता है, ऐसे लोगों से हृदय – परिवर्तन की आशा करना मूर्खता है।

ऐ सितमगर तुझ से उम्मीदे वफ़ा
जिसे होगी उसे होगी ।
हमें तो देखना यह है कि
तू जालिम कहाँ तक है ।।

अब यदि यह लोग अपने आप में परिवर्तन ले भी आते हैं तो यह भी बहुत सम्भव है कि अन्य लोग उनके देखा – देखी इस आपराधिक प्रवृत्तियों के रास्ते को पकड़ सकते हैं । जिससे समाज में अव्यवस्था को ही प्रोत्साहन मिलता है । आज हमारे समाज में ऐसा ही हो रहा है , इसलिए आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के प्रति कठोरता से पेश आना आज की युगीन आवश्यकता है । मिथ्या अहिंसावाद के विचार से निकलकर हमारा शासक वर्ग अहिंसा की रक्षार्थ हिंसा वादी बने दुष्टों और अत्याचारियों को कठोर दण्ड देने या मृत्युदण्ड देने से भी चूके नहीं ,क्योंकि राजधर्म दण्ड पर आधारित है ।

आत्मिक और जागतिक कल्याण करना राजा का उद्देश्य

मनुस्मृति में आया है :-

स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः।
चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः।।१७।।

अर्थात जो दण्ड है वही पुरुष राजा , वही प्रचारकर्त्ता और सब का शासन कर्त्ता , वही चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात जामिन है ।” भारतीय राजधर्म व्यवस्था में दण्ड की इतनी महिमा थी । इतनी आवश्यकता थी । यहाँ पर शब्द ‘प्रचारकर्त्ता’ विशेष ध्यान देने योग्य है । कैसा ‘प्रचारकर्त्ता’ किस का प्रचार करने वाला है ? यदि इस शब्द की व्याख्या करें तो आज के ‘लोकतान्त्रिक युग’ में शासन के कई प्रश्नों का उत्तर सहज ही मिल जाएगा । हम जो उल्लेख और विचार करते आ रहे हैं कि शास्त्र चर्चा के लिए शस्त्र द्वारा राष्ट्र की रक्षा परम आवश्यक है । इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शस्त्र और शास्त्र का समीकरण राजनीति और धर्म से है। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि जब राजनीतिज्ञों में दृढ़ इच्छा शक्ति होती है , तभी राष्ट्र की सीमाएं शस्त्रों से सुरक्षित रहती हैं । तभी राष्ट्र में सुख और शान्ति स्थापित होती है । तभी धर्म चर्चा भी सम्भव है । इसी धर्म चर्चा को प्रजा में प्रचार के माध्यम से पहुँचाना राजधर्म में ही सम्मिलित है । समस्त प्राणी जगत के कल्याण हेतु ऐसे सार्वभौम सार्वकालिक और सर्व कल्याणकारी सर्वप्रिय नियमों का प्रचार प्रसार करना जिनसे जनसाधारण का आत्मिक और जागतिक विकास सम्भव हो , धर्म की परिभाषा में ही सम्मिलित है ।
इस सबके लिए राजा का शस्त्रों में ही नहीं शास्त्रों में भी पारंगत होना आवश्यक है । आज के धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक लोग धर्म से निरपेक्ष रहते हैं अर्थात जनसाधारण के आत्मिक और जागतिक कल्याण हेतु कुछ करने से निरपेक्ष हैं । इसलिए उनके सामने राजनीति धर्म से ही पोषित , पुष्पित , पल्लवित व संरक्षित व शासित हो सकती है । ऐसा कहना राज धर्म की नहीं, अपितु सांप्रदायिक सोच और विघटनकारी मनोवृति की प्रतिनिधि मानी जाती है । इसीलिए चहुँओर निजी स्वार्थ राष्ट्रहित और सर्वसमाज के हितों पर हावी और प्रभावी हैं । मनुस्मृति के ही एक अन्य श्लोक पर विचार कीजिए :–

दण्डो शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः।।१८।।

‘वही प्रजा का शासन कर्त्ता सब प्रजा का रक्षक होते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है , इसीलिए बुद्धिमान लोग दंड ही को धर्म कहते हैं।’
जैसा कि हम अभी विचार कर रहे थे कि धर्म जनसाधारण के आत्मिक और जागतिक कल्याण हेतु बनाए गए नियमों और विधियों का संग्रह है । इसी पर विचार को आगे बढ़ाते हैं तो बात वही आती है, जिसे हमारे महान पूर्वजों पूर्व में ही उल्लेख कर गए हैं ” – धर्मो धारयते प्रजा:” – अर्थात धर्म वही है जो प्रजा की चहुँमुखी उन्नति ,विकास व समृद्धि का सेतु बने । जो व्यक्ति के मन – मस्तिष्क में कटुता को बढ़ाए नहीं अपितु मिटाए , जो दिलों को तोड़े नहीं अपितु जोड़े। जिससे प्रजा के कष्ट – क्लेश व सन्तापों का निवारण हो ।

हर नारी पूजनीया नहीं

जिस समाज अथवा राष्ट्र में सुख – शांति और व्यवस्था स्थापित होती है , उसकी प्रजा अपनी बहुमुखी उन्नति करती है , क्योंकि उसकी सारी सृजनशील और निर्माणात्मक शक्ति सही दिशा में व्यय होती है । वहाँ आत्मोन्नति के संसाधनों का दोहन इस प्रकार किया जाता है कि व्यक्ति स्वकल्याण को परकल्याण पर समर्पित कर डालता है तथा स्वकल्याण और परकल्याण एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं । इसीलिए दण्ड को विद्वानों ने धर्म घोषित किया है , क्योंकि यह सब स्थिति दण्ड के विधान पर ही आधारित है । भारतीय राजधर्म के सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि यद्यपि मनुस्मृति में उल्लेख मिलता है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ – अर्थात जहां नारी का सम्मान होता है ,वहाँ देवताओं का वास होता है , किन्तु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि हर स्त्री की पूजा अनिवार्य है और हर स्त्री अवध्य है । नहीं , मनु का ऐसा कहने का अभिप्राय मात्र इतना है कि हम नारी के प्रति सम्मान भाव रखने वाले बनें , क्योंकि वह भी पुरुष की भांति इस सृष्टि चक्र को चलाने हेतु ईश्वर की एक अनमोल कृति है । उसके अभाव में सृष्टि सञ्चालन का कार्य असम्भव है । सृष्टि चक्र का वह भी उतना ही आवश्यक पुर्जा है जितना कि पुरुष स्वयं है । वह समान स्तर के सम्मान की ही अधिकारिणी और पात्र है । उस पर अनुचित रूप से किया गया कोई भी अत्याचारपूर्ण कृत्य मानव धर्म के प्रतिकूल है। तभी उसे सम्मान की पात्र माना गया और उसका स्तवन एवं पूजा को आवश्यक माना गया ।
यदि कोई स्त्री स्वयं ही अत्याचारिणी है , वेद विरुद्ध और धर्म विरुद्ध कार्यों में रहकर सामाजिक स्थिति को गम्भीर खतरा उत्पन्न करती है तो उसे भी मारना परम धर्म स्वीकार करता है :-

“इन्द्र जहि युमाम सं यातुधान मुतस्त्रीयम आयनाशाशदानम ” अर्थात हे राजन ! छल – कपट से हिंसा करने वाले आततायी पुरुष और स्त्री को तू मार दे ।”
अतः स्त्री भी एक सीमा तक ही अवध्या है । उस सीमा के पार वह भी अपनी अवध्यता खो बैठती है । जहाँ उसका वध करना राजधर्म में सम्मिलित हो जाता है। भारतीय राजधर्म न्याय पर टिका है । यदि राजा के हाथों किसी प्रकार का अन्याय होता है तो वह उसके राज्य तक को भी नष्ट कर सकता है।

राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है

राज्य की रक्षा न्याय से ही सम्भव है । जिस प्रकार सृष्टि चक्र में मानवीय और प्राणी जगत के सभी प्राणियों के कर्मों के आधार पर ईश्वर उनकी योनियों का निर्धारण करते हैं और अपनी न्याय व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक प्राणी के कर्मों का फल उस तक ठीक-ठीक पहुंचाते हैं , उसी प्रकार राजा को भी अपेक्षित है कि वह भी अपनी प्रजा में प्रत्येक जन के कर्मों के आधार पर उसके फल को उस तक ठीक-ठीक पहुंचाकर ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में सहायक बने । इस न्याय व्यवस्था में ईश्वरीय कृत्य का भाव छुपा होने के कारण ही राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया ।
यह प्रतिनिधि होना राजा को स्वेच्छाचारी , निरंकुश और तानाशाह कदापि नहीं बनाता है । इसकी अपनी सीमाएं हैं । जो इन सब दुर्गुणों और दुर्व्यसनों से काफी पहले ही समाप्त हो जाती हैं । परम विद्वान ब्रह्म तत्वदर्शी राजा के द्वारा न्याय की रक्षार्थ कठोरता का पालन आवश्यक है । राज्य में जनसाधारण की जानमाल की रक्षा करना , अपराधी व दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को अपने न्याय चक्र से नष्ट कर देना , उसके द्वारा न्याय की रक्षार्थ उठाए गए कदमों में से अनिवार्य कदम होंगे । तभी न्याय की रक्षा होगी । ईश्वर का प्रतिनिधि राजा तभी तक है जब तक वह दुष्ट , पापी, आततायी और राक्षस प्रवृत्ति के लोगों का वर्चस्व समाप्त कर समाज में शान्ति स्थापित करने में सफल रहता है। इस प्रकार राजा ईश्वरीय कृत्य में सहायक होकर सृष्टि को सुचारू रूप से चलने देने में सहायक होता है ।ईश्वरीय नियमों के अन्तर्गत दुष्ट को दण्ड देना उचित है और उसे दण्ड उसी अनुपात में दिया जाना आवश्यक है , जिस अनुपात में उसका अपराध घातकता को ग्रहण किए हुए हो । राजधर्म का यह मूलभूत सिद्धांत है । जिसमें कहीं किसी प्रकार मिथ्या हिंसा का कोई स्थान नहीं है।
जो राजा न्याय में पक्षपात पूर्ण दृष्टिकोण अपनाते हैं , वह अपने ईश्वर के प्रतिनिधि होने के स्वरूप को खो देते हैं । जिस राज्य में राजा अथवा राष्ट्रपति इस प्रकार का पक्षपात पूर्ण दृष्टिकोण अपनाता है , उस राज्य में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो जाता है। जो शासक स्वयं शासनारूढ़ रहते हुए भ्रष्टाचार में डूब जाते हैं उनका साहस अपने भ्रष्ट सहयोगियों अथवा मन्त्रियों से त्याग पत्र लेने का नहीं हुआ । साथ ही जिन्होंने अपने शासनकाल में पक्षपातपूर्ण ढंग से अपने निकट सम्बन्धियों को अनुचित लाभ पहुंचाया उनके कारण जन भावना उनके विरुद्ध हो गई । इसके अतिरिक्त राष्ट्र भी पतन की पीड़ा से ग्रसित हुआ । इन लोगों के भीतर राजपद की गरिमा के अनुकूल और उसके धर्म और मर्यादा के अनुसार कदम उठाने और कार्य करने की सामर्थ्य नहीं रही। ये लोग नाहक ही राजपद पर बैठकर स्वयं को महान व्यक्तियों की श्रेणी में रखवाने और मनवाने की युक्तियां लगाते रहते हैं। हमें पता होना चाहिए कि व्यक्तित्व को महान बनाने के लिए महान कृतित्व की आवश्यकता होती है । किसी शायर ने कितना सही कहा है :–

तू कदो कामत से शख्सियत का अन्दाज न कर ।
जितने ऊंचे पेड़ थे उतना घना साया न था।।

अतः खजूर के छायाविहीन वृक्ष को देखकर यह सोचना कि सभी वृक्ष छायाविहीन ही होते हैं , एक बुद्धिमान यात्री के लिए शोभा नहीं देता । उसी प्रकार आज के भ्रष्ट और निजी स्वार्थों में रत राजनेताओं को देखकर उनके विषय में यह निष्कर्ष निकालना कि यही स्थिति सदा से रही है और सदा ही रहेगी , सर्वथा गलत और निराधार है ।

राजा न्याय कब नहीं कर पाता है ?

ईश्वर की न्याय व्यवस्था में आस्था रखने वाले राजा का आभामण्डल भी उतना ही तेजोमय होता है जितना कि स्वयं ईश्वर के दिव्य पदार्थों का होता है । उसका आभा मंडल भी उसी प्रकार दुखियों – दीनों एवं सन्तप्त पुरुषों के दुखों को हरने में सहायक होता है। जिस प्रकार ईश्वर अथवा ईश्वर के दिव्य पदार्थों का तेज दुखियों व दीनों के दुख दूर करने में सहायक होता है । जब राजा की आंखों पर स्वार्थ की पट्टी बंधी होती है तो वह न्याय नहीं कर पाता , क्योंकि अपेक्षित कठोरता दिखाने में वह असमर्थ होता है । उसकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी होती है जो अंधेरी कोठरी में अपराधी को बन्द कर उसे दण्डित करने का नाटक करता है । डण्डा दीवारों पर मारता है और अपराधी को झूठा रोने को प्रेरित करता है । जिससे कि बाहर का जन समुदाय उसके प्रति यही अनुभव करे कि उसे अपेक्षित दण्ड दिया जा रहा है । हमने श्री वी. पी. सिंह की जनता दल की सरकार में देखा कि तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रूबिया का जब कश्मीर में वहाँ के दुर्दांत आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था तो उन्होंने और तत्कालीन भारत सरकार ने रूबिया के बदले कई आतंकवादियों को छोड़ना सहर्ष स्वीकार कर लिया था । इनके बारे में किसी ने क्या खूब कहा है :–

देश जाए चूल्हे में राष्ट्र जाए भाड़ में।
खेलते शिकार सभी कुर्सियों की आड़ में ।।

माना जा सकता है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद का दिल एक पिता का दिल था , इसलिए पितृत्व की भावना के नीचे कर्तव्य कहीं दब गया हो । किंतु यह भी सत्य है कि यदि वह चाहते तो जिन आतंकवादियों को मुक्त करने की बातें कही गई थी , उनके सम्बन्धियों व परिजनों को गिरफ्तार किया जा सकता था । तत्पश्चात उनके सामने यह शर्त रखी जा सकती थी कि यदि उन्होंने रूबिया को नहीं छोड़ा तो इन लोगों की हत्या कर दी जाएगी । दुर्भाग्यवश राजनीतिज्ञों की कमजोर इच्छाशक्ति के चलते यह सब कुछ सम्भव नहीं हो पाया । यदि अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया जाता तो बहुत सम्भव था कि आतंकवादियों के हौसले पस्त होते ।
इसी प्रकार नवम्बर 1993 में भारत के राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर हमें उस समय कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के दर्शन होते हैं , जिस समय हजरतबल संकट के उत्पन्न होने पर हमारे केन्द्रीय नेतृत्व ने आतंकवादियों के सामने घुटने टेक दिए थे। इस संकट के समय कश्मीर की हजरतबल दरगाह जिसमें कि मोहम्मद साहब की दाढ़ी का पवित्र बाल रखा बताया जाता है , पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने कब्जा कर लिया था । यह सर्वविदित तथ्य है कि इस संकट के निराकरण हेतु हमारी केन्द्र सरकार ने कैसा लचीला दृष्टिकोण अपनाकर अपनी जगहंसाई कराई । यह नीति आत्मघाती सिद्ध हुई । वोटों की राजनीति पर आधारित यह कायरता की आत्मघाती नीति अहिंसा की किसी भी श्रेणी में नहीं आती।

हमने दिया विश्व को नया दर्शन

यह सत्य है कि हम भारतीयों ने ‘अहिंसा परमो धर्म:’ – की परम्परा में जन्म लिया और अहिंसा हमारे मन मस्तिष्क में रची – बसी है । पर साथ ही यह भी सत्य है कि व्यक्ति के जान-माल की हिफाजत की जिम्मेदारी सर्वप्रथम हमने ही राज्य पर आरोपित कर विश्व को नया दर्शन दिया। हमने व्यक्ति को संसार में स्वतंत्रता से सोचने , मनन करने और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सबसे पहले प्रदान की । तर्क के शान्त होने तक चिन्तन और मनन की निरन्तरता की आवश्यकता का दर्शन भी विश्व समुदाय को हमारी ही देन है । स्वतंत्रता पूर्वक मानसिक , शारीरिक और आत्मिक उन्नति का बहुआयामी दर्शन भी विश्व समुदाय ने भारत से ही लिया है । इन सब तथ्यों और साक्ष्यों के साथ मात्र इतनी सांझ स्थापित करने की आवश्यकता है कि इन तथ्यों को अक्षरशः लागू कराने के लिए इन पर आने वाली किसी भी रुकावट अथवा बाधा को समाप्त करना भी विश्व समुदाय को परम आवश्यक हम ने ही बताया । हमने इसे ही अपना राजधर्म घोषित किया। भारतीय वैदिक धर्म संपूर्ण संसार के लिए प्रकाश स्तम्भ के समान था । मानव समुदाय ऐसे प्रकाश स्तम्भ से प्रकाश प्राप्त कर तदनुसार अपनी सामाजिक , राजनीतिक और धार्मिक नीति – रीति स्थापित कर जीवन का सञ्चालन और नियमन करता था ।
वैदिक धर्म को एक ऐसी सुगन्ध कहा जा सकता है जो मानव जीवन को सर्वांशत: सुगन्धित करने में सक्षम और समर्थ है। इसके पश्चात धर्म के लबादे को ओढ़कर जब ईसाइयत और इस्लाम आए तो उन्होंने संसार में सर्वत्र मजहब की रक्तिम दीवारें खड़ी कर दीं। जिससे वह सुगन्ध कहीं विलुप्त हो गई जो सबको एक साथ चलने की प्रेरणा दिया करती थी । यह सब मिथ्या अहिंसावाद के फलस्वरूप हमारे भीतर आयी अकर्मण्यता के कारण ही सम्भव हुआ । फूलों का धर्म सुगन्ध उत्कीर्ण करना है । सुगन्ध के अभाव में काँटों ने अपना धर्म निभाना आरम्भ किया । कांटे को अर्थात मजहब को राजधर्म घोषित किया गया । व्यक्ति का उन्माद उसकी मानवता पर हावी हो गया । मजहब क्योंकि व्यक्ति की संकीर्णतावादी मानसिकता का परिचायक होता है , इसलिए वह व्यक्ति की सोच को भी संकीर्ण बनाता है । उसी के अनुकरण एवं आश्रय में मानव मानव नहीं अपितु हिन्दू, मुसलमान , सिख या ईसाई बनता है ।

प्रजा उत्पीड़कों को राजा मार दे

हमने मजहब के नाम पर होने वाले अत्याचारों को इतिहास की भाषा में पढ़ा है । जिससे यह सिद्ध होता है कि मजहब हिंसा का परिचायक है । वह हमें अवैधानिक और अनैतिक हिंसा और अनुचित कठोरता के लिए बाध्य करता है । अतः मजहब को राजधर्म घोषित करना न्याय की हत्या करना है। धर्म की स्थापना को जब-जब धर्म घोषित किया जाता है तब मानवता राजा का सबसे बड़ा धर्म होती है और उसकी रक्षार्थ जो न्याय किया जाता है वह कठोरता के लिए होकर भी मानवता का हत्यारा ना होकर उसका शुभचिन्तक होता है । इन मतावलम्बियों की हिंसा और हम वैदिक धर्मियों की हिंसा में यही अन्तर है कि वह हिंसा होकर भी न्याय पर आधारित होने के कारण अहिंसा है । क्योंकि उसका मूल उद्देश्य और मूल मन्त्र ‘परित्रणाया साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम्’ – है और यही उसके राज धर्म का मर्म है।
स्वामी वेदानन्द जी वेद के मंत्र की व्याख्या करते हुए राष्ट्रवासियों के माध्यम से वेद की भाषा में अपने राष्ट्रपति से कहलवा रहे हैं कि – विन इंद्र मृद्धो जहि – अर्थात ‘इंद्र राजन ! हमारे मसलने वालों को मार दे।’ राजा का कर्तव्य है कि प्रजापीड़कों को चाहे वे उच्च पदस्थ ही क्यों न हो , मार दे । प्रजा राज्य का मूल है। जिस प्रकार किसी वृक्ष का मूल मसल देने से उस वृक्ष की बाढ़ रुक जाती है और वह सूख कर भूमि पर आ जाता है , इसी प्रकार प्रजा को यदि राज्य कर्मचारी अथवा चोर, डाकू व अन्य आततायी दस्यु आदि मसलते रहें , पीड़ित करते रहें और उसका उपाय या प्रतिकार न किया जाए तो उसके सूख जाने से राज्य भी अंत में सूख जाएगा । राज्य के साथ राजा या राष्ट्रपति भी समाप्त होगा ।
अतः राष्ट्रवासियों की यह मांग उचित और सर्वथा मान्य है । इसलिए राजा को राष्ट्रपति को मिथ्या अहिंसावाद को छोड़कर अपने पद की गरिमा एवं राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रजा को मसलने वालों को मारने के अपने राज धर्म से कभी विमुख नहीं होना चाहिए । राजा के धर्म में अहिंसा का स्थान यही है कि सारी प्रजा कष्ट , क्लेशों, प्रजापीड़कों के अत्याचारों और अनाचारों से मुक्त हो। उसे किसी प्रकार का भय न रहे । यदि राजा अपने इस धर्म को पहचान जाता है तो वह पूर्णरूपेण अहिंसक ही कहा जाएगा । आततायी को क्षमा करना , दुष्टों के सामने आत्मसमर्पण कर प्रजा को दुष्टों की ही दया पर आश्रित करने के समान है । जो कि राजधर्म के प्रति राजा की कर्तव्यहीनता और उदासीनता का ही प्रतीक है । हम कर्तव्य विमुख व्यक्ति की नहीं अपितु कर्तव्यशील और कर्मशील व्यक्ति की पूजा करते आए हैं ।महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं कि :- ” स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापम वाप्स्यसिम “-अर्थात यदि तू इस युद्ध को नहीं करेगा तो तू स्वधर्म और कीर्ति से च्युत होगा और पाप का भागी रहेगा।” भारतीय राजनीतिक नेतृत्व क्या अर्जुन की भांति अपने धर्म के मर्म को समझ कर आचरण कर रहा है ?
समाज में सर्वत्र अशान्ति , अराजकता और अस्त व्यस्तता का होना व प्रजा उत्पीड़क आततायियों का समाज में वर्चस्व होना , उपरोक्त प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देने के लिए पर्याप्त है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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